भारत छोड़ो आन्दोलन में झारखण्डियों की भूमिका

भारत छोड़ो आन्दोलन में झारखण्डियों की भूमिका

‘भारत छोड़ो आन्दोलन में झारखण्ड की भूमिका’ अध्याय में सम्पूर्ण देश में भारत छोड़ो आन्दोलन की परिस्थितियाँ कैसे तैयार हुईं ? तत्कालीन विश्व घटना चक्र का भारतीय राजनीति को किस प्रकार दिशा निर्देशित कर रही थी 1942 का वर्ष भारतीय राजनेताओं एवं तो अंग्रेज हुक्मरानों के बीच दुविधा की स्थिति पैदा कर दी थी. भारतीय नेतृत्व आन्दोलन की दिशा तय करने के द्वन्द्व से गुजर रहे थे, अंग्रेज सरकार को क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद भारत में सटीक नीति तय करने के मामले में दुविधा की स्थिति में डाले हुए था. इस अध्याय में भारत की इन तथ्यों के सन्दर्भ में तत्कालीन परिस्थितियों की चर्चा की गयी है.
यह अध्याय पूरे देश में विस्तृत भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रसार को झारखण्ड के विभिन्न जिलों में पृथक् ढंग से वर्णित किया गया है.

> भारत छोड़ो आन्दोलन में झारखण्डियों की भूमिका

1940 का दशक भारत की स्वतन्त्रता की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण दशक रहा. 3 सितम्बर, 1939 में यूरोप के देश युद्धरत् हो गये थे, जिन्होंने विश्वयुद्ध का रूप ले लिया. ब्रिटिश शासकों ने भारत को भी युद्ध में अपना सहभागी बना लिया. इस समय भारतीय नेताओं की स्थिति दुविधापूर्ण थी. भारतीय नेताओं की दुविधा का वर्णन, विपिनचन्द्र, अमलेश त्रिपाठी एवं वरुण देव ने इन शब्दों में किया है ‘“वे फासिस्टवाद दर्शन के बिलकुल विरुद्ध थे, जैसाकि जाहिर था वह एक तरह का एकदलीय शासनतन्त्र था जिसमें रंगभेद सम्बन्धी दुराग्रह भी शामिल था. यहाँ तक कि 1939 के पहले के वर्षों में आक्रमण के विस्तारवादी कार्यक्रम के साथ जब फासिस्टवाद एक राजनीतिक दर्शन के रूप में उभर रहा था तभी जवाहर लाल नेहरू जैसे अनेक नेता यूरोप में उसको विकसित होते देखकर बहुत चिंतित हुए थे. कांग्रेस ने बहुत ही स्पष्ट ढंग से उसकी निन्दा करते हुए स्पेन, इथोपिया और चेकोस्लोवाकिया की पीड़ित जनता को खुला समर्थन देने की घोषणा की थी. जापान में भी फासिस्टवाद की प्रवृत्ति के विकास पर उनका दृष्टिकोण वैसा ही रहा और जब जापान ने चीन पर आक्रमण किया तो उन्होंने तर्कसम्मत ढंग से चीन का समर्थन करते हुए जापान को आक्रमणकारी कहा, लेकिन साम्राज्यवाद के भी उतने ही प्रबल विरोधी थे.”
द्वितीय विश्वयुद्ध फासिस्टवादी ताकत एवं साम्राज्यवादी ताकत के मध्य का संघर्ष था और भारत इन दोनों ताकतों का विरोधी था.
अतः युद्ध को लेकर उनका दृष्टिकोण इस बात पर निर्भर करने वाला था कि उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य क्या हैं ?
14 सितम्बर, 1939 को कांग्रेस ने एक वक्तव्य जारी किया जिसमें दल के दृष्टिकोण की स्पष्ट व्याख्या थी.
“अगर युद्ध का उद्देश्य यथावाद, साम्राज्यवादी आधिपत्य, उपनिवेश निहित स्वार्थ और विशेषाधिकारों की रक्षा है, तब भारत की उसमें कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती है, लेकिन यदि मसला जनतन्त्र का या जनतन्त्र पर आधारित विश्व व्यवस्था का है तब उसमें भारत की गहरी दिलचस्पी है 11
कांग्रेस ने तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो को युद्ध सम्बन्धी अपना उद्देश्य स्पष्ट करने को कहा. वायसराय बहुत दिनों तक असमंजस की स्थिति में रहे. अन्ततः ब्रिटिश प्रधानमंत्री के आदेश से वायसराय ने ‘डोमिनियम स्टेट’ देने की बात स्वीकारी जिसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया. जवाहर लाल नेहरू ने स्वतन्त्रता से कम कुछ भी स्वीकारने से इनकार कर दिया. beet
” भारत का सम्बन्ध है युद्ध एक भयानक मोड़ ले चुका था. जापानी भारतीय जनमानस दुविधा की स्थिति में था, क्योंकि जहाँ तक सेना ने द्रुत गति से ब्रिटिश सेना के विरुद्ध बढ़ते हुए सिंगापुर, मलाया को रौंद दिया एवं रंगून तथा माण्डले पर भी कब्जा कर लिया. ब्रिटिश सेना पीछे की ओर भाग रही थी, इस क्रम में वे सारी सम्पत्ति को भी नष्ट करती जा रही थी, ताकि विरोधी सेना को कुछ भी प्राप्त नहीं हो, किन्तु अंग्रेजों की इस नीति से भारतीयों को भविष्य में दिक्कतों का सामना करना पड़ता. इस प्रकार 1942 में भारत विश्वयुद्ध की रंगमंच बनने वाला था. अप्रैल 1942 में जापानी एवं इनके सहयोगी राष्ट्रों द्वारा भारत के विशाखापत्तनम एवं काकीनाडा पर हवाई हमला कर दिया था. जापानी युद्ध बेड़ा बंगाल की खाड़ी में उतार दिया गया था. इस बीच अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट एवं चीनी चिंग काई शेक ने ब्रिटिश सरकार पर भारतीय नेताओं के साथ समझौता करने का दबाव बनाने लगे थे. इस निर्णायक क्षणों में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं का स्थानीय ब्रिटिश शासकों के साथ गतिरोध दूर करने हेतु सर स्टिफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा, किन्तु क्रिप्स महोदय भी अपने मिशन में असफल हो गये. क्रिप्स मिशन की असफलता से गांधीजी की मानसिकता में परिवर्तन हो गया. अब तक वे अंग्रेजी शासन के खिलाफ व्यापक चाहते थे, किन्तु क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद उन्होंने ब्रिटिश आन्दोलन छेड़कर युद्धरत् ब्रिटिश शासन को परेशान करना नहीं शासकों को भारत पूर्ण रूप से छोड़ने को कहा.
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की 8 अगस्त, 1942 को मुम्बई एक ऐतिहासिक बैठक बुलायी गयी, जिसमें भारत छोड़ो प्रस्ताव को स्वीकृत किया गया. इस प्रस्ताव में स्वतन्त्रता प्राप्ति को मुख्य ध्येय बताया गया जिसकी प्राप्ति हेतु महात्मा गांधी ने लोगों को ‘करो या मरो’ का एक मंत्र दिया.
‘करो या मरो’ की घोषणा के साथ ही देश के सम्पूर्ण राष्ट्रभक्तों में दासता से मुक्ति हेतु एक विद्युत् धारा प्रवाहित हो गई. अंग्रेज शासन भयभीत होकर गांधीजी समेत सभी बड़े नेताओं को डिफेंस ऑफ इण्डिया रूल के तहत् 9 अगस्त, 1942 को गिरफ्तार कर लिया. सम्पूर्ण देश में आन्दोलन की लहर दौड़ गई. 1942 की क्रान्ति की लहर सम्पूर्ण बिहार में दौड़ गई. बिहार का दक्षिण भाग (वर्तमान का झारखण्ड) भी इस आन्दोलन से प्रभावित हुआ. झारखण्ड के प्रायः सभी हिस्सों में इस आन्दोलन का विस्तार हो गया. जगह-जगह पर संचार-व्यवस्था को नुकसान पहुँचाया गया. रेलवे लाइन को उखाड़ दिया गया. सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया गया, कोर्ट, कॉलेज, कार्यालय एवं स्कूल का त्याग किया गया. झारखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में भारत छोड़ो आन्दोलन का विवरण अग्रलिखित प्रकार है –

> राँची

राँची झारखण्ड का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन केन्द्र था. भगत के लोग राँची में काफी सक्रिय थे. इन्होंने अनेक स्थानों पर टेलीफोन एवं टेलीग्राफ की लाइनों को काट दिया एवं विष्णुपुर रेलवे स्टेशन को आग के हवाले कर दिया. चरका भगत भूमिगत होकर आन्दोलन करने लगे. विमल दास गुप्त, केशव दास गुप्त एवं सुनील कुमार राज को भूमिगत आन्दोलन चलाने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया. लोहरदगा के छात्रों ने स्कूल-कॉलेजों के भवनों पर तिरंगा झण्डा फहराया. जेल के चहारदीवारों में बन्दियों में भी भारतमाता की मुक्ति की चिन्ता थी. राँची जेल में कैद दो कैदी शालिग्राम अग्रवाल और मोतीलाल अमेठिया ने कैद से मुक्त होने हेतु जेलर का गला दबा दिया. गुमला में 16 अगस्त, 1942 के दिन गंगा महाराज और गोविन्द भगत को लोगों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. गणपत खण्डेलवाल को थाने में झण्डा फहराने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया और मांझी एवं सोना हातु के थानों पर आक्रमण कर उनके टेलीफोन तार काट दिये. 22 अगस्त को उटकी रंगखाती के मध्य रेल की पटरियों को आन्दोलनकारियों ने उखाड़ दिया. आन्दोलनकारियों ने 25 अगस्त को सिल्ली थाने के अन्तर्गत राँची – पुरुलिया रेल लाइन को उखाड़ दिया, तार काट दिये, संचार व्यवस्था को ठप करना ही इनका मुख्य उद्देश्य था. गुमला एवं खूँटी अनुमण्डलों सैकड़ों लोगों को आन्दोलनरत् रहने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया, इन पर सामूहिक जुर्माना लगाया, किन्तु इसके बावजूद राष्ट्रीयता के रंग से सरोबार रणवांकुरों पर इन गिरफ्तारियों एवं आर्थिक जुर्माना का कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था.

> धनबाद

धनबाद 1942 में मानभूम जिले का एक अनुमण्डल था. यहाँ जगह-जगह पर रेल लाइन उखाड़ दी गई, डाकघरों को लूट लिया गया, सरकारी भवनों पर राष्ट्रीय तिरंगा फहरा दिया जाता. धनबादगोमो रेलवे स्टेशन के बीच पटरियाँ उखाड़ने का कार्य, तार काटने का कार्य तीव्र हो गया, जिससे परेशान होकर ब्रिटिश शासन ने दमनात्मक कार्यवाही तीव्र कर दी. दमनात्मक कार्यवाही के अन्तर्गत तीन राष्ट्रभक्त आन्दोलनकारी अशोक नाथ चौधरी, समरेन्द्र मोहन
1. तत्कालीन राँची जिले में गुमला, लोहरदगा एवं राँची जिले शामिल थे.
राय एवं सुशील चन्द्र दास गुप्त को गिरफ्तार कर लिया गया. पूरे धनबाद को कैप्टन एलिस के नेतृत्व में सेना के हवाले कर दिया गया. कतरास, झरिया तथा धनबाद में अनियन्त्रित स्थिति पर काबू पाने के लिए कर्फ्यू लगा दिया गया.

> हजारीबाग

8 अगस्त, 1942 की आन्दोलन की घोषणा होते ही 9 अगस्त को हजारीबाग के प्रमुख नेता श्री राम नारायण सिंह एवं सुखलाल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया. 11 अगस्त को श्रीमती सरस्वती देवी को भी गिरफ्तार कर लिया गया. श्रीमती सरस्वती देवी ने गांधीजी द्वारा छेड़े गये सभी आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
हजारीबाग के छात्रों के मध्य यह आन्दोलन स्वतः स्फूर्त था. 11 अगस्त को विद्यार्थियों का एक समूह विधान सभा की इमारत पर तिरंगा फहराने के प्रयास में पुलिस की गोली के शिकार हो गये जिसमें सात छात्र एक-एक कर शहीद हो गये एवं अनेक छात्र घायल हुए. ज्योंही इस गोलीकाण्ड की सूचना हजारीबाग पहुँची यहाँ के छात्र उग्र हो गये. छात्रों के एक जुलूस ने उपायुक्त के कार्यालय भवन से यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहरा दिया. इन छात्रों ने स्थानीय सरकारी भवनों; यथा – डाकघर, डाक बंगले, रेलवे स्टेशन, क्लब पर तिरंगा फहरा दिया. संत कोलम्बस महाविद्यालय के छात्रों ने इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. जगदीश राम एवं डॉ. त्रिवेणी प्रसाद सरकारी कर्मचारियों को पद त्यागकर आन्दोलन में भाग लेने के लिए अभिप्रेरित कर रहे थे, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.

> गिरिडीह

गिरिडीह में आन्दोलन उग्र नहीं हो इसे ध्यान में रखते हुए प्रशासन ने जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. शहर में सेना को मुस्तैद कर दिया गया था, परन्तु इसका कोई प्रभाव आन्दोलनकारियों पर नहीं पड़ा. प्रशासन आन्दोलन कमजोर करने के उद्देश्य से तीन प्रमुख कांग्रेसी राजन सिंह, अजीत कुमार नाग एवं जगन्नाथ सहाय को गिरफ्तार कर लिया, परन्तु इससे आन्दोलन में तीव्रता आ गई.
उलमरी में अनंतलाल एवं कारूराम सक्रिय थे. इन्होंने उलमरी थाने पर आक्रमण कर दिया. इन दोनों संथालियों को आन्दोलन में भाग लेने के लिए उकसा रहे थे, जिसके कारण इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इसी दौरान छठु ठठेरा, नारायण मोदी, लेखीराय एवं पुनीत राय को धनबाद थाने पर तिरंगा फहराने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया. सरकारी भवनों पर तिरंगा फहराने की छिट-पुट घटना हजारीबाग जिले के अन्य जगहों पर भी हुई. हंटरगंज (चतरा ) थाना क्षेत्र में चौकीदारी टैक्स देना बन्द कर दिया गया. कोडरमा में एक जुलूस ने रेलवे स्टेशन में आग लगा दी. यहाँ छटुराम एवं होरिल राम आन्दोलन का संचालन कर रहे थे, जिन्हें सरकार ने गिरफ्तार कर लिया.
झारखण्ड में भारत छोड़ो आन्दोलन का व्यापक विस्तार हजारीबाग जिले में हुआ. यहाँ के प्रायः सभी थानों में आन्दोलनकारी सक्रिय थे.
श्रीमती सरस्वती देवी – 5 फरवरी, 1901 को हजारीबाग के प्रो. चौधरी विष्णु दयाल के यहाँ जन्मी इस बाला ने राष्ट्रीय आन्दोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया. ये पर्दा-प्रथा उन्मूलन, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं हरिजन उत्थान के प्रति सदैव जागरूक रहीं. जेल जाने वाली यह बिहार की प्रथम महिला क्रान्तिकारी थीं.
9 नवम्बर, 1942 की एक घटना ने इसे और हवा दी. इस दिन हजारीबाग केन्द्रीय कारागार से जयप्रकाश नारायण, रामानन्द मिश्र, योगेन्द्र शुक्ल, सूरज नारायन सिंह, शालिग्राम सिंह तथा गुलाबी सोनार दीवार फाँदकर फरार हो गये. इस घटना ने ब्रिटिश शासकों को सचेत कर दिया. अब पूरे जिले में दमन चक्र तीव्र हो गया. डुमरी, झुमरीतिलैया एवं डोमचांच में सैनिकों को नियुक्त किया गया तथा डोमचांच एवं कोडरमा में लोगों पर सामूहिक जुर्माना लगाया गया.
हजारीबाग के तत्कालीन उपायुक्त की एक रिपोर्ट से इस जिले में आन्दोलन की व्यापकता का अंदाज लगता है. इन्होंने अपने एक सरकारी रिपोर्ट में लिखा “हमें ऐसा प्रतीत होता है कि इस जिले के अधिकांश लोगों में असन्तोष बना हुआ है. स्वतन्त्रता के लिए इस आन्दोलन के प्रति सभी वर्ग के भारतवासी के मन में सहानुभूति जगी है.”

> पलामू

पलामूवासी ब्रिटिश शासन की प्रारम्भ से ही खिलाफत करते रहे. अतः 1942 के आन्दोलन में भी पलामू के राष्ट्रभक्तों ने ब्रिटिश शासकों को नाकों चना चबवा दिया, चटुवंश सहाय, राजकिशोर सिंह, भुवनेश्वर चौबे एवं वाचस्पति त्रिपाठी ने ग्रामीण क्षेत्र में पंचायतों, रक्षादलों एवं आदिवासी संगठनों को संगठित करने का प्रयास किया. इस दौरान ब्रिटिश शासन के खिलाफ जन जागृति लाने में कुमारी रामेश्वरी सरोज दास सक्रिय थीं इन्हें एक आपत्तिजनक भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. पलामू के छात्रों में भी राष्ट्रीयता की भावना हिचकोरे ले रही थी. छात्रों के एक जुलूस ने न्यायालय भवन पर झंडा फहराने का प्रयास किया. इस दौरान इन पर लाठी चार्ज किया गया, जिसमें अनेक छात्र घायल हुए.
गढ़वा के छात्रों ने भी सरकारी भवनों पर तिरंगा फहरा दिया. इस क्रम में छात्र नेता रामकिशोर तेली, गोपाल प्रसाद, गौरीशंकर एवं विश्वनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया.
मजदूरों ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया. जपला सीमेन्ट फैक्ट्री के मजदूरों ने हड़ताल कर दी. आन्दोलनकारियों ने डाल्टेनगंज में रेल तार व्यवस्था को भंग कर दिया.
लातेहार क्षेत्र के ताना भगतों एवं स्थानीय नेताओं ने गिरफ्तारियाँ दीं. इनमें श्री जेठन सिंह खेरवार, गुरोशाह, नकछेदी कहार, भगीरथ सिंह खेरवार, दुलारचन्द्र प्रसाद भुवनेश्वर प्रसाद अग्रणी थे.

> सिंहभूम

सिंहभूम जिले में अवस्थित जमशेदपुर एक औद्योगिक नगर होने के कारण यहाँ के वासी देश-विदेश की घटना से जल्दी प्रभावित होते थे. 9 अगस्त को टाटा वर्कर्स यूनियन ने त्रेतासिंह एवं मि. जॉन के नेतृत्व में हड़ताल कर दी एवं कांग्रेस को पूर्ण सहयोग देने का संकल्प लिया गया. जमशेदपुर में वी. पी. सिन्हा काफी सक्रिय थे. अतः इन्हें 15 अगस्त को जॉन के साथ गिरफ्तार कर लिया गया, जिसके विरोध में छात्रों एवं मजदूरों ने चाईबासा में एक जुलूस निकाला एवं देश को स्वतन्त्र कराने का संकल्प लिया 19 अगस्त को श्रमिक नेता एम. डी. मदन को गिरफ्तार कर लिया एवं प्रशासन ने दमन चक्र तीव्र कर दिया, जिसके विरोध में सफाई कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी. सरकारी भवनों, शराब की दुकानों, संचार के साधनों; जैसेसड़क, रेल, तार, टेलीफोन को क्षतिग्रस्त कर दिया गया. फलस्वरूप अंग्रेजों की दमनात्मक कार्यवाही तीव्र हो गई तथा आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारियाँ होने लगीं. आन्दोलन का विस्तार रामगढ़ स्थित पंजाब रेजीमेन्ट की सेना, पुलिस, सरकारी सेवकों तक में हो गया.
> मुख्य बातें
> झारखण्ड में राष्ट्रीय आन्दोलन का व्यापक विस्तार, असहयोग आन्दोलन के समय, महात्मा गांधी के नेतृत्व काल में हुआ.
> कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 से 1905 तक का समय उदारवादी नेतृत्व का काल या जिनका प्रभाव झारखण्ड वासियों पर नहीं था.
> झारखण्ड में राष्ट्रीय जनान्दोलन का पथ प्रदर्शक ताना भगत आन्दोलन था.
> ताना भगत आन्दोलन अपने स्थापना वर्ष 1914 से ही स्वशासन की स्थापना हेतु अंग्रेजों एवं जमींदारों की खिलाफत करता आ रहा था.
> ताना भगत आन्दोलनकारी महात्मा गांधी से ज्यादा प्रभावित था, क्योंकि दोनों का विश्वास सत्य, अहिंसा एवं सादगी में था.
> ताना भगतों ने महात्मा गांधी द्वारा छेड़े गये हर आन्दोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया.
> ये गांधीवादियों की तरह खादी वस्त्र, टोपी आदि धारण करते थे.
> राष्ट्रीयता ताना भगतों के जीवन में इस प्रकार घुल-मिल गई कि ये आज भी नित्य अपने आँगन में तिरंगे झंडे की पूजा करते हैं.
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