विकास के नियम की विवेचना करें।

प्रश्न – विकास के नियम की विवेचना करें।
(Discuss the Principles of development.)
उत्तर – विकास एक निरन्तर चलने वाली क्रिया हैं जिसमें नियमों के अनुसार शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते रहते हैं। विकास के नियम निम्नलिखित हैं:-
  1. विकास अवस्थाओं के द्वारा अग्रसर होता है-बालकों का विकास कुछ अवस्थाओं द्वारा अग्रसर होता है। हर अवस्था की अपनी एक विशेषता होती है जो उसे दूसरी अवस्था से भिन्न बताती है। इस विकास की अवस्था के विषय में कहा गया है कि “एक विकास अवस्था दूसरी विकास अवस्था से प्रमुख लक्षणों के आधार पर अलग की जाती है एक अग्रणी विशेषता जो विकास की अवस्था को न्याय संयुक्त एकता एवं अनोखापन प्रदान करती है। ”
    जब एक अवस्था में बालक का विकास पूर्ण को जाता है तब वह दुसरी अवस्था के लिए तैयार होता है। विकास की निम्नलिखित अवस्थाएँ हैं : (1) गर्भकालीन अवस्था (2) शैषवावस्था (3) बचवनावस्था (4) बाल्यावस्था (5) वयासंधि (6) किशोरावस्था (7) प्रौढ़ावस्था।
  2. प्रारंभिक विकास बाद में होने वाले विकास की अपेक्षा अधिक कठिन होता है: पूर्व में किए गए विभिन्न अध्ययनों द्वारा यह तथ्य सावित हो चुका है कि विकास के प्रारंभिक वर्ष उसके बाद के वर्षों की अपेक्षा अधिक कठिन एवं विवेचनात्मक होते हैं। इसके लिए एक Chinese proveb का उपयोग किया गया है कि—”As the twing is bent, so the tree’s inclined.” Milton ने और भी काव्यात्मक ढंग से इसके विषय में कहा है, “The childhood shows the man, as morning shows the day.” सर्वप्रथम फ्रायड (Freud) ने अपने अध्ययन, जो कि बच्चों के कुसमायोजन के विषय में था, में बताया कि बाल्यावस्था में यदि बच्चे के अनुभव अनुकूल नहीं होते तो आगे चलकर वह जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में सही रूप से समायोजित नहीं हो पाता। Erikson ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है, “Childhood is the scene of man’s beginning as man, the place where our particular virtues and vices slowly but clearly develop and make themseleves felt.” इन्होंने बचपनावस्था (babyhood) को ‘time of basic trust’ कहा है जब बच्चा दुनिया को अपने लिए सुरक्षित विश्वसनीय एवं जीने योग्य मानता है अथवा वह दुनिया उसके लिए आशंकाओं से भी अविश्वसनीय या जिसके विषय में सही अनुमान नहीं लगाया जा सके एवं विश्वासघातक मालूम होती है। ये सारी बातें इस बात पर निर्भर करती हैं कि बचपन में माता-पिता ने उसके खाने-पीने, जरूरतों, प्यार और उसपर कितना ध्यान दिया।
  3. विकास परिपक्वता अधिगम का परिणाम है
    बालक का मानसिक एवं शारीरिक दोनों विकास परिपक्वता और अधिगम के परिणामस्वरूप होता है। यद्यपि पि यह स्पष्ट नहीं है कि परिपक्वता एवं अधिगम दोनों में विकास के लिए कौन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के वंशानुक्रम से सम्बन्धित शारीरिक गुणों या क्षमता का विकास परिपक्वता माना जाता है जिसके कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन उम्र वृद्धि के साथ-साथ बढ़ते हैं। यद्यपि परिवर्तन, सीखने के परिवर्तन सीखना कहलाता है जो अभ्यास और प्रशिक्षण पर निर्भर करता है। सीखने के द्वारा बच्चा नई प्रतिक्रियाओं को प्राप्त कर उनकी क्रियाशीलता को बढ़ता है।
    गर्भकालीन अवस्था में विकास प्रायः परिपक्वता के कारण होता है तथा थोड़ा विकास बालक की क्रियाओं के कारण होता है। प्रायः गर्भावस्था में जो गर्भस्थ शिशु ज्यादा क्रियाशील होते हैं । वे बाद में विभिन्न शारीरिक कौशलों को जल्दी सीख लेते हैं।
  4. विकास प्रतिमानों की भविष्यवाणी की जा सकती है
    प्रत्येक प्राणी चाहे वह आदमी हो अथवा जानवर, उनके विकास प्रतिमान विशेष होते हैं। गेसेल (A. Gesell, 1924) ने बाल-मांनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए जेनेटिक अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि, “Every child has a unique pattern of growth but that pattern is a variant of a basic ground plan. The species sequence are part of an established order of nature.” बच्चे का शारीरिक विकास कुछ नियमों के आधार पर होता है। प्रथम Cephalocaudal law के अनुसार शारीरिक विकास पहले सिर के क्षेत्र, फिर धड़ और अंत में पैरों में होता है। दूसरे नियम अर्थात् Proximodistal Law के अनुसार सुषुम्ना नाड़ी के पास के क्षेत्रों में पहले तथा नाड़ी क्षेत्र से दूर के क्षेत्रों में विकास देर से होता है।
  5. विकासात्मक प्रतिमानों की विशेषता की भविष्यवाणी की जा सकती है
    सिर्फ विकासात्मक प्रतिमान ही नहीं बल्कि उनकी विशेषताओं की भविष्यवाणी करना भी सम्भव है। विकास का अपना एक क्रम होता है जो निश्चित होता है। एक अवस्था के बाद ही दूसरी अवस्था आएगी, यह नियत होता है। यद्यपि इसमें वैयक्तिक विभिन्नताएँ हो सकती हैं। उदाहरण के लिए समय से पूर्व जन्म लेने वाले बच्चे, समय पर जन्म लेने वालों से उनके विकास की गति धीमी और पिछड़ जाती है पर थोड़े समय बाद वे सामान्य बच्चों की तरह की विकसित होने लगते हैं। बहुत तीव्र बुद्धि वाले एवं कम बुद्धि वाले बच्चों के साथ भी ऐसा हो होता है। जो तीव्र बुद्धि के होते हैं उनकी अपेक्षा मंद बुद्धि वाले बच्चों का विकास धीमी गति से होता है।
  6. विकास में वैयक्तिक भिन्नताएँ होती हैं
    यद्यपि विकास के प्रतिमान सभी बच्चों में एक समान होते हैं किन्तु प्रत्येक बालक के विकास प्रतिमानों का अपना वैयक्तिक स्वरूप होता है। सभी बच्चे एक समान उम्र में एक ही तरह विकसित नहीं होते। Dobzhansky ने कहा है, “Every person in indeed biologically and genetically different from every other.” यहाँ तक कि identical twins के वातावरण भी समान नहीं होते। वास्तव में बाहरी एवं भीतरी दोनों परिस्थितियों के कारण उनमें भिन्नता पाई जाती है। बालक का शारीरिक विकास उसके वंशानुक्रम तथा बाह्य वातावरण यथा भाजन, स्वास्थ्य, स्वच्छ हवा, सूर्य की रोशनी, मौसम, संवेग तथा शारीरिक श्रम पर निर्भर करता है। वहीं बौद्धिक विकास वंशानुक्रम, सांवेगिक माहौल तथा अवसरों पर निर्भर है। व्यक्तित्व विकास के लिए Genetic factor के साथ-साथ अभिवृत्ति एवं घर तथा सामाजिक सम्बन्ध मुख्य भूमिका अदा करते हैं। विभिन्न क्षेत्रों एवं रेस के दो बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में भिन्नता पाई जाती है। इस दिशा में हुए अध्ययनों के आधार पर यह स्पष्ट हुआ है कि किसी भी आयुविशेष पर सभी बालक समान ढंग से व्यवहार नहीं करते। चूँकि विकास के क्षेत्र में वैयक्तिक भिन्नताएँ पाई जाती है अतः सभी बालकों के लालन-पालन की समान विधियाँ लागू नहीं की जा सकतीं।
  7. विकास प्रतिमानों की एक अवधि होती है
    यद्यपि विकास एक सतत् प्रक्रिया है किन्तु यह सिद्ध हो चुका है कि विभिन्न उम्र में कुछ गुण या लक्षण ज्यादा स्पष्ट होते हैं— दूसरे लक्षणों की अपेक्षा और उनका विकास तीव्र गति से होता है। किस अवधि में कितना विकास होगा, इसकी सिर्फ भविष्यवाणी की जा सकती है और यह अवधि उम्र से नहीं बल्कि biological events तथा बालक की, व्यवहार प्रणाली द्वारा जानी जा सकती है। बालक के विकास की पाँच विकासात्मक अवधियाँ हैं, जो गर्भाधान से शुरू होकर तबतक चलती है जबतक कि बच्चा यौन रूप से पूर्ण विकसित नहीं हो जाता है। यह अवधियाँ निम्नलिखित हैं : –
    1. जन्मपूर्व की अवस्था जो गर्भाधान से लेकर शिशु के जन्म लेने तक की अवस्था है। जन्म के पूर्व विकास की गति अत्यंत तीव्र होती है। इस अवस्था में विशेषकर शारीरिक विकास एवं शारीरिक अंगों की वृद्धि होती है।
    2. शैशवावस्था (Infancy) — यह अवस्था Period of Neonate या नवजात अवस्था कहलाती है जो जन्म से लेकर पन्द्रह दिन तक की अवधि तक चलती है। इस समय बच्चा माँ के गर्भ से बाहर आकर बाह्य वातावरण में समायोजित होना सीखता है। इस अवधि में शारीरिक विकास नहीं होता।
    3. बचपनावस्था (Babyhood) – यह 2 सप्ताह के अंत से शुरू होकर 2 साल तक चलती है। शुरूआत में तो बच्चे बिल्कुल असहाय एवं अपनी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर करते हैं। पर धीरे-धीरे अपनी मांसपेशियों पर नियंत्रण करना सीख जाते हैं और आत्म-निर्भर होते जाते हैं। उनमें आत्म निर्भर होने की इच्छा जरूरत से ज्यादा होती है।
    4. बाल्यावस्था (Childhood) – यह अवस्था 2 साल से शुरू होकर किशोरावस्था आने तक चलती है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है। पहला पूर्व बाल्यावस्था (early childhood) जो 2 साल से 6 साल तक चलती है। ऐसे में बच्चे अपने वातावरण पर नियंत्रण करना या सामाजिक समायोजन करना सीखता है। दूसरा, उत्तर बाल्यावस्था (Late childhood) जो लगभग 6 वर्ष से शुरू होकर 14 वर्ष तक लड़कों में एवं लड़कियों में 13 वर्ष तक चलती है। इसी अवस्था में बच्चे यौन परिपक्वता प्राप्त करते हैं। इस अवधि की खास विशेषता होती है बच्चे का समाजीकरण या Socialization इस अवस्था को school age या gang के नाम से भी जाना जाता है।
    5. वय : संधि (Puberty)—यह अवस्था childhood के अंतिम 2 वर्षों से लेकर किशोरावस्था के प्रारम्भिक दो वर्षों तक चलती है। वयःसंधि लड़कियों में 11-15 तथा लड़कों में 12-16 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में बच्चे का शरीर वयस्क रूप से परिणत हो जाता है।
      वैयक्तिक विभिन्नताओं के बावजूद बच्चे प्राय-मान्य उम्र में जरूरी विकास कर लेते हैं। यदि कहीं कोई कमी हो, बच्चा उम्र के अनुसार मान्य क्षमताओं को पूरा न कर सके, तो शिक्षक एवं माता-पिता की सहायता से इसे पूरा किया जा सकता है।
  8. प्रत्येक विकासात्मक अवस्था की सामाजिक अपेक्षाएँ होती हैं
    प्रत्येक संस्कृति में व्यक्ति में कुछ व्यवहार एवं कुछ निपुणताएँ होती हैं जिन्हें वह खास उम्र में अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा सीख लेता है। वैसे प्रत्येक संस्कृति में वहाँ लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे निश्चित अवधि में नियत कार्यों एवं योग्यताओं को सीखें। प्रत्येक समाज अपने सदस्यों से यह आशा करता है और यदि व्यक्ति ऐसा करने में सफल नहीं होता तो उसके व्यवहार की आलोचना की जाती है। ऐसे में वह सामाजिक मापदंडों पर खरा उतरने की चेष्टा करता है। इन सामाजिक अपेक्षाओं को Developmental tasks कहते हैं।
  9. प्रत्येक विकास क्षेत्र में बाधाएँ आती हैं
    बच्चे के विकास के कुछ प्रतिमान होते हैं जिसके अनुसार बालक का विकास होता है किन्तु कुछ बाधाएँ भी आती हैं जिससे उसका विकास प्रभावित होता है। Erikson ने कहा , “The struggles that inevitably characterize all growth can generate utterly reliable talents as well as intractable problems.” इनमें कुछ बाधाएँ तो वातावरण के कारण उत्पन्न होती हैं और कुछ आंतरिक बाधाएँ होती हैं। किन्तु बाधाएँ चाहे किसी भी कारण से उत्पन्न हुई हों, ये बालक के शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक समायोजन को प्रभावित करती हैं। फलस्वरूप बच्चे का विकास पीछे पड़ जाता है।
  10. विभिन्न विकास अवधि में खुशियों की मात्रा अस्थिर रहती है
    पुरानी मान्यताओं व परंपराओं के अनुसार बाल्यावस्था जिन्दगी में सबसे खुशियों की अवस्था है। इसके द्वारा दूसरी धारणा को भी बल दिया जाता है कि बाल्यावस्था खुशियों भरी, चितां रहित एवं भविष्य में अच्छे समायोजन की गारंटी है। किन्तु ये दोनों बातें सभी बच्चों के लिए सही नहीं हैं। विभिन्न बच्चों के लिए कभी यह खुशियों भरी अवस्था है तो कुछ बच्चों के लिए यह खुशियों के अवस्था नहीं। खुशी एवं नाखुशी ( happiness and | unhappiness) के अध्ययन के पश्चात यह बताया गया है कि “three A’s of happiness अर्थात् प्रेम (affection), उपलब्धि (achievement) तथा स्वीकार करना (acceptance), ये तीनों अनुभव किसी व्यक्ति को खुशी की अनुभूति करा सकते हैं। स्वीकृति (Acceptance) का अर्थ सिर्फ दूसरों द्वारा स्वीकृति ही नहीं बल्कि खुशी के लिए अपने आप को स्वीकार करना (Self acceptance) भी जरूरी है। जो बच्चे दूसरे द्वारा स्वीकार किए जाते हैं, वे स्वयं को भी सही रूप में स्वीकार कर पाते हैं एवं आगे चलकर एक सही समायोजन कर लोकप्रिय वयस्क एवं जीवनसाथी बन पाते हैं। दूसरी बात है प्रेम पाना । प्रायः जो व्यक्ति स्वीकार किए  जाते हैं, वे दूसरों से प्यार भी पाते हैं। किन्तु इसके लिए उन्हें स्वयं भी प्रेम-प्रदर्शित करता होता है। तीसरी शर्त है उपलब्धि और achievements जो समाज द्वारा स्वीकृत किए जाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक है। बच्चों की खुशियाँ इस बात पर भी निर्भर करती हैं कि उन्होंने अपने लिए जो लक्ष्य निश्चित किया है, उसे कितनी हद तक पा सकते हैं।
  11. विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है

    विकास क्रियाएँ पहले सामान्य रूप में विकसित होती हैं और बाद में विशिष्ट अनुक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। प्रारम्भ में बच्चों का उनके हाथ-पैर की माँसपेशियों पर नियंत्रण नहीं होता। किन्तु शारीरिक एवं मानसिक विकास के साथ-साथ सामान्य क्रियाएँ विशिष्ट रूप लेने लगती हैं। उदाहरणस्वरूप बच्चे को यदि गेंद दी जाय तो वह उसे छूने एवं पकड़ने का प्रयास करता हे। इसमें उसका पूरा शरीर क्रियाशील होता है किन्तु शारीरिक एवं मानसिक विकास के साथ-साथ क्रियाएँ विशिष्ट होती जाती है। बचपन में या यों कहें कि जन्म के कुछ दिनों तक वह सामान्य संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दिखाता है। किन्तु मानसिक विकास के साथ-साथ उनमें भय, क्रोध, प्रेम आदि संवेगों का विकास, संवेगों को प्रदर्शित करने की कला आ जाती है।
  12. संतुलन एवं असंतुलन के पहलु

    विकास
    प्रतिमानों को देखने से ज्ञात होता है कि कभी इनमें संतुलन दिखाई देता है तो कभी असंतुलन। यदि प्रतिमानों की प्रकृति के हिसाब से बच्चा संतुलन स्थापित करता है तो वह अच्छा समायोजन नहीं कर लेता है। ठीक इसके विपरीत यदि प्रतिमानों में असंतुलन होता है तो वे समायोजन नहीं कर पाते एवं उनमें तनाव, असुरक्षा, अनिर्णय आदि की प्रवृत्ति देखी जाती है। ये संतुलन और असंतुलन की स्थिति लड़के एवं लड़कियों में भिन्न-भिन्न आयु स्तरों में पाई जाती है। इसका कारण लड़के एवं लड़कियों के विकास दर में भिन्नता का होना है।
  13. विकास एक निंरतर प्रक्रिया है
    विकास की क्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक अनवरत चलती रहती है। किन्तु भिन्न-भिन्न आयु स्तरों पर विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है। प्रारम्भ में बालक की भाषा केवल क्रन्दन (crying) के रूप में सुनाई पड़ती है किन्तु धीरे-धीरे वह कुछ वाक्यों को बोलने लग जाता है और इस भाषा का विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है। अतः विकास एक अविराम प्रक्रिया है।
  14. विकास की भिन्न-भिन्न गतियाँ हैं
    यद्यपि विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है किन्तु भिन्न-भिन्न अंगों का विकास भिन्न-भिन्न गति से होता है। शरीर के सभी अंगों में एक समानुपात हो, इसके लिए भी भिन्न गति से विकास होना जरूरी है। हाथ-पैर, नाक आदि का विकास किशोरावस्था तक हो जाता है किन्तु कंधे तथा मुख के नीचे का भाग अपेक्षाकृत देर से विकसित होता है। शारीरिक विकास के समान ही मानसिक विकास की गति भी भिन्न होती है। मानसिक क्षमताओं के मापन के क्षेत्र में हुए अध्ययनों से पता चला है कि सृजनात्मक कल्पना का विकास बाल्यावस्था में तीव्र गति से होता है और किशोरावस्था में अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। अमूर्त्त वस्तुओं के सम्बन्ध में स्मृति का ज्ञान तीव्र गति से होता है अपेक्षाकृत उस स्मृति के जो अमूर्त्त सैद्धान्तिक विषय-सामग्री के सम्बन्ध में होती है (K. W. Schaie & C. R. Strother, 1968)।
  15. विकास में सहसम्बन्ध होते हैं
    विकास के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में सहसम्बन्ध अवश्य होता है। शारीरिक एवं मानसिक क्षेत्रों में होने वाले विकास आपस में बहुत ज्यादा सम्बन्ध रखते हैं। L. M. Terman तथा M. H. Oden, (1959) द्वारा किए गए अध्ययन में यह पाया गया कि शारीरिक आकार, शक्ति, शारीरिक रख-रखाव तथा संवेगात्मक स्थिरता आदि में तथा बालक की बुद्धि में ऋणात्मक सहसम्बन्ध नहीं होता। अध्ययनों के अनुसार जो बालक प्रसन्नचित्त और स्वस्थ्य होते हैं, संवेगात्मक अभिव्यक्ति भी समयानुकूल होती है। सामाजिक विकास के साथ-साथ उसका नैतिक विकास भी होता जाता है। अतः यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति के शारीरिक, सामाजिक, सांवेगिक, मानसिक सारे विकासों में सहसम्बन्ध हैं।

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