संज्ञानात्मक विकास से आप क्या समझते हैं ? संज्ञानात्मक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।

प्रश्न – संज्ञानात्मक विकास से आप क्या समझते हैं ? संज्ञानात्मक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर – बौद्धिक विकास एक सतत् प्रक्रिया है। विभिन्न सामाजिक योग्यताएँ पृथक्-पृथक् आयु स्तरों पर परिपक्व व परिष्कृत होती जाती है। बौद्धिक विकास में प्रतिमानित (Patterned) प्रतिक्रियाएँ निहित रहती है जिसमें संवेदना (Sensation), प्रत्यक्षीकरण (Preception), स्मृति (Memory), कल्पना (Imagination) तथा तर्क (Reasoning) आदि मानसिक व्यवहारों का प्रत्यक्षीकरण होता है।
बालकों के बौद्धिक विकास में संवेदना और प्रत्यक्षीकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संवेदनाओं के बिना संसार की वस्तुओं का सही ज्ञान नहीं हो पाता है अत: नेत्र, कान, जीभ, त्वंचा तथा नाक की क्षमताओं का विकास हो जाने से बालक रंग, ध्वनि, रस, गंध और स्पर्श के स्वरूप, प्रकार और गुण का ज्ञान प्राप्त करता है। आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक के भीतर वस्तुओं के रंग, रूप और आकार की भिन्नता पहचानने की क्षमता (Ability to discriminate) बढ़ती जाती है, जिसे संज्ञानात्मक अनुभव कहते हैं। संज्ञानात्मक अनुभवों के अभाव में बालक को वातावरण के साथ समायोजन करने में कठिनाई होती है। मानव विकास क्रम में अनुभव की वृद्धि ज्ञानात्मक क्षमताओं के विकास पर ही निर्भर करती है और इसके लिए संवेदना व प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है। बालकों को संसार की सभी वस्तुओं का ज्ञान संवेदना और प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से ही होता है। संवेदना उसके ज्ञानात्मक (Cognitive) अनुभव का प्राथमिक रूप होती है और सांवेदनिक ज्ञान की व्याख्या प्रत्यक्षीकरण (Perception) कहलाती हैं | संवेदना केवल बाह्य रंग, रूप, आकार का ज्ञान कराती है। इन संवेदनाओं से प्राप्त वस्तुओं की संज्ञा क्या है, वे किस प्रकार की है, किस स्थान पर हैं, उनके गुण व भेद क्या हैं, इसका विस्तृत बोध मस्तिष्क देता है। विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ही नहीं अपितु मस्तिष्क और विभिन्न मानसिक क्रियाएँ जैसे स्मृति विचार, ध्यान आदि सभी कार्य करते हैं। ऐसे विस्तृत ज्ञान को ही प्रत्यक्षीकरण कहते हैं जिसका सीधा सम्बन्ध मानसिक क्रियाओं से होता है जो हमें वस्तुओं की तात्विक विशेषताओं का बोध कराती है। अतः मानसिक विकास प्रत्यक्षीकरण द्वारा ही होता है। प्रत्यक्षीकरण द्वारा बालक अनेक प्रत्ययों (Concepts) को ग्रहण करता है। ये ऐसे प्रत्यय होते हैं जो उसके चिंतन का आधार बनते हैं। सामान्य प्रत्यय के सहारे वह किसी वर्ग की सम्पूर्ण वस्तुओं के विषय में चिन्तन कर सकता है। जैसे यदि किसी बालक ने गुलाब के फुल का प्रत्यक्षीकरण कर लिया तो फूल सामने न होने पर वह उसके बारे में अपने विचार प्रस्तुत कर सकता है। एक बार प्रत्ययों का निर्माण (Concept formation) हो जाने के बाद केवल शब्दों को सुनकर या देखकर उससे सम्बन्धित अर्थों को बालक समझने लगता है। प्रत्ययों का निर्माण होने पर ही तर्कक्षमता (Reasoning) विकसित होती है। अत: किसी भी समस्या . की ओर सबसे पहले उन्हीं व्यक्तियों का ध्यान जाता है, जिनमें प्रत्ययों का विकास बहुत अधिक हुआ रहता है। जीवन-चक्र में अनेक स्थानों पर प्रत्यय हमारे विचारों को व्यक्त करने और समस्याओं को हल करने में सहायक होते हैं ।
संज्ञानात्मक विकास — जैसा कि ऊपर वर्णित किया जा चुका है कि बालकों में पहले संवेदना फिर प्रत्यक्षीकरण का विकास होता है। प्रत्यक्षीकरण के द्वारा ज्ञानशक्ति की वृद्धि तथा प्रत्ययों का निर्माण होता है। ज्ञान शक्ति की वृद्धि संज्ञानात्मक या बोधात्मक विकास है। यह एक ऐसी उच्च मानसिक प्रक्रिया है जो हमें अपने आस-पास के वातावरण को समझने तथा उसके साथ समायोजन करने में सहायता प्रदान करती है। संज्ञान एक जटिल प्रक्रिया है इसमें कई बातें सन्निहित रहती हैं –
1. प्रत्यक्षीकरण 2. स्मरण 3. चिन्तन 4. निर्णय 5. समस्या समाधान
संज्ञानात्मक प्रक्रिया के विभिन्न सोपान – संज्ञानात्मक विकास प्रक्रिया के विभिन्न सोपान निम्नलिखित हैं
1. प्रतिमा निर्माण (Image formation ) – सर्वप्रथम प्राणी अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से बाह्य जगत् से संवेदनाएँ ग्रहण करता है। संवेदनाओं के माध्यम से प्रत्यक्षीकरण कर उनकी प्रतिमाएँ मस्तिष्क में बना लेता है अतः भिन्न-भिन्न संवेदनाओं से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रतिमाएँ मस्तिष्क में बनती हैं जैसे एक बार आग से जला हुआ बालक जब आग को देखता है तो भयभीत हो जाता है।
2. संकेत (Symbols) — संवेदनाओं के द्वारा बाह्य जगत् का प्रत्यक्षीकरण करने पर उत्तेजनाओं के सम्बन्ध में प्रतीकों व संकेतों द्वारा चिन्तन कर समझने व समझाने का प्रयास किया जाता है। संकेत वे उद्दीपन होते हैं जो अनुपस्थित वस्तु का प्रतिनिधित्व करते हैं।
3. भाषा (Language ) – संज्ञानात्मक विकास क्रम में तीसरा सोपान भाषा है। बाह्य जगत् की वस्तुओं का बोध होने पर वह जो प्रतिमा निर्मित की गई है उसके सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा का समाधान करता है। जो वस्तुएँ, घटनाएँ तथा परिस्थितियाँ उसे जटिल तथा रहस्यमय दिखाई पड़ती है उनके विषय में प्रश्न पूछता है और बाह्य जगत् के सम्बन्ध में अपने बोध का विस्तार करता है।
4. तर्क (Reasoning)– बालकों के भीतर 1 वर्ष की आयु से ही तर्क की क्षमता विकसित होने लगती है अतः वे अपने वातावरण में किसी नई वस्तु या घटना को देखते हैं तो तर्क करने लगते हैं और किसी भी वस्तु, परिस्थिति या घटना के सम्बन्ध में प्रत्ययों का निर्माण करते हैं।
5. प्रत्यय निर्माण (Concept formation)—प्रत्यय मानसिक और संरचनात्मक विकास का महत्त्वपूर्ण अंग है। यह किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा है। प्रत्यय निर्माण से ही संज्ञानात्मक विकास होता है।
संज्ञानात्मक विकास की विशेषताएँ (Characteristics of Cognitive Development)
उपर्युक्त विवरण से संज्ञानात्म विकास की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं –
1. यह एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है जो अमूर्त रूप से होती रहती है।
2. संज्ञानात्मक विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है।
3. संज्ञानात्मक विकास प्रक्रिया व्यक्तिगत होती है।
4. विकास का मूल आधार संवेदना व प्रतीक निर्माण है।
5. यह एक अर्जित योग्यता है जो आजीवन चलती रहती है तथा वातावरण से समायोजन में सहायता करती है ।
6. संज्ञानात्मक विकास से बालक में सीखने की क्षमता बढ़ती है।
7. नाड़ी संस्थान के विकास के साथ-साथ संज्ञानात्मक विकास में वृद्धि होती हैं।
8. संज्ञानात्मक विकास के लिए ज्ञानेन्द्रियों का विकास और परिपक्वता आवश्यक है।
9. बुद्धि संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करती है।
10. संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का विकास शैशवावस्था से पहले ही प्रारम्भ हो जाता है।
विभिन्न अवस्थाओं में संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Devlopment In Different Ages)
स्टॉट (Stott) के अनुसार– “संज्ञानात्मक क्षमता बाह्य वातावरण में विचारपूर्वक प्रभावपूर्ण ढंग से तथा सुविधाजनक तरीके से कार्य करने की क्षमता है।”
अत: स्टॉट के मतानुसार संज्ञानात्मक विकास प्रत्यक्षीकरण द्वारा होता है। व्यक्ति अपने भौतिक व सामाजिक वातावरण से प्रत्यक्षीकरण कर अनुभव प्राप्त करता है और अंत में समायोजन हेतु तादात्मीकरण स्थापित करता है। तादात्मीकरण एक स्वचालित प्रक्रिया है जो व्यक्ति को विकास की ओर अग्रसर करती है।
शैशवावस्था में संज्ञानात्मक विकास–शैशवावस्था में संज्ञानात्मक विकास ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से होता है। शिशु अपने आसपास के वातावरण में जिन वस्तुओं को देखता है और जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है उन्हें जानने का प्रयास करता है। धीरे-धीरे वह अपने आस-पास के वातावरण, व्यक्तियों तथा खिलौनों से परिचित हो जाता है। चूँकि इस
अवस्था में मानसिक विकास की गति तीव्र होती है।
शैशवावस्था में संज्ञानात्मक विकास पर कई बातों का प्रभाव पड़ता है –
(i) बच्चे के पालन-पोषण का तरीका
(ii) आसपास का पर्यावरण
(iii) परिवेश की सामाजिक व मनोवैज्ञानिक स्थितियाँ आदि।
बाल्यकाल में संज्ञानात्मक विकास–बाल्यकाल में भी मानसिक विकास की गति तीव्र होती है। बालक में सहज प्रवृत्तियों का विकास हो जाता है। स्मरण शक्ति विकसित होने लगती है। जिज्ञासा भी उत्पन्न हो जाती है, फलस्वरूप वह अपने सम्पर्क में आने वाली वस्तुओं के बारे में प्रश्न करने लगता है। उसकी रुचियों का विस्तार होने लगता है। सूक्ष्म चिन्तन आरंभ हो जाता है। किसी भी समस्या के कारण तथा निदान खोजने का प्रयास करता है। रटने की योग्यता का विकास हो जाता है। छोटी-छोटी रोचक कहानियाँ पढ़ने में रुचि विकसित हो जाती है।
6 वर्ष के बालक में दाएँ-बाएँ का ज्ञान, 13-14 वस्तुओं को गिनना तथा समस्या समाधान की प्रवृत्ति पाई जाती है। 7 वर्ष का बालक दो वस्तुओं में अंतर कर सकता है। 8 वर्ष की आयु में वह 16-17 शब्दों के वाक्यों को दोहरा सकता है। 9 वर्ष की आयु में वह दिन, तारीख व समय का सही ज्ञज्ञन प्राप्त कर लेता है। 10 वर्ष की अवस्था में छोटे-छोटे बालकों की त्रुटियों को बता सकता है। 60-70 शब्दों को दोहरा सकता है। 11 वर्ष की आयु में वह समानता, तुलना, भिन्नता तथा विभेद कर सकता है। 12 वर्ष की आयु में बात की कारण सहित व्याख्या कर सकता है। वह किसी
किशोरावस्था में संज्ञानात्मक विकास–किशोरावस्था परिपक्वावस्था की अवसी है। संज्ञानात्मक विकास के लिए उन्हें इस अवस्था में उचित परामर्श व दिशा बोध की आवश्यकता होती है। इस समय बाल्यकाल की चंचलता समाप्त हो जाती है। ध्यान की शक्ति बढ़ जाती है। तीव्र स्मरण शक्ति विकसित हो जाती है, रटने की क्षमता और अधिक बढ़ जाती है। कल्पना शक्ति विकसित हो जाती है जिसके द्वारा वह अपनी आंतरिक शक्तियों का विकास करता है। कल्पना के विकास में लड़के-लड़कियों से आगे रहते हैं।
तर्क-शक्ति विकसित हो जाती है इसलिए प्रत्येक बात का तार्किक विश्लेषण करने के बाद ही स्वीकार करता है। रुचियों का तेजी से विकास होता है जो व्यक्तिगत होता है। यह रुचियाँ खेलकूद, नृत्य, ड्रामा, संगीत, चित्रकारी किसी भी क्षेत्र में हो सकती है।
स्वतंत्र पठन-पाठन की रुचि विकसित होती है। चर्चा परिचर्चा में रुचि बढ़ जाती है, कैरियर के प्रति भावी योजनाएँ बनती हैं।
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