व्यक्तित्व के निर्धारकों की विवेचना करें।

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प्रश्न – व्यक्तित्व के निर्धारकों की विवेचना करें।
(Discuss the facters of Personality.)
उत्तर – व्यक्तित्व का निर्धारण करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं –
(1) जैविक या वंशानुक्रम सम्बन्धी कारक (Biological or Hereditary Determinants)
(2) मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological Determinants)
(3) सामाजिक कारक (Social Determinants)
(4) सांस्कृतिक कारक (Cultural Determinants)
  1. जैविक या वंशानुक्रम सम्बन्धी कारक (Biological or Hereditary Determinants)—वंशानुक्रम से व्यक्ति को क्षमताओं का भरपूर खजाना मिलता है जो किसी सीमा तक उसके व्यक्तित्व के स्वरूप को निर्धारित करता है। साथ ही, उसे कुछ जैविक दशायें भी उपलब्ध होती हैं। ये दशायें उन सीमाओं का निर्धारण करती हैं जिसकी परिधि से बाहर जाने पर व्यक्ति का विकास सम्भव नहीं होता चाहे उसका परिवेश कितना ही समृद्ध एवं प्रेरणास्पद क्यों न हो। इस प्रकार की सीमाओं का ज्ञान होना अध्यापक को उसके कार्य में विशेष सहायता प्रदान कर सकता है। यह ज्ञान उस अति आशावादी सोच पर भी नियंत्रण करेगा कि कठिन एवं लगातार परिश्रम करने से कोई भी चीज प्राप्त की जा सकती है। साथ ही, यह इस धारणा पर भी नियन्त्रण करता है कि बालकों का भविष्य वंशानुक्रम द्वारा एक बार निश्चित किये जाने के बाद उसमें बाद में कुछ भी सुधार नहीं किया जा सकता। वस्तुस्थिति यह है कि हमें इस बात का बिल्कुल भी स्पष्ट ज्ञान नहीं होता कि व्यक्ति अपने वंशानुक्रम से क्या प्राप्त करता है। अध्यापक मात्र बालक की कुछ आन्तरिक योग्यताओं एवं प्रवृत्तियों को समझने के संकेत से ही इस सम्बन्ध में कुछ अनुमान लगाने का प्रयास करता है। एक बार को बालक की बुद्धि के बारे में तो जानकारी प्राप्त की जा सकती है लेकिन उसका सांवेगिक एवं सामाजिक विकास वातावरण से इतना अधिक निर्धारित रहता है कि यह अनुमान ठीक से लगाना सम्भव नहीं होता कि इस विकास में वंशानुक्रम का कितना योगदान है। वस्तुतः वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों ही मानव-विज्ञान के सन्दर्भ में इतने अधिक एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं कि इनके अलग-अलग योगदान का ठीक से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। जैविक कारक उन सीमाओं को निश्चित करते हैं जिनके अन्दर रहते हुए व्यक्तित्व का विकास होता है। व्यक्तित्व पर जैविक प्रभाव का सम्बन्ध शारीरिक संरचना एवं विभिन्न प्रकार की ग्रन्थियों से होने वाले स्राव से होता है। नीचे इनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
    शारीरिक संरचना (Constitutional Factors or Physique)– शारीरिक संरचना व्यक्तित्व निर्धारण में एक प्रभावी कारक माना जाता है। विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से व्यक्तित्व के प्रकारों का वर्णन किया है। व्यक्तित्व का बाहरी स्वरूप, जैसे-ऊँचाई, भार, शारीरिक बनावट, रंग व अन्य दूसरी विशेषताएँ व्यक्तित्व विकास पर कुछ प्रभाव अवश्य डालती हैं। बालक की शारीरिक संरचना उसके आत्म-प्रत्यय (self-concept) को निश्चित करने में सहायता प्रदान करती है। एक आकर्षक व्यक्तित्व रखने वाला व्यक्ति अपने आस-पास के लोगों में अवश्य ही आकर्षण का केन्द्र होता है। उसे अपने समूह में पहचान एवं प्रतिष्ठा दोनों मिलती है। संक्रमण काल में लोग उसे अपना नेता मानते हैं। ऐसा उसके अहं को सन्तुष्टि प्रदान करता है। इसके विपरीत, एक प्रतिभा सम्पन्न, विभिन्न गुणों से युक्त छोटे कद के दुबले-पतले व्यक्ति की उसकी शारीरिक बनावट आकर्षक न होने के कारण अनदेखी की जाती है। ऐसा व्यक्ति कलान्तर में आत्म-हीनता से भर जाता है तथा धीरे-धोरे पलायनवादी भी बन जाता है। लम्बे और सुन्दर व्यक्ति अपने से छोटे एवं कुरूप व्यक्तियों की तुलना में हर बात में आगे रहते हैं तथा परिस्थिति का लाभ उठाते हुए हावी रहते हैं ।
    कोई शारीरिक दोष या विसंगति सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ही तोड़ कर रख देती है। एक अंधा व्यक्ति हमेशा दूसरों पर निर्भर रहता है। किसी की हकलाहट उसके अच्छा वक्ता बनने में बाधक होती है। एक मोटा व्यक्ति प्रायः मृदुभाषी एवं विनोदी स्वभाव का होता है। इसी प्रकार, व्यक्ति की शरीरिक बनावट ही उसे अन्तर्मुखी एवं बहिर्मुखी बना देती है। कहा जाता है कि अन्तर्मुखी लोगों के शरीर का विकास उर्ध्वाधर (Vertical) तथा बर्हिमुखी लोगों के शरीर का विकास क्षैतिज (Horizontal) होता है। इस संदर्भ में व्यक्तित्व पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभावों को एक ही रूप में देखना उचित नहीं क्योंकि नाक, आँख या चेहरे पर निशान एक संस्कृति में सुन्दरता के प्रतीक हो सकते हैं लेकिन दूसरी संस्कृति में नहीं। साथ ही, विभिन्न मनो-दशायें भी व्यक्तित्व में परिवर्तन लाती हैं। एक थका-हारा भूखा आदमी ही अपना संतुलन खो बैठता है। ठीक इसी प्रकार, उच्च रक्त चाप, ऑक्सीजन की कमी, मद्य-सेवन, ब्लड शुगर का कम या अधिक होना, अत्यधिक व्रत रखना या अन्य मस्तिष्क विकार ऐसे कारण हैं जो व्यक्तित्व में असाधारण आधारभूत परिवर्तन लाते हैं।
    रासायनिक या ग्रन्थि आधार (Chemical or Glandular Bases) — व्यवहार की जैविक आधार हमारे व्यवहार के कुछ पहलुओं में स्थायित्व प्रदान करता है। हमारा नाड़ी तन्त्र, ग्रन्थियाँ रक्त-रसायन (Blood Chemistry) आदि हमारे व्यवहार के तरीकों एवं विशेषताओं को बहुत सीमा तक प्रभावित करते हैं। ये कारक हमारे व्यक्तित्व को जैविक आधार प्रदान करते हैं। बर्मन (Berman) ने स्वीकार किया है कि ग्रन्थियाँ हमारे लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये व्यक्तित्व को सुचारू रूप से संचालित रखती हैं। उनके अनुसार उपवृक्क व्यक्तित्व (Adrenal Personality) जोशीला, शक्तिशाली तथा दक्ष होता है। इस प्रकार की स्त्रियों में पुरुषों वाले गुण होते हैं तथा वे अच्छी योग्य प्रशासिका सिद्ध होती हैं। इस ग्रन्थि से होने वाला स्राव उनकी शारीरिक क्रियाओं में तीव्रता लाता है। ये किडनी (Kidneys) के पास स्थित होती है। स्राव के अभाव में ऊर्जा में कमी चिड़चिड़ापन तथा निर्णय लेने सम्बन्धी अक्षमता उत्पन्न हो जाती है तथा शरीर निस्तेज हो जाता है।

    एंडोक्राइन ग्रन्थियाँ (Endocrine glands) हमारे रक्त में हार्मोंस या उत्तेजकों (Exciters) को प्रवेश कराती हैं। इनके मध्य सहयोग अति आवश्यक है। पोष-ग्रन्थि (Pituitary) जो हमारे मस्तिष्क तथा मुंह की छत (roof of the mouth) के मध्य स्थित होती है, इसका कार्य अन्य ग्रन्थियों पर नियन्त्रण करना होता है। यह हमारे संवेगों को प्रभावित करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारी मानसिक एवं शारीरिक अवस्था इस ग्रन्थि के सामान्य व्यवहार पर टिकी होती है। बर्मन (Berman) ने दो प्रकार की पिटूटरी व्यक्तित्व का वर्णन किया हैPre-Pituitary तथा Post- Pituitary. पहले प्रकार का व्यक्तित्व जो Anterior Lobe क़ी अति सक्रियता के कारण बनता है वह प्रकृति में पुरुषगत (Masculine) होता है तथा दूसरे प्रकार व्यक्तित्व जो Posterior Lobe की अति सक्रियता के कारण बनता है वह स्वभाव में स्त्रीगत (Feminine) होता है। इस ग्रन्थि को ग्रन्थिपति (Master Gland) भी कहते हैं ।
    गल-ग्रन्थि (Thyroid Glands) से उत्पन्न पदार्थ व्यक्ति के स्वभाव को नियन्त्रित करता है। इस पदार्थ की कमी के कारण व्यक्ति थकान और कमजोरी महसूस करता है । यह गर्दन के निचले हिस्से में स्थित होती है। इसके साथ ही एक उप गल- ग्रन्थि (Para-Thyroid Gland) भी होती है। इस ग्रन्थि द्वारा उत्पन्न पदार्थ की अधिकता से व्यक्ति में अधिक उत्तेजना आ जाती है। अधिक क्रियाशील होने पर यह ग्रन्थि शिथिलता भी उत्पन्न होती है। बर्मन (Berman) ने इस ग्रन्थि को अविकसित, निष्क्रिय, उत्तेजनारहित व बीमारियों के प्रति संवेदनशील बताया है।
    थायमस-ग्रन्थि (Thymus Gland) व्यक्ति का लैंगिक विकास करती है। युवावस्था आने पर यह ग्रन्थि अपना कार्य करना बन्द कर देती है। यह छाती के ऊपरी हिस्से में स्थित होती है। है। इस ग्रन्थि से अत्यधिक प्रभावित व्यक्तित्व Thymocentric Personality कहलाता है तथा ये स्वभाव से कामुक, असभ्य, अपराधी प्रवृत्ति के माने जाते हैं । इस ग्रन्थि के अतिरिक्त एक अन्य ग्रन्थियी होती है जिसे काम – ग्रन्थि (Gonad) कहते हैं । इस ग्रन्थि का कार्य काम- व्यवहार निर्धारण, कामेन्द्रियों की उत्तेजना, गर्भाधान प्रक्रिया का संचालन, नर तथा मादा में अन्तर करना है।
    इस प्रकार, इन ग्रन्थियों की असामान्य स्थिति हमारे व्यक्तित्व को गम्भीरतापूर्वक प्रभावित करती है।
    “They (glands) determine your personality and your physical, intellectual and emotional make-up. They make you ardent, romantic or cold indifferent. They produce the freaks of the side-show-the bearded lady, the hairy ape man, the fat lady, the goliath and tom thumb.”
  2. मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological Determinants) – व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों में मनोवैज्ञानिक कारक अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन कारकों में अभिप्रेरणा (Motivation), चरित्र (Character), बौद्धिक क्षमतायें (Intellectual Capacities), रुचियाँ (Interests), अभिवृत्तियाँ (Attitudes) आदि व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन, इन कारकों में एक अन्य कारक भी सम्मिलित है जिसका व्यक्तित्व निर्धारण में अपना ही स्थान है और वह कारक है—व्यक्ति का आत्म-बोध (Self-concept) | आत्म-बोध के अन्तर्गत वे सभी बातें आ जाती हैं जो व्यक्ति अपने बारे में रखता है, यथा— उसकी स्वयं के बारे में राय (Meanings), प्रत्यक्षीकरण (Preceptions), दृष्टिकोण आदि। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति अपने शरीर के बारे में कैसा प्रत्यक्षीकरण करता है ? उसका रंग-रूप कैसा है? उसमें क्या योग्यताएँ एवं क्षमताएँ हैं ? वह समाज में कैसी स्थिति रखता है? उसका दूसरों से मेल-जोल कैसा है? तथा वह स्वयं को कैसा लगता है आदि-आदि । यह उन सभी भावनाओं एवं अनुभवों का प्रतिनिधित्व करता है जो व्यक्ति की इस रूप में सहायता कर सके ताकि वह अपनी क्षमताओं एवं शील-गुणों की विस्तृत जानकारी रख सके। आत्म-बोध के अन्तर्गत एक सार्थक स्थिति उस समय आती है जब व्यक्ति स्वयं को दूसरों के मध्य रखकर सोचता है, उनसे पहचान बनाने की कोशिक करता है अथवा वह इस भावना में उलझ जाता है कि, ‘दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं? (What others think of me’?) समायोजन की दृष्टि से व्यक्ति आश्वस्त होना चाहता है कि उसके माता-पिता, अभिभावक, सगे-सम्बन्धी, पास-पड़ौस, मित्रगण, अध्यापक तथा अन्य उसके बारे में कैसी राय रखते हैं ? अगर इस प्रकार का प्रत्यक्षीकरण दूसरों की पसन्द, स्वीकृति, प्रंशसा, अपनापन आदि से जुड़ा होता है तो यह सब उसमें आत्म संतुष्टि की भावना भरने के लिये पर्याप्त होता है तथा उसे आत्मानुभूति (Self-Actualization) का बोध होता है, वह अपने जीवन को सार्थक समझता है। इसके विपरीत, यदि उसे समाज से तिरस्कार, निन्दा, अवहेलना आदि मिलते हैं तो वह स्वयं को निरर्थक, महत्त्वही तथा असुरक्षित महसूस करने लगता है। वह हीनभावना से ग्रस्त होकर संसार से पलायन की बात सोचने लगता है।
    इसलिए स्वस्थ अनुकूलन के लिये बालक को आत्म स्वीकृति का मिलना अत्यन्त आवश्यक होता है। आत्म-स्वीकृति मिलने पर ही बालक में अन्तर्दृष्टि का विकास ठीक से हो पाता है तथा वह अपनी योग्यताओं (Talents) एवं क्षमताओं (Limitations) को ठीक से समझने लगता है। उसका दृष्टिकोण स्वयं के प्रति तथा दूसरों के प्रति धनात्मक रूप ले लेता है। वह इस भावना से भर जाता है—“ मैं अपनी सीमाएं बखूबी समझता हूँ लेकिन मैं भरसक प्रयास करूँगा।” (I recognize by limitations, but, I will do my best.’) वस्तुत: जो बालक स्वयं का उच्च मूल्यांकन करते हैं वे एक हीन भावना का शिकार हो जाते हैं जिसकी क्षतिपूर्ति वे मिथ्या श्रेष्ठ भावना का प्रदर्शन करके करना चाहते हैं। ठीक इसी प्रकार कुछ बालक ऐसे भी होते हैं जो अपना मूल्यांकन वास्तविकता से निम्न स्तर का करते हैं । ऐसे बालक स्वयं को अयोग्य मानते हैं तथा आत्म-विश्वास में कमी महसूस करते हैं। उन्हें यह भय हर समय सताता रहता है कि वे भाग्यहीन है तथा जो कोई कार्य करेंगे उसमें उन्हें असफलता ही हाथ लगेगी। ये दोनों ही स्थितियाँ बालक के हित में नहीं है। इन स्थितियों में अध्यापक को चाहिये कि वे बालक को हताश का शिकार होने दें तथा उसकी योग्यताओं एवं क्षमताओं का ठीक से आकलन कर उसे दिशा निर्देश दें।
    इन मनोवैज्ञानिक कारकों में एक अन्य कारक जो बालक के व्यक्तित्व को गहराई से प्रभावित करता है वह है उसका सामाजिक आर्थिक स्तर । परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर बालक के मस्तिष्क पर हर समय हावी रहता है। परिवार की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति जहाँ बालक में आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता, संयम, श्रेष्ठ भावना का उदय करती है वहीं परिवार का निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर उसे कई प्रकार की कठिनायों से जूझने के लिये विवश कर देता है। आर्थिक स्थिति का समायोजन की समस्या से सीधा समबन्ध होता है। बालक जब बड़ा होने लगता है तो वह तभी से परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के प्रति सचेत होने लगता है। वह आर्थिक दबाव उसके व्यक्तित्व को कठोर, आक्रमक तथा विद्रोही बनाने में सहायक होता है। यह सब उसके सामान्य स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। लेकिन यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि गरीब परिवारों से आने वाले सभी बालक कुसमायोजित या खण्डित व्यक्तित्व के नहीं हो जाते बल्कि वे इस गरीबी को प्रोत्साहन के रूप में एक चुनौती स्वीकार कर अपने लक्ष्य के प्रति अधिक आशावान तथा सचेत हो जाते हैं।
  3. सामाजिक कारक (Social Determinants ) –
    “Personality is shaped by and inter-woven with the social environment.”
    एक व्यक्ति समाज में ही जन्म लेता है और समाज में ही उसका पालन-पोषण होता है। वह वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के सापेक्ष ही अनुक्रिया करता है। स्कूली वातावरण में भी सामाजिक नियमों का पालन किया जाता है तथा प्राचार्य भी एक सदस्य के रूप में अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह करता है। वह समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का पालन करते हुए तथा प्रतिबन्धों को स्वीकारते हुए ही समाज में अपना स्थान बनाने का प्रयास करता है। सामाजिक नियम तथा प्रतिबन्ध (Taboos) ही व्यक्ति के तौर-तरीकों, आचार-विचार, रीति-रिवाजों आदि को स्वाभाविक रूप प्रदान करते हैं। उदाहरण के तौर पर स्कूल में सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने पर बालक को दण्ड दिया जाता है और कभी-कभी स्कूल से भी निष्कासित कर दिया जाता है। इसीलिये उसे इन नियमों का पालन करना होता है। इतना सब होते हुए भी प्रत्येक बालक का विकास अपने ढंग से होता है। व्यक्तित्व केवल सामाजिक उत्पाद ही नहीं है बल्कि यह व्यक्ति की प्रकृति का भी उत्पाद है। साथ ही, समाज व्यक्ति का एक मात्र रचनाकार नहीं है। बालक सामाजिक नियम अपनी बाल्यावस्था में ही ग्रहण कर लेता है। यहाँ तक कि खेल में भी बालक को नियमों का पालन करना होता है। झूठ बोलने पर उस पर विश्वास नहीं किया जाता है। इस प्रकार वह यह निष्कर्ष निकाल लेता है कि नियमों का पालन करने में ही समझदारी है और कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिये। पुनः वह समाज में रहकर कुछ कार्य भी करना चाहता है तथा समाज में अपना स्थान भी बनाना चाहता है । वस्तुतः जीवन एक स्टेज है जहाँ हर कोई नाटक का एक पात्र है तथा दूसरा श्रोता। इसी प्रकार, खेल के मैदान में भी प्रत्येक खिलाड़ी का स्थान तथा कार्य निश्चित होता है। यही बात सामाजिक जीवन में भी है। एक व्यक्ति समूह का नेता होता है तथा बाकी उसके अनुगामी । समाज सुधारक की भी भूमिका भी इसी प्रकार की होती है। परिवार में भी माता-पिता, बेटा-बेटी सभी को विभिन्न परिस्थिति में अलग-अलग भूमिका निभानी होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक जीवन, जीवन के अन्तर वैयक्तिक सम्बन्धों का ही एक स्वरूप है।
    सामाजिक वातावरण में अनेक ऐसी संस्थाएँ हैं जो व्यक्तित्व को किसी न किसी तरह से उल्लेखनीय रूप से प्रभावित करती हैं। व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, मित्र-मण्डली, विद्यालय, मन्दिर व चर्च, धार्मिक उत्सव तथा सामाजिक परम्पराएँ, रीति-रिवाज आदि सभी व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। इनका संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार है
    (a) परिवार ( Family) – परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है। इस पाठशाला का प्रभाव जीवन- पर्यन्त रहता है। परिवार के सदस्यों के मध्य सम्बन्ध, उनकी शिक्षा, उनके रहन-सहन के स्तर, उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति, परिवार से मिलने वाले प्रेम व स्नेह आदि समस्त बातें बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। परिवार में बच्चों की कुल संख्या, माता-पिता के कितने बच्चे हैं ? किस क्रम का बच्चा है, जन्म के समय माता-पिता की उम्र आदि बातें भी व्यक्तित्व को प्रभावित करती है।
    (b) पड़ौस (Neighbourhood) — जैसा पड़ौस होगा वैसा ही बालक होगा। बालक बहुत कुछ पड़ौस के बालकों से सीखता है। पड़ौस की आर्थिक व सामाजिक स्थिति यदि बहुत खराब है तो बालक में उच्चता की भावना (Superiority Complex) विकसित हो जायेगा और यदि पड़ौसी काफी उच्च स्थिति वाले हैं तो बालक में हीनता की भावना विकसित हो जायेगी।
    (c) मित्र – मण्डली (Friend Circle) – बालक पर मित्र मण्डली का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। बालक जिस प्रकार के बालकों के साथ रहेगा, वैसे ही गुण विकसित कर लेगा। संगी-साथी यदि अच्छे हैं तो बालक का व्यक्तित्व भी सुन्दर बनेगा और यदि संगी-साथी बुरे हैं तो वह भी गलत आदतों का शिकार हो जायेगा और उसका व्यक्तित्व भी संतुलित नहीं रह पायेगा। अतः अच्छी मित्र-मण्डली का होना बहुत आवश्यक है ।
    (d) विद्यालय ( School) – प्रत्येक विद्यालय का अपना स्वयं का पृथक व्यक्तित्व का भी प्रभाव बालक पर वैसा ही पड़ेगा। विद्यालय बालक में अनेक गुणों का विकास करता है। ये गुण अन्य बच्चों के साथ रहने से, शिक्षकों का अनुकरण करने से, खेल के मैदान, कक्षा-कक्ष आदि में व्यवहार करने से विकसित होते हैं।
    इन तत्त्वों के अलावा धार्मिक संस्थाएँ, बालक की सामाजिक व आर्थिक स्थिति, उनके जीवन लक्ष्य, सामाजिक उत्सव, मेला-त्योहार, चलचित्र, साहित्य, सामाजिक व राष्ट्रीय चरित्र आदि अनेक बातें बालक के व्यक्तित्व विकास को प्रभावितnकरती हैं ।
  4. सांस्कृतिक कारक ( Cultural Determinants) – संस्कृति की अमिट छाप व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ती है। प्रत्येक देश तथा प्रान्त की अपनी-अपनी संस्कृति होती है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ के रहने वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। संस्कृति, भौतिक (Materialistic) अथवा अभौतिक (Non-Materialistic) दोनों प्रकार की हो सकती है। भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत भौतिक वस्तुओं का आविष्कार तथा अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत प्रचलित रीति-रिवाज (Folk ways), रूढ़ियाँ (Mores) आदि आते हैं। सांस्कृतिक प्रभाव के कारण ही नागा लोग ‘सिर के शिकारी’ (Hea Hunters) कहलाते हैं। भील हिंसक होते हैं तथा संथाल डरपोक होते हैं। इसी प्रकार, भारतीय युवक उतने खुले-आम ढंग से मद्यपान नहीं करते जितने कि यूरोपीय युवक करते हैं। प्रत्येक समाज की । अपनी-अपनी चारित्रिक विशेषताएँ भी होती हैं। लारेंस के० फ्रेंक ने कहा है—
    “Culture is the ground from which personality emerges. “
    वस्तुतः सभी व्यवहार-प्रारूप हमारे सांस्कृतिक उत्पाद है। इनमें जो मुख्य हैं, वे हैं, नैतिक मूल्य एवं आदर्श, सामाजिक रुचियाँ एवं दृष्टिकोण। इस सम्बन्ध में कूले ( Cooley ) लिखते हैं —
    “Personality, which is just a bundle fo ideas, attitudes and intelligence depends a ood deal on the people with whom the individual. stantly associates.”
    इस प्रकार, संस्कृति बच्चे के व्यक्तित्व को सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। कोई बालक जिंस सांस्कृतिक परिवेश में जन्म लेता है वह धीरे-धीरे उसी से सम्बद्ध हो जाता है तथा उस संस्कृति विशेष की आवश्यकताओं एवं मान्यताओं को अपने व्यक्तित्व का स्थायी अंग बनाने के प्रयास में जुट जाता है। वह महसूस करता है कि समूह विशेष में सक्रिय सहभागिता निभाने के लिये तथा जगह बनाने के लिये उसे समूह विशेष विचारों, आदतों, दृष्टिकोणों, मूल्यों आदि को स्वीकार होगा तथा उन्हें अपने जीवन में आत्मसात करना होगा। इस प्रकार की प्रक्रिया या समूह संस्कृति से रू-ब-रू होकर ही बालक अपने व्यक्तित्व की नींव रख सकता है तथा उसको सही दिशा प्रदान कर सकता है ।
    प्रत्येक प्रकार की संस्कृति में माता-पिता का प्रभाव बच्चों की आदतों, अनुशासन तथा प्रशिक्षण पर अवश्य पड़ता है। बालक की यह शिक्षा उसकी शैशवावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है। इस प्रशिक्षण के दर्शन बालक की छोटी-छोटी सामान्य दैनिक जीवन से सम्बन्धित क्रियाओं में बखूबी किये जा सकते हैं। एक बालक जो व्यवहार के अपेक्षित मानकों की अनदेखी करता है, उसकी समाज में कटु आलोचना की जाती है और कभी-कभी उसे अपने इस कृत्य के लिये गम्भीर यातना भी भुगतनी पड़ती है। इससे बालक में तनाव उत्पन्न होता है जिसकी परिणति उसके क्रोध एवं आक्रामक व्यवहार में होती है। यह उसे अन्तर्मुखी एवं कल्पना जगत में उड़ने वाला व्यक्ति भी बना सकता है। बालक का सांस्कृतिक समूह उसे इन अवांछित क्रियाओं को सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन के अवसर प्रदान करता है। ये अवसर होते हैं—खेलकूद, वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ आदि। साथ ही, ये समूह बालक के घृणास्पद दृष्टिकोण को स्नेहपूर्ण दृष्टिकोण में बदलने के भी अवसर प्रदान करते हैं। बालक पर कुछ नैतिक बन्धन भी लगाये जाते हैं ताकि वह उन कार्यों को न करे जिन्हें बड़े पसन्द नहीं करते हैं। डर, डाँट-फटकार, दोषारोपण आदि अनेक प्रविधियों समाज में इसीलिये प्रयोग में लायी जाती हैं ताकि बालक अपनी संस्कृति को स्वीकार करे तथा उसके नियन्त्रण में रहे।

    इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सांस्कृतिक दबाव बालक के व्यक्तित्व को सही व गलत दिशा में मोड़ने के लिये पूर्ण रूप से उत्तरदायी हैं। एक बालक की शिक्षा अपनी विषय-वस्तु, दिशा एवं प्रेरणा उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से ही ग्रहण करती है। उसका दृष्टिकोण, मूल्य, नैतिक व्यवहार तथा जीवन के प्रति सम्पूर्ण दृष्टिकोण आदि पारिवारिक संस्कृति के रंग में ही रंगे होते हैं तथा इनकी जड़े उस स्थान में होती है जहाँ उनका जन्म हुआ है। कोई भी बालक इन सांस्कृतिक प्रभावों को स्वीकार करता है, इनमें सुधार करता है, इनमें कुछ अतिरिक्त योगदान करता है और इनमें से कुछ को नकार भी देता है। उसे लगातार कभी-कभी एक लम्बे समय तक अपनी प्राथमिकताओं एवं इन सांस्कृतिक अपेक्षाओं के मध्य समझौता करने में कशमकश की स्थिति से जूझना पड़ता है। ऐसी स्थितियों में वह अपनी सांस्कृति विरासत में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बालक अपनी संस्कृति के हाथों का एक खिलौना मात्र नहीं है जो मात्र अपनी संस्कृति के घेरे में घिरा रहता है बल्कि वह स्वयं भी अपनी संस्कृति को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। दूसरे शब्दों में, वह अपनी संस्कृति का वाहक (Carrier) भी है और सृजनहार (Creater) भी।
    उपरोक्त कारकों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व किसी एक कारक से प्रभावित न होकर कई कारकों द्वारा प्रभावित होता है। अतः अध्यापक तथा माता-पिता को चाहिये कि व्यक्तित्व के विकास के लिये उपरोक्त कारकों को नियन्त्रित करें। “
    बालक का स्व, अहं या व्यक्तित्व इन्हीं विस्तृत एवं विविध निर्देशों के परिणामस्वरूप विकसित होता है जो उसकी संस्कृति समय-समय पर इनको लागू करती है। बालक के व्यक्तित्व को संवारने के लिये समाज जो भी तरीके अपनाता है, अधिकांश बालक उन पर खरे उतरते हैं। प्रत्येक बालक अपनी क्षमता के अनुरूप इस कसौटी पर खरा उतरने का भरसक प्रयास करता है। अगर वे यह महसूस करते हैं कि कुछ बातें या बाधायें उनकी सांस्कृतिक यात्रा में आड़े आ रही हैं तो वो सहृदयता का परिचय देते हुए समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं। लेकिन कुछ बालक ऐसे भी होते हैं जो किसी भी स्थिति में संस्कृति की माँग के अनुरूप स्वयं को नहीं ढाल पाते और हर समय संघर्ष पर उतारु रहते हैं। इस प्रत्यय को ‘संस्कृति संघर्ष’ (Culture conflict) कहा जाता है। जो बालक इस संस्कृति संघर्ष का प्रभावशाली ढंग से मुकाबला नहीं कर पाता तथा समस्याओं को सुलझाने के प्रयास में उलझ जाता है, उसका व्यक्तित्व कुछ कुसमायोजित हो जाता है।
    व्यक्तित्व की व्याख्या या तो बाह्य आभास या स्वाभाविक गुणों के आधार पर करने का प्रयास लम्बे समय तक होता रहा है। परन्तु इनमें से कोई भी दृष्टिकोण उपयुक्त नहीं है। वास्तव में व्यक्तित्व के अन्तर्गत व्यक्ति की सम्पूर्ण विशेषताएँ आती हैं और उनमें पारस्पिरिक समन्वय पाया जाता है। समन्वय के अभाव में व्यक्ति की विशेषताओं का उपयोग तथा महत्त्व घट जाता है। क्योंकि व्यक्तित्व का प्रमुख कार्य समायोजन स्थापित करना है और इसके लिए समन्वय आवश्यक है।
    आधुनिक मनोवैज्ञानिक इसी दृष्टिकोण को अधिक महत्त्व देते हैं। आलपोर्ट की परिभाष इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। व्यक्तित्व की अधिकांश आधुनिक परिभाषाएँ आलपोर्ट की ही परिभाषा से प्रभावित लगती है।

    आलपोर्ट (GW. Allport, 1948) ने लिखा है, “व्यक्तित्व, व्यक्ति के भीतर उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो पर्यावरण के प्रति उसके विशिष्ट समायोजन को निर्धारित करता है। “
    “Personality is the dynamic organization within the individual of those psychophysical systems that determine his unique adjustment to his envioronemtn. “
    उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक व्यक्त्वि को व्यक्ति की सम्पूर्ण विशेषताओं की विधिवत् समन्वित प्रणाली (Well coordinated system) मानते हैं। इसका विकास व्यक्ति की उम्र में वृद्धि तथा पर्यावरण के साथ होने वाली अन्तःक्रिया पर निर्भर करता है। चूँकि हमारी जैविक संरचना तथा सामाजिक परिस्थितियों में कुछ न कुछ समानता एवं असमानता पाई जाती है, इसी कारण लोगों में भी आपस में समानताएँ एवं असमानताएँ पाई जाती हैं। व्यक्तित्व ऐसी समन्वित प्रणाली है जो व्यक्ति को वैयक्तिकता (Individuality) प्रदान करती है। यह समायोजन को प्रभावित करती है (Rathus, 1984)।
इसके आधार पर व्यक्तित्व के बारे में निम्नांकित पक्षों का उल्लेख किया जा सकता है –
  1. गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organization) – यह अवधारणा यह इंगित करती है कि व्यक्तित्व प्रतिमान सतत् रूप में विकसित तथा परिवर्तित होते रहते हैं ताकि समायोजन स्थापित होता रहे । अर्थात् व्यक्तित्व गत्यात्मक होता है।
  2. संगठन एवं व्यवस्था (Organization and system) – ये सम्प्रत्यय यह इंगित करते हैं कि व्यक्तित्व में अनेक घटक पाये जाते हैं और वे परस्पर अन्तरसम्बन्धित तथा संगठित होते हैं।
  3. मनोदैहिक (Psychophysical) — इसका आशय यह है कि व्यक्तित्व में मानसिक तथा शारीरिक (स्नायुविक) दोनों प्रकार के कारकों का समावेश होता है। अर्थात् मन और शरीर के संकार्य (Operations) परस्पर मिश्रित रूप में संगठित होकर कार्य करते हैं ।
  4. निर्धारित करना (Determine)—आलपोर्ट का कहना है कि व्यक्तित्व व्यक्ति के व्यवहार का निर्धारन करता है। व्यक्ति के कार्य या व्यवहार के पीछे उसका व्यक्तित्व ही होता है।
  5. परिवेश के प्रति विशिष्ट समायोजन (Unique Adjustment to Environment ) – किसी परिस्थिति या परिवेश में व्यक्ति द्वारा किया गया समायोजी या अनुकूलन व्यवहार विशिष्ट या अनोखा होता है। किसी परिस्थिति में लोगों के व्यवहार में कुछ न कुछ विशिष्टता (अन्तर) अवश्य ही पाई जाती है। इसीलिए व्यक्ति के समायोजन को विशिष्ट या अनोखा कहा जाता है।

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