भारत में राष्ट्रवाद के बजाय क्षेत्रीयता, नस्लवाद, धर्म की भावना राष्ट्र के विकास के लिए हानिकारक हैं। क्या ये सत्य है? वैविध्यपूर्ण भारत के संतुलित विकास के लिए उपयुक्त नीति क्या होनी चाहिए ? चर्चा करें।
भारत दुनिया के सबसे अधिक धार्मिक और जातीय विविधता वाले देशों में से एक है, जहाँ विभिन्न प्रकार के धार्मिक समाज और संस्कृतियाँ विद्यमान हैं। इस दृष्टिकोण से, धर्म, क्षेत्र, नस्ल और पंथ, भारत के विकास प्रक्रिया में केंद्रीय और निश्चित भूमिका निभाते हैं।
विकास कारकों पर चर्चा करने से पहले, इस विकास प्रक्रिया के उद्देश्य को नहीं छोड़ा जाना चाहिए। विकास की अवधारणा में कुछ अंतर्निहित विशेषताएं हैं जैसे कि समावेशन, निष्पक्षता व समानता, वितरण की प्रकृति, आदि । इस प्रकार किसी भी भौगोलिक क्षेत्र का विकास, चाहे यह देश हो, राज्य हो या केवल एक नगरपालिका क्षेत्र हो उन्हें अन्य पहलुओं के बजाय इन मुद्दों को लेकर अधिक जागरूक रहना होगा । दूसरे शब्दों में, विकास सभी के लिए उचित होना चाहिए। इस प्राथमिकता के बाद ही, विकास के कारक प्रक्रिया में सम्मिलित हों।
राष्ट्रवाद, इसकी लोकप्रिय अवधारणा के विपरीत, यह मुख्य रूप से किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के साथ संबंधित है और किसी भी भौगोलिक क्षेत्र के लोग क्षेत्रीयता, नस्लवाद, धर्म आदि के परक्रम के परिणामस्वरूप बने होते हैं । इस प्रकार, यह कहना गलत होगा कि भारत में राष्ट्रवाद के बजाय क्षेत्र, नस्ल, धर्म की भावना राष्ट्र के विकास के लिए नुकसानदेह है। हालाँकि, जब राष्ट्रवाद का यह नया रूप राजनीति में बड़े पैमाने पर एकत्रित होने का केंद्र बिंदु बन जाता है और यह क्षेत्र, जाति, धर्म आदि की भावना के कारणों को दरकिनार कर देता है तो यह राष्ट्रीय विकास के लिए हानिकारक हो जाता है
संतुलित विकास स्थायी आर्थिक विकास और साझा समृद्धि के लिए एक पूर्व शर्त है। इसके अंतर्गत शहरी केंद्रों और ग्रामीण क्षेत्रों तथा अति विकसित और कम विकसित क्षेत्रों एवं समान वितरण के बीच संबंधों को मजबूत करने की निश्चित आवश्यकता है। इस प्रकार विकास की उपयुक्त नीति निम्नलिखित सिद्धांतों पर स्थापित की जा सकती है:
संवैधानिक मूल्यों, आदर्शों और दृष्टि पत्र तथा भावना को समान रूप से परिभाषित करना – भारतीय संविधान एक संवैधानिक विधि पुस्तक के बजाय एक दार्शनिक दस्तावेज की तरह है। इसमें समानता, बंधुत्व, कमजोर और हाशिए पर के लोगों के लिए दया, क्षेत्रीय असमानता को संबोधि त करने सम्बन्धी प्रावधान आदि की एक अच्छी संख्या है, जो अगर भावना और सन्देश पत्र में समान रूप से पालन किए जाते हैं, तो विविधतापूर्ण भारत में संतुलित विकास के लिए मजबूत नींव रख सकते हैं।
मीडिया की भूमिका – मीडिया में सूचनाओं के लोकतंत्रीकरण की महत्वपूर्ण क्षमता है, इस कारण मीडिया को अक्सर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में प्रचारित किया जाता है। इस प्रकार, यदि हम संतुलित विकास को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो हमें स्वतंत्र मीडिया के लिए एक स्वस्थ परिस्थिति का निर्माण करना होगा।
राजनीतिक जागरूकता – संतुलित विकास के लिए राजनीतिक प्रक्रिया शायद नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। विविध भारतीय आवश्यकताओं के संबंध में राजनीतिक दलों को अपनी जिम्मेदारियों को समझना चाहिए। पूरे देश या राज्य में उनके विचारों को थोपने का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए। भारत की विविधता के बारे में यह राजनीतिक जागरूकता केंद्रद- राज्य संबंधों के संदर्भ में और भी अधिक प्रासंगिक है। केंद्र और राज्य में अधिकार रखने वाली पार्टियों को भारत की विविधता के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और उन्हें इस तरह से सहयोग करना चाहिए कि देश और राज्य का विकास खतरे में न पड़े।
- आर्थिक विचार – संतुलित क्षेत्रीय विकास की वकालत निम्नलिखित तीन आर्थिक विचारों के लिए की जाती है –
- स्थानीय संसाधनों का उपयोग – संतुलित क्षेत्रीय विकास देश के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध संसाधनों के इष्टतम उपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है।कुछ निश्चित स्थानों पर औद्योगिक गतिविधियों के केन्द्रीकरण से अधिक स्थानीय संसाधनों जैसे कच्चे माल, ईंधन, श्रम, उपयोग नहीं होने के कारण उन संसाधनों का अपव्यय होता है।
- रोजगार के अवसरों का विस्तार – संतुलित क्षेत्रीय विकास के अवसरों के तहत देश के विभिन्न भागों में उद्योगों की स्थापना द्वारा देश में रोजगार के अवसरों को समान रूप से एवं संतोषजनक स्तर पर विस्तारित किया जा सकेगा ।
- आधारभूत संरचनात्मक सुविधाओं का उपयोग – संतुलित क्षेत्रीय विकास देश के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित किए गए सभी अवसंरचनात्मक सुविधाओं जैसे परिवहन और संचार, बिजली संसाधनों, सिंचाई सुविधाओं, शैक्षिक और स्वास्थ्य सुविधाओं के पूर्ण उपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है।
संतुलित क्षेत्रीय विकास एक अच्छे तरह से ज्ञात प्रामाणिक उद्देश्य है। सभी क्षेत्रों को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ खुद को विकसित करना होगा। विभिन्न क्षेत्र, देश के अभिन्न अंग के रूप में अपनी क्षमताओं का पूरी तरह से उपयोग करने का प्रयास कर सकते हैं। जिससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की उन्नति के साथ-साथ सर्वागीण क्षेत्रीय विकास प्राप्त होता है।
वर्तमान परिस्थितियों में, यह जरूरी है कि क्षेत्रीय असंतुलन को कम करने के लिए, पिछड़े क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके, उन दिशाओं में लगातार काम किया जाए जहां से विकास प्राप्त होता है और साथ ही उपलब्ध संसाधनों का चयनात्मक और न्यायिक वितरण सुनिश्चित होता है।
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