शैक्षिक उद्देश्य के स्रोत की विवेचना करें ।

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प्रश्न – शैक्षिक उद्देश्य के स्रोत की विवेचना करें । 
उत्तर- शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण हेतु इनके प्रमुख स्रोतों का ज्ञान अति आवश्यक होता है । यद्यपि इन स्रोतों का पता लगाना आसान नहीं होता है क्योंकि एक तो इनकी संख्या अनन्त होती है तथा दूसरे, उद्देश्यों का निर्धारण इनसे विधिवत रूप में नहीं किया जा सकता है किन्तु स्रोतों की प्रकृति एवं विस्तार क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से इन्हें निम्नलिखित वर्गों में नियोजित किया जा सकता है- (i) समाज (Society) (ii) व्यक्ति (Human) (iii) ज्ञान (Knowledge)।
समाज (Society) – सामान्यतः शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण समाज द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। समाज का आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आधार क्या है तथा इसकी आवश्यकताएँ किस प्रकार की हैं, ये बातें शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण के लिए महत्वपूर्ण होती हैं । बालक जिस समाज में रहता है, उसकी कुछ मान्यताएँ, मूल्य एवं दर्शन होते हैं। समाज की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं के अनुकूल ही बालक के व्यक्तित्व का विकास करना होता है। सामाजिक के मूल्यों की स्थापना के बिना व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी नहीं बनाया जा सकता । सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा एवं संवर्द्धन, उसमें सामयिक दृष्टि से संशोधन, प्रजातांत्रिक जीवन मूल्यों का अनुशीलन, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का ज्ञान तथा अन्य अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं नैतिक प्रश्न सभी इसके अन्तर्गत आ जाते हैं । अतः शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में समाज के इन सभी पक्षों को स्थान देना पड़ता है।
व्यक्ति (Human) – शैक्षिक उद्देश्यों का दूसरा प्रमुख स्रोत व्यक्ति है। समाज अपने अनुसार शिक्षा की आधारभूत आवश्यकताओं का निर्धारण करता है, किन्तु उनकी पूर्ति व्यक्ति के माध्यम से ही होती है। व्यक्ति का महत्व इस कारण और भी है कि उसकी अपनी स्वतंत्र इच्छा शक्ति एवं कुछ विशिष्ट आवश्यकताएँ होती हैं । इन आवश्यकताओं का संबंध वैयक्तिक विकास से होता है । बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास कैसे होता है ? विभिन्न अवस्थाओं में उसकी आवश्यकताएँ, रुचियाँ एवं रुझान किस प्रकार के होते हैं ? उसकी योग्यताएँ एवं क्षमताएँ कैसी है ? आदि बातों का शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में बहुत महत्व है । चूँकि शिक्षा प्रक्रिया का प्रमुख केन्द्र विद्यार्थी होता है । अतः इन सभी सूचनाओं के आधार पर ही शिक्षा के उद्देश्यों को निश्चित किया जा सकता है ।
कुछ विद्वानों के मतानुसार व्यक्ति की आत्मिक अर्थात्, आध्यात्मिक आवश्यकताओं को भी शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में स्थान दिया जाना चाहिए ।
ज्ञान ( Knowledge) – सभ्यता के विकास का मूल ज्ञान ही है। शिक्षा सभ्यता के विकास का माध्यम है अतः इसे ज्ञान के विकास और उपयोग में भी सहायक होना चाहिए। ज्ञान के भी अपने अनेक अंग एवं पक्ष हैं जैसे-तथ्य प्रक्रियाएँ, विचार, अवधारणाएँ, चिन्तन प्रणालियाँ आदि । ज्ञान के भण्डार को विभिन्न वर्गों में आयोजित करके उन्हें अलग-अलग विषयों का नाम प्रदान किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में ज्ञान एक प्रमुख स्रोत अथवा घटक है । शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में विषय-वस्तु की प्रकृति तथा शिक्षा के स्तर को भी ध्यान में रखना होता है ।
प्रत्येक विषय की अपनी विशेष प्रकृति होती है । उदाहरणार्थ-गणित एक विषय के रूप में बालक में तर्कपूर्ण चिन्तन का विकास करता है। जबकि भाषा उसमें अभिव्यक्ति एवं अवबोध की क्षमता विकसित करती है। गणित स्वभाव से ही अनुशासनात्मक प्रभाव डालता है । जबकि भाषा एक कौशल के रूप में सामाजिक आदान-प्रदान को सबल बनाती है । इसी प्रकर सामाजिक अध्ययन बालक की सामाजिक चेतना को प्रबुद्ध बनाता है जबकि विज्ञान उसमें सूक्ष्म निरीक्षण एवं विश्लेषण की शक्ति उत्पन्न करता है। कुछ विषय विचार प्रधान होते हैं और कुछ कौशल के विकास पर बल देते हैं । इसके अतिरिक्त मानव ज्ञान-विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ विषयों के क्षेत्र भी बदलते रहते हैं । अतः शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण विषय की प्रकृति के अनुरूप करना होता है ।
प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा स्तर पर शिक्षा के उद्देश्य भी बदल जाते हैं । एक ही विषय के शिक्षा के उद्देश्य विभिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न होते हैं । अतः शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में यह जानना आवश्यक होता है कि पाठ्यक्रम का निर्धारण किस स्तर के लिए किया जाना है ।
मूल स्रोतों की प्रकृति एवं आवश्यकताओं का शैक्षिक उद्देश्यों में रूपान्तरण (transformation of needs and nature of resources into educational objectives)–सभी स्रोतों का अध्ययन एवं विश्लेषण करने, विद्यार्थियों की प्रकृति को समझने तथा उनकी आवश्यकताओं का आकलन करने के पश्चात् जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, उन्हें समाकलित करके उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है, जिससे उन्हें अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तनों में रूपायित किया जा सके ।
शैक्षिक उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए, उनके निर्माण के समय तीन बातों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है
(i) क्या ये उद्देश्य समाज की आवश्यकताओं की दृष्टि से उपयुक्त हैं ?
(ii) क्या ये उद्देश्य उपलब्ध साधनों की दृष्टि से व्यावहारिक हैं ?
(iii) क्या विद्यार्थियों की क्षमताओं एवं तत्परता की दृष्टि से उन उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है ?
इससे यह स्पष्ट है कि शैक्षिक उद्देश्य समाज, व्यक्ति तथा विषय-वस्तु अर्थात् ज्ञान से प्राप्त प्रदत्तों पर आधारित दार्शनिक संश्लेषण के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं। चूँकि ये तीनों क्षेत्र एक-दूसरे से बिल्कुल अलग नहीं हैं तथा इनमें अन्तः क्रिया होती रहती है । अतः शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में इन क्षेत्रों की पारस्परिक अन्तःक्रिया पर भी ध्यान रखना होता है।
शैक्षिक उद्देश्यों के प्रकार (Types of Educational Objectives) – शैक्षिक उद्देश्यों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है – एक, सामान्य और दूसरा, विशिष्ट अथवा स्पष्ट उद्देश्य |
1. सामान्य उद्देश्य (General Aims) – कुछ उद्देश्य व्यापक एवं स्थूल प्रकृति के होते हैं । ये सम्पूर्ण समाज अथवा देश के लिए सार्थक हो सकते हैं। ऐसे उद्देश्यों के कथन का प्रमुख लक्ष्य किसी शैक्षिक प्रणाली को आधार प्रदान करना होता है । ये पाठ्यक्रम-विकास के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करते हैं। ऐसे उद्देश्यों को सामान्य उद्देश्य कहा जाता है ।
सामान्य उद्देश्यों के संबंध में विभिन्न व्यक्ति एवं समाज अलग-अलग अर्थ निकाल सकते हैं । इसी कारण प्राय: देखने में आता है कि सामान्य उद्देश्यों पर सहमति होते हुए भी भिन्न-भिन्न समाजों में उनके स्पष्ट एवं व्यावहारिक रूप में भिन्नता पाई जाती है। उदाहरणार्थ–‘स्वस्थ सामाजिक जीवन’ का अलग-अलग समाजों में अपना-अपना अर्थ है ।
2. स्पष्ट उद्देश्य (Specific Aims) – इनके अन्तर्गत सामाजिक आवश्यकताओं एवं मन्तव्यों का स्पष्ट रूप से उल्लेख करने का प्रयास किया जाता है। ये सामाजिक जीवन की प्रमुख स्थितियों एवं उनका समाधान करने के लिए आयोजित की गई क्रियाओं की सूचियाँ होती हैं किन्तु ये शैक्षिक प्रक्रिया में तब तक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकतीं, जब तक कि इन्हें क्रियात्मक न बनाया जाये। इसके लिए क्रियात्मक परिभाषा निर्धारित करनी होती हैं तथा उपयुक्त स्थितियों में मानव द्वारा प्रदर्शित व्यवहार के संबंध में कथन तैयार करने होते हैं ।
अतः सामान्य उद्देश्यों के साथ-साथ विद्यालयी, विषयगत, कक्षागत, इकाईगत, पाठगत उद्देश्यों के निर्धारण की भी आवश्यकता होती है जो उत्तरोत्तर सीमित किन्तु स्पष्ट एवं निश्चित होते चले जाते हैं । प्रत्येक समाज अपनी भावी पीढ़ी से निश्चित व्यवहार प्रदर्शन की अपेक्षा रखता है । इन व्यवहारागत अपेक्षाओं को मूल लक्ष्य कहा जाता है । इसके लिए यदि यह कहा जाये कि शिक्षा का एक कार्य ‘व्यक्ति की भावनाओं को अनुशासित करना’ है तो यह शिक्षा का सामान्य उद्देश्य माना जायेगा किन्तु जब इसका व्यवहारगत नमूनों में विश्लेषण कर लिया जाता है और उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कर दिया जाता है कि व्यवहार में इसका क्या रूप होगा तब यह स्पष्ट उद्देश्य बन जाता है ।
स्टेनली निस्बत का वर्गीकरण (Classification of Educational Objectives according to Stanely Nisbet) – स्टेनली निस्बत भी पाठ्यक्रम के सामान्य एवं विशिष्ट उद्देश्यों को स्वीकार करते हैं किन्तु उनकी दृष्टि में इनका महत्व तभी है जब ये विचारक की दृष्टि से उपयोगी होने के साथ-साथ वास्तविक क्रियान्विति में भी गतिमान हों । निसबत के अनुसार सामान्य एवं विशिष्ट उद्देश्यों का निर्माण करना कठिन नहीं है किन्तु इन दोनों से लाभ उठाना तथा इनकी कमियों से बच पाना आसान नहीं है। इसीलिए उन्होंने इन दोनों प्रकार के उद्देश्यों के बीच फैले हुए विस्तृत क्षेत्र की जानकारी प्राप्त करने को आवश्यक माना है ।
निस्बत के अनुसार, शिक्षकों में से कुछ सामान्य उद्देश्यों बल देते हैं और *कुछ विशिष्ट उद्देश्यों पर । इसके अतिरिक्त कुछ शिक्षक सामान्य एवं विशिष्ट दोनों उद्देश्यों पर बल देते हैं तथा स्वयं को अच्छा सिद्धांतवादी एवं अच्छा कार्यकर्त्ता समझते हैं, परंतु ऐसे शिक्षक प्रायः इस तथ्य की उपेक्षा कर जाते हैं कि वे दो अलग-अलग कार्य कर रहे हैं जिनमें आपस में संबंध स्थापित नहीं किया गया है। सिद्धांत और व्यवहार के इस अंतर पर शिक्षा – शास्त्रियों ने चिन्ता व्यक्त करते हुए मध्यवर्ती व्यावहारिक उद्देश्यों की विस्तृत सूची बनाने का सुझाव दिया है । ये मध्यवर्ती उद्देश्य तार्किक दृष्टि से पूर्णरूपेण सुस्पष्ट न होने पर भी, सिद्धांत और व्यवहार को दोनों छोरों से दृष्टिगोचर होने चाहिए जिससे ये एक-दूसरे तक पहुँचने के लिए सेतु का कार्य कर सकें । इसी को ध्यान में रखते हुए निस्बत ने अपनी पुस्तक ‘परपज इन द करीक्युलम’ (Purpose in the Curriculum) में शैक्षिक उद्देश्यों की एक सूची प्रस्तुत की है जो मध्यवर्ती उद्देश्यों को व्यावहारिक आधार प्रदान करती है। इन्हें दो वर्गों में विभाजित किया गया है तथा प्रत्येक वर्ग में छह-छह उद्देश्यों अर्थात् कुल बारह उद्देश्य प्रस्तावित किये गये हैं। ये वर्ग इस प्रकार हैं –
1. पर्यावरण से समायोजन (Adjustment with Environment)
2. व्यक्तिगत विकास (Individual Development)
पर्यावरण से समायोजन- इसके अन्तर्गत छः उद्देश्य सम्मिलित किये गये हैं –
(i) कौशल – सभ्य समाज में रहने के लिए आवश्यक बुनियादी कौशलों का पूर्ण ज्ञान ।
(ii) संस्कृति-समाज की संस्कृति का पूर्ण ज्ञान ।
(iii) गृह सदस्यता – समाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई घर अर्थात् परिवार की प्रभावशाली एवं संतोषप्रद सदस्यता ।
(iv) व्यवसाय
(v) अवकाश
(vi) सक्रिय नागरिकता ।
व्यक्तिगत विकास – इसके अन्तर्गत भी छ: उद्देश्यों की सूची प्रस्तुत की गई है जो अग्र प्रकार हैं
(i) शारीरिक विकास
(ii) सौन्दर्य बोधात्मक विकास
(iii) सामाजिक विकास
(iv) आत्मिक अथवा आध्यात्मिक विकास
(v) बौद्धिक विकास
(vi) नैतिक विकास
निस्बत के मतानुसार इस सूची में शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण सभी पक्षों को समाहित किया गया है तथा इससे व्यावहारिक दृष्टि रखने वाले व्यक्तियों को समुचित निर्देशन मिल सकता है । व्यावहारिक रूप दिये जाने पर यह सूची शिक्षकों द्वारा किये जा रहे विभिन्न प्रकार के प्रयासों को एकीकृत करने में सहायक सिद्ध हो सकती है ।
अन्य वर्गीकरण – व्यापकता एवं शिक्षण के दृष्टिकोण से उद्देश्य दो प्रकार के होते हैं –
1. शैक्षिक उद्देश्य (Educational Objectives)
2. शिक्षण उद्देश्य (Teaching Objectives)
शैक्षिक उद्देश्य अधिक व्यापक होते हैं तथा ये शिक्षा एवं शिक्षालयों के संबंध में प्रयुक्त किये जाते हैं जबकि शिक्षण – उद्देश्य संकुचित होते हैं तथा इनका संबंध कक्षा-शिक्षण के विभिन्न विषयों से होता है। शिक्षण उद्देश्यों के द्वारा ही शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है । शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति विद्यालय की समय-सारिणी के एक वादन या कालांश में ही  की जाती है जबकि शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति विद्यार्थी के शैक्षिक जीवन अर्थात् प्राथमिक स्तर से उच्च शिक्षा के स्तर तक की शिक्षा व्यवस्था द्वारा की जाती है । उदाहरणार्थ-यदि शैक्षिक उद्देश्य ‘राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास करना है तो इसकी प्राप्ति के लिए कई शिक्षण उद्देश्य होंगे जैसे- राष्ट्रीय एकता प्रत्यय की परिभाषा का प्रत्यास्मरण करना, राष्ट्रीय एकता के अर्थ की व्याख्या करना, राष्ट्रीय एकता में सहायक एवं बाधक तत्वों को पहचानना आदि-आदि । इस प्रकार एक लम्बी अवधि में, शिक्षण में सतत् प्रयत्नशील रहने के बाद ही शैक्षिक उद्देश्य की प्राप्ति सम्भव होती है ।
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