बिहार में चंपारण सत्याग्रह के कारण और परिणाम (1917 ) का वर्णन करें।

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प्रश्न – बिहार में चंपारण सत्याग्रह के कारण और परिणाम (1917 ) का वर्णन करें।
उत्तर – 

1917 में महात्मा गांधी द्वारा चंपारण सत्याग्रह शुरू करना भारत के इतिहास में क्रांतिकारी तौर पर मील का पत्थर साबित हुआ, मानवता के इतिहास में भी और समाज के पुनर्निर्माण और अहिंसा पर आधारित राजनीति में भी । साधारण और शोषित लोगों की ताकत पर आधारित इस आंदोलन ने किसानों को हिंसा के हस्तक्षेप के बिना शोषण से मुक्त किया और शोषकों के खिलाफ मुकदमा चलाया और शांतिपूर्ण सामाजिक परिवर्तन तथा शासन प्रक्रिया को ठीक करने के लिए मानवता हेतु एक स्वच्छ एवं निर्मल उदाहरण प्रस्तुत किया।

बिहार में चंपारण किसान संघर्ष का विकास – 

  • चंपारण आंदोलन की एक बहुत महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसका नेतृत्व प्रबुद्ध लोगों द्वारा किया गया था। देश के कुछ प्रमुख नेताओं, अर्थात गांधीजी, राजेंद्र प्रसाद, बृजकिशोर प्रसाद और मौलाना मजहरूल हक ने इस आंदोलन में भाग लिया। इसने आंदोलन को ताकत और एक दिशा प्रदान की।
  • ‘‘हो सकता है कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह का पहला प्रयोग बिहार के चंपारण में किया जाना मात्र एक संयोग ही हो, किन्तु उससे जो सफलता मिली तथा उसका ही महत्त्व सर्वाधिक है। “
  • महात्मा गांधी ने भारत में सत्याग्रह का पहला प्रयोग 1917 ई. में चंपारण में किया जो चंपारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। यह राष्ट्रीय आंदोलन की प्रमुख घटना थी क्योंकि इस आंदोलन के दौरान गांधी जी ने जिन तरीकों का प्रयोग किया उसका उसके बाद के सभी आंदोलनों में उपयोग किया गया। इसी आंदोलन के साथ गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए।
  • चंपारण क्षेत्र में अंग्रेज भूमिपतियों के द्वारा किसानों का निर्मम शोषण लम्बे समय से होता आ रहा था। 19वीं सदी के आरंभ में गोरे बगान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध करा लिया था, जिसके तहत किसानों को अपनी जमीन के 3/20 हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे ही ‘तिनकठिया पद्धति’ कहा जाता है। न तो किसानों को उचित मजदूरी मिलती थी और न ही नील की खेती भूमि के लिए ही अनुकूल थी। जो किसान नील की खेती करने से मुक्ति चाहते थे उनपर मनमाने ढंग से लगान बढ़ा दिया जाता था। इस उत्पीड़न एवं शोषण के कारण किसानों की आर्थिक दशा सोचनीय हो गयी थी। प्रशासन, पुलिस और न्यायपालिका भी किसानों के विरूद्ध जमींदारों के साथ ही खड़ी थी। बिहार के समाचार पत्रों विशेषकर ‘बिहारी’ ने समाचारों के माध्यम से नीलहों के अत्याचारों को जनता के समक्ष रखा।
  • 1916 ई. में कांग्रेस का 31वाँ अधिवेशन लखनऊ में हुआ जिसमें बिहार से काफी संख्या में प्रतिनिधि शामिल हुए। यहाँ चंपारण के नीलवरों एवं उनके साथ रैयतों के सम्बंध की जाँच के विषय में प्रस्ताव पारित हुए। इस अधिवेशन में चंपारण के वयोवृद्ध किसान नेता जसौली पट्टी के बाबू लोमराज सिंह के संदेशवाहक के तौर पर राजकुमार शुक्ल ने गाँधी जी से मुलाकात कर चंपारण के किसानों की दयनीय स्थिति एवं अंग्रेजों के अत्याचार की कहानी उन्हें सुनाई और उनसे चंपारण आकर स्थिति का अध्ययन करने का अनुरोध किया। शुक्ल जी के अनुरोध पर गांधी जी अप्रैल 1917 को पटना पहुँचे। 11 अप्रैल, 1917 को गांधी जी ने ‘बिहार प्लैन्टर्स एशोसिएशन’ के मंत्री जे. एम. विल्सन से मुजफ्फरपुर में मुलाकात कर अपने आने का कारण बताया। परंतु विल्सन ने किसी भी प्रकार की सहायता से इंकार कर दिया। तब वे तिरहुत डिवीजन के कमीश्नर मि. मौर्शेड से मिले । मौर्शेड का मानना था कि किसी प्रकार की जाँच की जरूरत नहीं है। इसके बाद गाँधी जी मोतिहारी के लिए प्रस्थान किए। उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश हुआ जिसे उन्होंने मानने से इंकार कर दिया। गांधी जी पर मुकदमा चलाया गया लेकिन बाद में उसे वापस ले लिया गया। गांधी जी को चंपारण के गाँवों में जाने की छूट दे दी गई। सरकारी आदेश की अवहेलना तो बड़ी बात थी ही, गांधी जी के सामने सरकार का झुकना उससे भी बड़ी घटना थी।
  • गांधी जी ने अपने सहयोगियों ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसार, महादेव देसाई, नरहरि पारिख, आचार्य कृपलानी, अनुग्रह नारायण तथा अन्य बुद्धिजीवियों के साथ सुबह गाँवों में निकल जाते और दिनभर घूम-घूमकर किसानों का बयान दर्ज करते। उधर ‘बिहार प्लेन्टर्स एशोसिएशन’ ने गांधी जी के जांच पर अपना विरोध प्रकट किया तथा इस सम्बंध में एक प्रस्ताव कमिश्नर के सामने भेजा। गांधी जी और उनके सहयोगियों की सक्रियता और वहाँ के किसानों का उत्साह देखकर सरकारी व्यवस्था असमंजस में पड़ गई। लेफ्नेिंट गवर्नर एडवर्ड गेट ने समस्या के हल हेतु गांधी जी को वार्ता के लिए बुलाया और किसानों के करों की जाँच हेतु ‘चंपारण कृषि समिति का गठन किया। इस जाँच समिति के अध्यक्ष एफ.जी. स्लाई. थे। गांधी जी को भी इस समिति का सदस्य बनाया गया। पाँच सदस्यीय इस समिति में राजा हरिहर प्रसाद नारायण सिंह भी थे। 4 अक्टूबर, 1917 को इस समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमें कहा गया कि बढ़े हुए लगान का 1/4 हिस्सा छोड़ दिया जाए एवं नकदी वसूली गई राशि में से 25% वापस कर दिया जाए। सिफारिश में ‘तिनकठिया प्रणाली’ को समाप्त करने की बात भी कही गई। इस प्रकार गांधी जी ने किसानों की राहत के लिए एक महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल की। फलतः कहा जा सकता है कि आंदोलन पूर्ण सफल रहा और बिहार की धरती पर किया गया महात्मा गांधी का पहला प्रयोग भी सफल रहा।

आंदोलन के कुछ महत्त्वपूर्ण परिणाम नीचे दिए गए हैं – 

  • आंदोलन का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण परिणाम 1 मई, 1918 को भारत के गवर्नर जनरल द्वारा प्रस्तुत चंपारण कृषि अधिनियम का अधिनियमित होना था।
  • नौकरशाही में यूरोपीय बागान मालिकों और उनके प्रोटेक्टर्स द्वारा कठोर विरोध के बावजूद, गांधीजी और उनके साथी संघर्ष को एक सफल निष्कर्ष पर लाने में सक्षम रहे। कुछ विद्वान ऐसे थे जिन्होंने चंपारण आंदोलन को सफल आंदोलन के तौर पर नहीं माना।
  • उनका मानना था की किसानों के साथ शोषण और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन सफल नहीं हुआ। मिसाल के तौर पर, रमेश चंद्र दत्त ने तर्क दिया कि सरकार और किसानों के बीच हुए समझौते के तहत जमींदारों ने हमारे किसानों के शोषण का प्रतिकार नहीं किया, साथ ही चंपारण में महात्मा गांधी की अगुवाई में हुए इस आंदोलन से चंपारण के किसानों की भयानक गरीबी और पीड़ाओं के मुख्य कारणों, अर्थात्, अत्यधिक किराए और ऋणों की अधिकता के खिलाफ कोई लड़ाई नहीं हुई।

निष्कर्ष – 

सामान्य किसान और अहिंसा की विचारधारा की भागीदारी ने किसानों को ताकत दी। इस आंदोलन के परिणामों को देखना दिलचस्प है। चंपारण आंदोलन को भारत में किसान आंदोलनों के इतिहास में एक सफल गाथा मानी जाती है। चंपारण सत्याग्रह हमेशा एक महत्वपूर्ण आरंभिक आंदोलन बिंदु के रूप में रहेगा, पहली बार, राष्ट्रीय आंदोलन के लिए किसान अशांति, जिसने बाद में अंतिम सफलता के लिए एक गारंटी सुनिश्चित की। जैसा कि हम घटना के शताब्दी वर्ष का निरीक्षण करते हैं, कोई भी आश्चर्यचकित होगा कि गांधी द्वारा दिखाए गए दृढ़ता और दृढ़ संकल्प और उनके आह्वान पर लंबे समय से पीड़ित चंपारण के किसानों द्वारा पेश किए गए निष्क्रिय प्रतिरोध के लिए कोई भी श्रद्धांजलि कैसे पर्याप्त हो सकती है। ऐसे समय में जब हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श और घटनाएं सार्वजनिक स्मृति से लुप्त होती दिख रही हैं, यह वास्तव में संतुष्टिदायक है कि आध ुनिक भारतीय इतिहास के सबसे उल्लेखनीय प्रकरणों में से एक की शताब्दी पर इस देश में एक उत्सव होना चाहिए।

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