विभिन्न अवस्थाओं में बालक की पोषण विधि की विवेचना करें।
प्रश्न – विभिन्न अवस्थाओं में बालक की पोषण विधि की विवेचना करें।
उत्तर – हर परिस्थिति में authoritative style को सर्वोत्तम पोषण विधि माना गया है किंतु उम्र की विभिन्न अवस्थाओं में इसमें कुछ-कुछ भिन्नता आती जाती है। उम्र वृद्धि के साथ-साथ माता-पिता के नियंत्रण में कमी होती जाती है तथा बच्चे स्वतंत्र होते जाते हैं।
मध्य बाल्यावस्था में बालक की पोषण-विधि (Child Rearing in Middle Childhood) मध्य बाल्यावस्था में बच्चों की माता-पिता के साथ बिताए जानेवाले समय में अचानक काफी परिवर्तन एवं कमी आ जाती है। बच्चे का बढ़ना माता-पिता के लिए अब नियंत्रण करने और नयी स्थितियों का सामना करने के द्वार खोलता है। इस समय बच्चा विद्यालय जाने लगता है। उसके साथियों की संख्या बढ़ती जाती है। नित्य नयी-नयी बातें सीखकर आता है। ऐसे में विद्यालय की समस्याओं, उसके साथियों की संख्या, किस तरह की मनोवृत्ति के मित्र हैं उसके, इन सब बातों पर ध्यान देना कठिन होता है। बच्चे घर में हो या बाहर, दोनों ही स्थिति में वे अभिभावकों से घिरा रहना पसंद नहीं करते। जो माता-पिता पहले ही बच्चों के लिए authoritative rearing practice अपना चुके होते हैं, उनके लिए बच्चें का पोषण आसान होता है। इस अवस्था में जब बच्चे स्वयं को बेहत्तर दिखाने लगते हैं, अपने कार्य स्वयं करने लगते हैं तो माता-पिता अपनी या बड़ों की जिम्मेदारी को धीरे-धीरे उनपर छोड़ने लगते हैं। यद्यपि वे बच्चे का हर कार्य पूरी तरह नहीं छोड़ते बल्कि इस तरह का आपसी सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। उसके दौरान वे बच्चों के कार्यों की निगरानी रखते हैं एवं प्रत्येक निर्णय को स्वीकृति देते जाते हैं। इस तरह का आपसी सम्बन्ध स्थापित होने से माता-पिता एवं बच्चे का एक-दूसरे के प्रति विश्वास एवं आदर का भाव उत्पन्न होता है। माता-पिता को चाहिए कि वे दूर से बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखें एवं निर्देशों को प्रभावशाली भाषा में अग्रसारित करें तथा इसके साथ बच्चों को भी चाहिए कि वे अपनी यथास्थिति, कार्य, जगह की जानकारी से माता-पिता को अवगत कराते रहें ताकि किसी मुश्किल में पड़ने पर माँ-बाप उनकी सहायता के लिए पहुँच सकें (Maccoby, 1984)। इस तरह का सम्बन्ध बच्चों को सहयोग तथा सुरक्षा प्रदान करता है ताकि वे आगे आनेवाली किशोरावस्था के लिए मानसिक तौर पर तैयार रह सकें क्योंकि उस अवस्था में उनको ढेर सारी बातों पर निर्णय लेने होंगे। यद्यपि स्कूल-अवस्था में बच्चों को इतना ज्ञान होता है कि माता-पिता से कितना सहयोग लेना चाहिए क्योंकि उनके जीवन में माता-पिता का बड़ा ही प्रभावशाली स्थान होता है (Furman & Buhrmester)
किशोरावस्था में बच्चों का पालन-पोषण ( Child Rearing in Adolescence)
किशोरावस्था एक ऐसी अवस्था है जब बच्चा स्वयं को अलग, एक स्वतंत्र व्यक्तित्व एवं स्वयं अपने निर्देशों पर अपना कार्य करता है जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है। यहाँ स्वायत्तता (Autonomy) के दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं– पहला सांवेगिक पक्ष जिसमें बच्चा स्वयं पर ज्यादा विश्वास करता है तथा माता-पिता के सहयोग एवं निर्देशों पर कम निर्भर करता है। दूसरे पक्ष जिसे हम इसका व्यावहारिक पक्ष कह सकते हैं जब वह स्वतंत्र रूप से निर्णय लेता है इसमें दूसरों की राय और अपने आप के निर्णय पर बहुत विचार कर एक अच्छी तर्कसंगत पद्धति का चुनाव करते हैं (Hill & Holmbeck, 1986; Steinberg & Silverberg, 1986) स्वायत्तता वास्तव में एक ऐसी चीज है जिसका सम्बन्ध किशोर या किशोरी को स्वयं की पहचान बनाने का अवसर देने से है। जो बच्चे स्वयं को अर्थपूर्ण मूल्यों एवं लक्ष्य स्थापित कर लेते हैं, स्वायत्त (autonomous) कहलाते हैं। वे बच्चों की तरह माँ-बाप पर निर्भर होना छोड़कर परिपक्व एवं उत्तरदायी सम्बन्ध बनाते हैं (Frank, Pirsch & Wright, 1990)। हम देख चुके हैं कि वय:संधि (puberty) आने पर माँ-बाप एवं बच्चों में सांवेगिक रूप से एक दूरी आ जाती है। साथ ही युवाओं को ज्यादा स्वतंत्रता एवं जिम्मेदारी मिल जाती है। बौद्धिक विकास के कारण भी बच्चे स्वायत्तता महसूस करते हैं। इस समय वे अपनी समस्याओं का समाधान करना तथा किसी बात या कार्य का आगामी प्रभाव क्या होगा, इसकी विवेचना करने में सक्षम हो जाते हैं। इस अवस्था के सामाजिक सम्बन्धों की बढ़ोतरी के कारण बच्चे अब माँ-बाप को अपना आदर्श न मानकर एक सामान्य व्यक्ति की तरह समझते हैं। पहले की तरह वे माता-पिता के अधिकार को अब उतना महत्त्व नहीं देते।
बच्चे एवं माता-पिता के बीच घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण अब उनमें नये विचारों, सामाजिक भूमिकाओं की समझ आती है जिससे आत्मविश्वास, कार्य की ओर उन्मुखीकरण, शैक्षणिक सफलताएँ एवं उत्साह की वृद्धि होती है। ठीक इसके विपरीत यदि माता-पिता बहुत ज्यादा सांवेगिक रूप से नियंत्रण रखने में विश्वास रखते हैं तथा प्यार की कमी, युवाओं के मनोभाव को नहीं समझते तो इससे बच्चों में स्वायत्तता के गुण आने में कठिनाई होती है। ऐसे में युवाओं में अवसाद, आत्म-विश्वास की कमी तथा असामाजिक कार्यों में संलिप्तता देखने में आती हैं।
यद्यपि बच्चों में स्वायत्तता को बढ़ावा देने का अर्थ उन्हें ज्यादा स्वतंत्रता देना है। इसके लिए बच्चों के दैनिक जीवन में माता-पिता के लागातार सहयोग तथा संलिप्त होने की जरूरत होती है। माता-पिता द्वारा बच्चे पर हमेशा निगाहें रखना कि वे कहाँ, किसके साथ है, किस तरह के कार्य वे करते हैं, उसकी संगति कैसी है, यह सब दिखाता है कि बच्चे एवं माता-पिता के बीच कितना सामंजस्य एवं सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध है। Jacobson & Crockett, 2000) ने अपने अध्ययन के पश्चात बताया कि सातवीं क्लास से बारहवीं कक्षा के 400 बच्चों में जिनके माता-पिता उनपर हमेशा ध्यान रखते थे, उनमें बहुत ही कम आपराधिक गतिविधियाँ, सेक्स सम्बन्धों में बहुत कम संलिप्तता, स्कूल में अच्छा कार्य तथा बौद्धिक सफलता एवं सांवेगिक रूप से सकारात्मकता पाई गई।
बहुत से माता-पिता का कहना है कि किशोरों के साथ रहना बहुत कठिन है। इस अवस्था में जितनी तीव्र गति से परिवर्तन होता है, सामंजस्य करना उतना ही कठिन होता है। वास्तव में इसका करण यह है कि ऐसे बच्चे जो किशोरावस्था के अनेकानेक परिवर्तनों के कारण स्वयं परेशानी झेल रहे होते हैं, उनके माता-पिता जो लगभग चालीस (40) की अवस्था में पहुँच चुके होते हैं। उनमें भी कई परिवर्तन होते हैं। प्रत्येक अवस्था में एक पीढ़ी की दूसरी पीढ़ी से सामंजस्य स्थापित करने की समस्या होती ही है (Holmbeck & Hill, 1991) माता-पिता यह समझ नहीं पाते कि बच्चे पारिवारिक गतिविधियों में भाग लेने की बजाय अपने समवयस्कों के साथ क्यों रहना चाहते हैं और बच्चे माता-पिता की इस इच्छा को पसंद नहीं करते। दूसरे, बच्चे किशोरावस्था में अपनी व्यक्तिगत बातों में औरों को डालना पसंद नहीं करते। वे अपनी पसंदों जैसे, कपड़े पहनना, विद्यालय के पाठ्यक्रम, दोस्तों के साथ कहीं जाने आदि बातों पर माता-पिता या अभिभावकों का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते। माता-पिता समझते हैं कि बच्चे अभी इस लायक नहीं हुए कि उन्हें इतनी स्वतंत्रता दी जाय
और बच्चों का मानना होता है कि उन्हें काफी पहले ही स्वतंत्रता मिल जानी चाहिए थी।
चूँकि किशोरावस्था, वयस्कावस्था के पास ही होती है अतः माता-पिता एवं बच्चों मे, उनके विचारों में सहमति होनी चाहिए एवं स्वतंत्रता धीरे-धीरे दी जाने चाहिए। किंतु इस बात का पूरा ध्यान रखना जरूरी है कि उनके आपसी सम्बन्धों में मधुरता हो । तात्पर्य यह है कि निर्देशों को लचीला होना चाहिए ताकि यदि कहीं कोई अंतर है तो बातचीत के द्वारा उसका हल निकाला जा सके। ऐसा होने से बच्चों को जहाँ स्वायत्तता मिलती है, परिवार के अन्य लोग, विशेषकर माता-पिता अपनी असहमति जाहिर करने के साथ-साथ उसे बर्दाश्त करना भी सीखते हैं। ऐसे द्वन्द्व माता-पिता को संदेश देते हैं कि किशोरों की जरूरतें एवं आकांक्षाएँ बदल रही हैं और अब बच्चों या किशोरों तथा माता-पिता या अभिभावक से सम्बन्धों में सामंजस्य स्थापित करना जरूरी है। प्राक् किशोरावस्था (early adolescence) के बाद पुन: ज्यादातर माता-पिता या किशोरों के आपसी सम्बन्ध सकारात्मक हो जाते हैं (Larson et al., 1996)।
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