संथाल विद्रोह के क्या कारण थे? उसकी गति और परिणाम क्या थे?
- झारखंड, ततकालीन में बिहार में आदिवासियों की एक बड़ी आबादी है और उन्हें 32 आदिवासी समूहों में वर्गीकृत किया गया है।
- झारखंड और बिहार के सभी आदिवासी समूहों में संथाल सबसे बड़ा आदिवासी समूह है।
- 1855-1856 में हुए संथाल विद्रोह एक महत्वपूर्ण जनजातीय विद्रोह था जिसने अंग्रेजों को संथाल परगना क्षेत्र में कई कानून लाने के लिए प्रेरित किया।
- संथालों का आदिवासी समूह के रूप में परिचय कराये।
- संथालों द्वारा विद्रोह के कारणों का उल्लेख करें।
- विद्रोह के प्रक्रिया और प्रकृति पर चर्चा करें।
- परिणामों का उल्लेख करें।
- निष्कर्ष ।
- संथाल बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा सहित भारत के पूर्वी राज्यों में रहने वाला एक प्रमुख आदिवासी समूह है।
- वे झारखंड, तत्कालीन बिहार के सबसे बड़े आदिवासी समूह हैं। 18855-1856 में राजमहल की पहाड़ियों में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रसिद्ध ‘संथाल विद्रोह’ के कारण इनका ऐतिहासिक महत्व है।
- भूमि से बेदखली – जमींदार, पुलिस, राजस्व और अदालत ने संथालो से जबरन वसूली कर संयुक्त कार्रवाई की। संथाल सभी प्रकार के करों और शुल्कों का भुगतान करने के लिए बाध्य थे। उन्हें उनकी संपत्ति से बेदखल कर उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया।
- हिंसा – जमींदारों के प्रतिनिधियों (यानी कारिंदो) ने संथालों के साथ व्यक्तिगत हिंसा की। उनके साथ विभिन्न प्रकार के अत्याचार किए गए और संथालों को झुकाया गया।
- संथाल भूमि का अतिक्रमण – धनी किसानों ने काश्तकारों की भूमि पर अतिक्रमण किया। वे संथालो के मवेशियों को ले गए।
- अत्यधिक ब्याज दर – साहूकारों ने संथालो को जिस दर पर ब्याज दिया वह दर बहुत ही अधिक थी। इन साहूकारों को संथालों द्वारा दीकू, यानी शोषक कहा जाने लगा। संथाल क्षेत्रों में अपना व्यापार चलाने वाले सभी बंगाली दीकू के नाम से जाने जाते थे।
- यूरोपीय लोगों द्वारा उत्पीड़न – यूरोपीय लोगों को बिहार में रेल निर्माण के लिए लगाया गया था। इन यूरोपीय लोगों ने अक्सर संथाल महिलाओं का अपहरण किया और यहाँ तक कि उनकी हत्या की और उत्पीड़न के कुछ अन्यायपूर्ण कृत्यों को भी किया तथा इस सब के लिए रेलवे लाइन पर कार्यरत यूरोपीय लोगों द्वारा कोई भुगतान नहीं किया गया था। जमींदारों, साहूकारों, व्यापारियों और यूरोपीय कर्मचारियों ने इस प्रकार संथाल किसानों पर इस हद तक अत्याचार किया कि उनके पास विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
- मुद्रा प्रणाली की शुरुआत – मुद्रा की शुरुआत संथालों के लिए एक बहुत बड़ा आघात थी । संथाल वस्तु विनिमय प्रणाली का पालन करते थे, लेकिन जमींदारों को नकद भुगतान करना पड़ता था। इसका अर्थ यह था कि उन्हें साहूकारों से बहुत अधिक ब्याज दर पर पैसा उधार लेना पड़ता था।
1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद, बंगाल का नियंत्रण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पास चला गया, संथालों की आबादी वाले क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया। जल्द ही अंग्रेजों ने जूट, अफीम (Poppy) और नील जैसी नकदी फसलें उगाने के लिए जंगलों को साफ करना शुरू कर दिया। इसके बाद लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा 1793 ई. में प्रसिद्ध ‘स्थायी बंदोबस्त या जमींदारी व्यवस्था’ की शुरुआत की गई। इस समझौते के तहत, यह सहमति हुई कि जब तक कि जमींदार ब्रिटिश सरकार को एक निश्चित राजस्व का भुगतान करते हैं तब तक जमींदारों के पास भूमि का स्थायी और वंशानुगत अधिकार होंगे। जमीदारों की इस नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए अंग्रेजों ने संथालों की बड़ी मात्रा में जमीन को हर उस व्यक्ति को बेच दिया जिन्होंने उन्हें उस निश्चित राजस्व को देने की गारंटी दी।
- शहरों में रहने वाले बहुत से अमीर भारतीयों ने इन दूर के जंगलों में जमींदारियां खरीदीं और जल्द ही वहां के लोगों का शोषण करना शुरू कर दिया। जमींदारी प्रथा की शुरुआत के साथ, संथालों ने अपनी भूमि के सभी अधिकार खो दिए। उनके अधिकार इन नए ‘जमींदारों’ के लिए खेतों में काम करने वाले भाड़े के मजदूरों तक सीमित कर दिए गए। इसके कारण यहाँ पीढ़ियों से जारी पुरानी जनजातीय व्यवस्थाओं और राजनीतिक संरचनाओं का भी अंत हो गया। पूरे क्षेत्र पर जमींदारों और उसके कारिंदो का नियंत्रण हो गया। जैसे-जैसे समय गुजरता गया हालात बद से बदतर होते गए। स्थानीय जमींदारों और अंग्रेजों के द्वारा किये गए शोषण के कारण सशस्त्र विद्रोह हुआ। 1855 ई. के संथाल विद्रोह को स्थानीय भाषा में हुल कहा गया, जिसका अर्थ होता है मुक्ति का आंदोलन ।
- विद्रोह का नेतृत्व मुर्मू वंश के चार भाइयों सिद्धू, कान्हू, चाँद और भैरव और उनकी दो बहनों फूलो और झानो ने किया था। इनका जन्म संथाल पुजारियों के एक कुल में हुआ था, ये सभी झारखंड के साहिबगंज जिले के डोगराडीह गांव में रहते थे। जून 1855 में एक दिन, सिद्धू मुर्मू ने दावा किया कि उसके पास यह दिव्य सन्देश आया है कि केवल सशस्त्र विद्रोह के द्वारा ही उत्पीड़न को समाप्त किया जा सकता है।
- मुर्मू भाइयों ने गुप्त सन्देश के रूप में साल शाखाओं के साथ संथालों के बीच दूत भेजे। 7 जुलाई, 1855 ई. को वर्तमान झारखंड के साहिबगंज जिले के भोगिनीडीह गांव में एक मैदान में बड़ी संख्या में संथाल एकत्रित हुए। उन्होंने खुद को स्वतंत्र घोषित किया और सिद्धू कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में अंग्रेजों और उनके एजेंटों के विरुद्ध अपनी आखिरी सांस तक लड़ने की शपथ ली। संथालों के इस कार्य ने अंग्रेजों के लिए संकट उत्पन्न कर दी ततपश्चात् अंग्रेजों ने भाइयों को गिरफ्तार करने के लिए एक पुलिस एजेंट भेजा। इस पर संथालों ने हिंसक प्रतिक्रिया की और पुलिस एजेंट और उसके साथियों को मार डाला।
इस कारण अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना और संथालों के बीच संघर्षों की एक श्रृंखला शुरू हो गयी, इसके कारण एक पूर्ण युद्ध हुआ। संथालों ने राजमहल की पहाड़ियों (झारखंड में) से भागलपुर जिले ( बिहार में) से लेकर बीरभूम (पश्चिम बंगाल में) तक फैले बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। विद्रोहियों ने साहूकारों और जमींदारों को बाहर निकालने का फैसला किया। दोनों तरफ से लोग मारे गए और स्थानीय ब्रिटिश प्रशासकों ने अपनी जान बचाने के लिए संथालपरगना के पाकुड़ शहर की मजबूत किले में शरण ली।
- संथाल जोशीले और कुशल योद्धा थे, लेकिन उन्हें अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उपयोग की जाने वाली आधुनिक आग्नेयास्त्रों के विरुद्ध बराबर मौका नहीं मिला। ऐसा अनुमान है कि 15,000 से 20,000 के बीच संथाली अंग्रेजों के द्वारा मारे गए थे। हताहतों में भाई कान्हू भी शामिल थे। यद्यपि कंपनी द्वारा 1856 में एक वर्ष के भीतर विद्रोह को दबा दिया गया था, संथाल प्रतिरोध 1857 तक जारी रहा।
उपनिवेश विरोधी आंदोलन के रूप में संथाल आंदोलन के महत्वपूर्ण परिणाम थे।
- अंग्रेजों को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया: संथाल हार गए थे, लेकिन इस विद्रोह ने ब्रिटिश अधिकारियों को संथालियों के प्रति अपनी नीति बदलने के लिए बाध्य किया।
- संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम अस्तित्व में आया जिसने जनजातियों को औपनिवेशिक शोषण से कुछ सुरक्षा प्रदान की।
- नियमित पुलिस बल को समाप्त कर दिया गया और ग्राम प्रधान को शांति और व्यवस्था बनाए रखने का कर्तव्य दिया गया।
संथाल विद्रोह अंग्रेजों के विरूद्ध एक प्रमुख आदिवासी विरोध आंदोलन सिद्ध हुआ। आदिवासी लोगों की स्थानीय शिकायतों को दूर करने के लिए ब्रिटिश सरकार को अपने शासन में बड़े बदलाव लाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस आंदोलन ने भारत के लोगों को औपनिवेशिक , शासन के अत्याचार और अन्याय के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया।
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