सलजुक तुर्क (The Seljuk Turks)
सलजुक तुर्क (The Seljuk Turks)
सलजुक वंश की स्थापना तुगरिल नामक एक तुर्क ने की थी। इससे सन् 1055 में अंतिम बुवाहिद शासक अल मलिक रहीम को सत्ता से हटाकर करागार में डाल दिया, जहाँ बाद में उसकी मृत्यु हो गई। प्रारम्भ में सलजुक अरब के बदुओं की-सी खानाबदोश का जिन्दगी गुजारते रहते थे। अपनी आजीविका की खोज में एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहते थे । इन्हें गज अथवा ओगज भी कहा जाता था । इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् तुकोमान के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस्लाम के अभ्युदय के पूर्व तुर्क जाति ने छठी शताब्दी में उत्तरी राज्य की स्थापना की और उसके बाद वे अपना ध्यान पश्चिम की ओर आकर्षित किए। सलजुक सुन्नी सम्प्रदाय के प्रति आशक्त थे । तत्पश्चात इस बहादुर जाति ने समानियों तथा काराखानियों और बाद में इलेकखानों एवं गजनी के सुल्तानों के बीच होने वाले संघर्षों में विशेष योगदान दिया। इसके अलावा इन्होंने पश्चिम की ओर बढ़ने का अभियान जारी रखा और लूटपाट करते हुए वे पश्चिम
में अजरबैजान तथा इराक तक जा पहुँचे। इसी समय इस जाति को सलजुक नाम का एक नेता मिल गया, जो वीरता का प्रतीक था। उसने इस बहादुर जाति को और भी संगठित किया और अपने योग्य नेतृत्व के द्वारा उनके प्रभुत्व का व्यापक विस्तार किया। ऐसा माना जाता है कि इसी नेता के नाम पर आगे चलकर तुर्कों की यह शाखा सलजुक तुर्क के नाम से प्रसिद्ध हुई। सलजुक का उत्कर्ष काल का प्रारम्भ 956 ई. से माना जाता है। उसके नेतृत्व में ही तुर्किस्तान में रहने वाली यह खानाबदोश जाति बुखारा में जा बसी, जहाँ इन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।
सलजुक शक्ति का उत्कर्ष – बुखार में अपनी स्थिति मजबूत कर लेने के बाद सलजुक अपनी शक्ति विस्तार में लग गया। सलजुक का एक पौत्र, तुगरिल ने अपने भाई के सहयोग से खुराशान तक के क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया । वस्तुतः तुगरिल गजनवी वंश के शासन को समाप्त कर इस क्षेत्र में सलजुक प्रभुत्व की स्थापना करना चाहता था और दूसरी ओर गजनवी शासक मसूद खुरासान से सलजुक तुर्कों को भगा देना चाहता था। अतः दोनों के मध्य यह युद्ध होना स्वाभाविक था। हेरात में मसूद और तुगरिल की सेना के बीच संघर्ष हुआ। युद्ध में मसूद को हार का सामना करना पड़ा और गजनवी साम्राज्य के भग्वावशेषों पर सलजुक शक्ति का उत्कर्ष शुरु हुआ। मसूद का देहान्त होने के उपरांत उसके उत्तराधिकारी सुल्तान इब्राहिम ने सलजुकों से संधि कर ली और स्वयं हिन्दुस्तान की ओर बढ़ा। इस प्रकार तुगरिल ने गजनवियों से मारव और नेसाबूर के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद एक-एक कर सलजुक तुर्कों ने बल्ख, जुर्जान, तबारिस्तान, ख्वारिज्म, जहाँ हमादान, रे, ईसबाहान आदि क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
अब तक सलजुक की शक्ति काफी बढ़ चुकी थी। अब वे बगदाद पर कब्जा करने की योजना बनाने लगे। बगदाद में बुवाहिद वंश के लोग अब्बासी खलीफा को अपने हाथों में कठपुतली बनाकर शासन कर रहे थे। अंत में तुगरिल 1055 ई. में बढ़ता हुआ बगदाद भी जा पहुँचा। बगदाद में बुवाहिदों की शक्ति को समाप्त कर खलीफा पर सलजुक प्रभुत्व की स्थापना करने में तुगरिल को कोई खास कठिनाई नहीं हुई। अन्तिम बुवाहिद शासक का प्रतिनिधि बगदाद का तुर्क सैन्य गवर्नर अल-बसासीरी ने राजधानी छोड़ दी और खलीफा अल-कईम ने आगे बढ़कर एक मुक्तिदाता के रूप में तुगरिल का स्वागत किया। इस प्रकार बगदाद पर सलजुक का आधिपत्य हो गया ।
सलजुक उत्कर्ष के पूर्व साम्राज्य की दशा- सलजुक शक्ति का उत्कर्ष ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में पूरब में हुआ। सलजुकों के उत्कर्ष में अब्बासी खलीफा का विशेष योगदान रहा है। यह अब नाममात्र का ही खलीफा रह गया था, सत्ता हाथ से जा चुकी थी। स्पेन में उमैयदों और मिस्र में फातिमियों ने अपनी स्थिति को काफी मजबूत बना ली थी। अब ये अब्बासियों की शक्ति से बहुत आगे निकल चुके थे । उत्तरी सीरिया तथा ऊपरी मेसोपोटामिया पर उग्र अरब प्रधानों ने अपना अधिकार कर रखा था। कुछ स्वतंत्र राजवंश भी स्थापित हो गये थे। फारस, ट्रांसऑक्सियाना तथा इनके पूरब एवं दक्षिण के क्षेत्रों को बुवाहिदों, गजनवियों तथा अनेक अन्य छोटे-छोटे राजवंशों के शासकों ने आपस में बाँट रखा था और अपनी शक्ति के विस्तार के लिए ये सदा एक-दूसरे का गला दबाने के लिए उद्यत रहते थे। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सभी जगह राजनीतिक एवं सैनिक अराजकता व्याप्त थी। शिया व सुन्नी वर्ग आपस में संघर्ष करते रहते थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस्लाम कहीं का नहीं रह जाएगा। अराजकता की इसी पृष्ठभूमि में सलजुकों ने अपनी शक्ति एवं प्रभाव की स्थापना तथा विस्तार किया। इस्लाम तथा खिलाफत के इतिहास में सलजुक तुर्कों का उत्कर्ष एक नए इतिहास का सूत्रपात था।
तुगरिल बेग (1037-1063 ई.) (Tugrll Beg-(1037- 1063 AD)
सलजुक वंश का संस्थापक तुगरिक बेग बहुत ही प्रभावी व प्रतापी शासक था। इसके अलावा इस वंश में अल्प अर्सलन और मलिक शाह भी प्रतापी शासक हुए। इस्लामी इतिहास में इन्हें महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अपनी सैनिक शक्ति, योग्यता एवं महत्त्वाकांक्षा के बल पर इन शासकों ने पूरब में एक अत्यन्त विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की और इस्लामी सभ्यता-संस्कृति की उन्नति तथा प्रसार किया। सलजुक का अंत होने के उपरांत तुर्की ने उसके प्रतापी पोते तुगरिल को अपना नेता चुना। तुगरिल ने सलजुक राजवंश को काफी मजबूती प्रदान की। अपने भाई के सहयोग से अपने खुरासान तक के क्षेत्रों को जीत लिया था। 1087 ई. में दोनों भाइयों ने गजनवियों के कब्जे वाले मारव और नेसाबूर पर अधिकार कर लिया। जल्द ही बल्ख, तबरिस्तान, ख्वारिज्म, हमदान, रे और इस्पहान पर भी तुगरिल ने अपना आधिपत्य जमा लिया।
सलजुक व बुवाहिद संघर्ष – अब्बासी खलीफा अल कईम ने जब देखा कि सलजुकों की शक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है तो वे भयभीत हो गए। इन दिनों अब्बासी साम्राज्य बुवाहिदों के प्रभाव में था। किन्तु अब तक बुवाहिदों की शक्ति काफी कमजोर हो गई थी। अंतिम बुवाहिद अल-मलिक अर-रहीम एक तुर्क सेनापति अल-बसागिरी की मुट्ठी में था। तुगरिल के बगदाद आगमन के पूर्व भी खलीफा ने उनको सम्मानित किया था और बुवाहिदों के स्थान पर तुगरिल को अपना संरक्षक बनाने का निश्चय कर लिया था । जैसे ही तुगरिल बगदाद में प्रवेश किया, अल-मलिक अर-रहीम बगदाद छोड़ कर भाग खड़ा हुआ। 1018 ई. में रे में वह परलोक सिधार गया।
अल-बसासिरी का दमन-अल-बसासिरी बुवाहिद का सेनापति था। वह उत्तर की तरफ भागा। तुगरिल ने मोसुल तक उसका पीछा भी किया पर पकड़ नहीं सका। लगभग एक साल तक तुगरिल बगदाद से दूर रहा। इस दौरान अच्छा अवसर देखें बसासिरी पुनः बगदाद लौट आया। उसने अपनी सेना के सहयोग से बगदाद पर पुनः अपना अधिकार कर लिया। इस कार्य में फातिमी खलीफा मुस्तानसिर ने बसासिरी की सहायता की थी; क्योंकि बसासिरी ने उसे यह आश्वासन दे रखा था कि वह बगदाद तथा अपने अधिकार क्षेत्र उसे सुपुर्द कर देगा। उसने अपने वचन का पालन भी किया। इस घटना की सूचना पाते ही तुगरिल बगदाद लौट आया। सन् 1060 में इन दोनों के बीच भीषण संघर्ष हुआ जिसमें बसासिरी की पराजय हुई। अल-कईम को पुनः पदासीन किया गया। तुगरिल के द्वारा परास्त हो जाने पर बसासिरी भागकर बासीत चला गया, जहाँ सलजुक तुर्कों के साथ लड़ते हुए मारा गया ।
खलीफा का प्रभाव – बुवाहिदों के प्रभाव से मुक्त होने के बाद खलीफा की स्थिति भी सुधरने लगी। पहले की अपेक्षा उनके सम्मान में भी वृद्धि हुई । एक वर्ष के पश्चात तुगरिल बेग को अपना रीजेन्ट बनाया और पश्चिम-पूरब के देशों’ का राजा मानकर उसे ‘सुल्तान’ की उपाधि से विभूषित किया। सलजुकों के साथ ही सुल्तान प्रभुसत्ता सम्पन्न शासक का प्रतीक बन गया। इसके बाद ही अब्बासी खिलाफत अब केवल नाम मात्र का शासक रह गया और शासन सत्ता पर व्यावहारिक रूप से सलजुक प्रधानों के नियंत्रण में आ गया।
बैजेन्टाइनों का संघर्ष-तुगरिल ने अपनी स्थिति कुछ मजबूत करने के बाद बैजेन्टाइन शासक पंप विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। बैजेन्टाइनों को उसने कप्पासोडिया तथा फ्रायजिया के क्षेत्रों से बाहर खदेड़ दिया। किन्तु 1068 ई. में अचानक तुगरिल की मृत्यु हो गयी और इन क्षेत्रों पर बैजेन्टाइनों का अधिकार हो गया ।
तुगरिल की समीक्षा – तुगरिल ने अपने साम्राज्य को मजबूत बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। वह एक योद्धा होने के साथ-साथ कुशल शासक प्रबंधक भी था। तुगरिल के मार्ग पर चलकर उसके उत्तराधिकारियों ने उस समय तक अपनी शक्ति तथा सत्ता का विस्तार किया, जबतक संपूर्ण पश्चिमी एशिया पर मुस्लिमों का साम्राज्य स्थापित न हो गया। तुगरिल के उत्कर्ष के पूर्व इस्लाम साम्राज्य का सारा गौरव जाता रहा था। तुगरिल ने इस्लाम को विश्व शक्ति के रूप में नवजीवन प्रदान किया। मध्य एशिया की इस असभ्य जाति ने इस्लाम ग्रहण कर तुगरिल और उसके उत्तराधिकारियों के काल में इस्लाम को पुनः एक विश्व शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयास किया। कालान्तर में मंगोलों तथा ऑटोमन तुर्कों के द्वारा भी इस तरह के प्रयास किये गये। परिणामस्वरूप इस्लाम अपने गहन अंधकार के काल में भी कुछ महत्वपूर्ण विजय प्राप्त करने में सफल रहा । इसके लिए तुगरिल ही जिम्मेदार था । तुगरिल एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी तथा शिक्षा – साहित्य, कला-कौशल आदि का महान पोषक भी था। वह सादा जीवन व्यतीत करने में विश्वास करता था। साथ ही उसमें सज्जनता, सहिष्णुता, न्यायप्रियता, दयालुता आदि मानवता के सारे उदात्त गुण भी विद्यमान थे । वह साहित्य एवं कला का अनन्य प्रेमी था। उसने जिन क्षेत्रों को जीता, वहाँ उनके द्वारा अनेक मस्जिद एवं मदरसे बनवाये गये । वस्तुतः तुगरिल की दयालुता एवं विद्या प्रेम की प्रशंसा उसके विरोधियों ने भी की है।
अल्प अर्सलन (1063-72) (Alp-Arsalan (1063-72)
यह तुगरिल के भाई दाऊद का पुत्र था, जो सन् 1063 में तुगरिल की मृत्यु हो जाने के बाद अल्प अर्सलन को शासक बनाया गया। सुल्तान बनने के पूर्व वह अपने पिता दाऊद के बाद उसके अधीनस्थ क्षेत्रों पर गवर्नर के रूप में शासन कर चुका था । सत्ता तक पहुँचने के लिए अल्प अर्सलन को अपने सगे-संबंधियों के साथ संघर्ष भी करने पड़े, जो उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। लेकिन उसने सुगमतापूर्वक अपने विरोधियों का दमन कर सुल्तान की पदवी धारण कर ली। सुल्तान बनने के बाद अल्प अर्सलन ने तुगरिल बेग के द्वारा प्रारम्भ किये गये साम्राज्य विस्तार और संगठन के कार्य को पूरा करने का वीणा उठाया जिसमें वह सफल भी हुआ। उसने काबुल के बीच के सुबरान क्षेत्र पर अधिकार कर लिया गया ।
बैजेन्टाइन के साथ संघर्ष – बैजेन्टाइनों के विरुद्ध तुगरिल ने भी अभियान छेड़े थे पर आकस्मिक मृत्यु हो जाने के कारण कुछ खास सफलता नहीं मिल सकी। अल्प अर्सलन ने भी इसके विरुद्ध रणनीति तैयार की और अना नागक उनके एक राज्य पर अधिकार कर लिया जल्द ही प्रतिद्वन्द्वी बैजेन्टाइन शासक के साथ उसके साथ भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गये। 1071 ई. में मन्जीकार्त्त की लड़ाई में अल्प अर्सलन ने बेजैन्टाईन के शासक रोमानस डियोजनस को हराकर उसे अपने कब्जे में कर लिया कालान्तर में रोमन सम्राट के विजेता के साथ संधि कर ली। इस संधि की प्रमुख शर्ते निम्न प्रकार हैं—
1. युद्ध – कैदियों को मुक्त कर देगा ।
2. वह सुल्तान को प्रति वर्ष खिराज के रूप में 630 स्वर्णमुद्रा देगा, तथा
3. एक करोड़ धनराशि सुल्तान को देगा,
4. रोमनस अपनी पुत्रियों की शादी अल्प अर्सनल के पुत्रों के साथ करेगा,
रोमनस उक्त शर्तों को पूरा नहीं कर सका। क्योंकि इसी बीच मोईकेल सप्तम ने गद्दी पर कब्जा कर लिया था । कुस्तुनतुनिया की प्रजा रोमनस से अत्यन्त रुष्ट थी । रोमनस की आँख फोड़ दी गयी और अन्त में उसकी हत्या कर दी गयी । अल्प अर्सनेल कुस्तुनतुनिया पहुँचने की योजना बना ही रहा था कि इसी दौरान रोमनस की हत्या कर दी जाने की खबर मिली। अल्प अर्सनल चाह कर भी रोमनस की मदद नहीं कर पाया।
एशिया माइनर रूमी साम्राज्य की स्थापना : रोमनस की हत्या के पश्चात् सुल्तान ने अपने चचेरे भाई कुतुलुमिश के पुत्र सुलेमान को एशिया माइनर का गवर्नर बनाया। कालान्तर में 1077 ई. में सुलेमान ने एशिया माइनर में रूमी साम्राज्य की स्थापना की। धर्मयुद्ध के काल तक सुलेमान के उत्तराधिकारी इस क्षेत्र में शासन करते रहे। कालान्तर में तार्तारों ने रूम साम्राज्य का अंत कर एशिया माइनर पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
अल्प-अर्सलन का शासन काल-अल्प अर्सलन अपनी राजधानी मारव से बदलकर इस्पहान ले गया। अल्प अर्सलन ने फातिमी शासक से दमिश्क तक के क्षेत्रों को छीन कर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। किन्तु जब दिसम्बर, 1072 ई. में वह ऑक्सस के पास अपनी मातृभूमि के क्षेत्रों पर पुनः अधिकार स्थापित करने के लिए युद्ध में व्यस्त था, उसकी हत्या एक विद्रोही के द्वारा कर दी गयी, जिसे वह मार डालना चाहता था । अल्प अर्सलन एक निष्ठावान मुसलमान, भाग्यशाली विजेता, योग्य शासक और जनकल्याणकारी सुल्तान था। उनके चरित्र में सज्जनता, सादगी और सरलता के गुणों का समावेश था। उसने राजधानी को सजाया। सेना को सहूलियतें देना, गरीबों की मदद करना, किसानों, व्यापारियों को प्रोत्साहन देना आदि ।
मलिकशाह (1072-92 ई.) (Malik Shah (1072 92AD)
अल्प अर्सलन की हत्या के बाद उसके पुत्र मलिक शाह का राज्याभिषेक किया गया। उस समय उसकी आयु बहुत कम थी। ऐसी स्थिति में साम्राज्य की देखभाल की सारी जिम्मेदारी उसके ऊपर आ गयी। उसके दूरदर्शी पिता ने अपने योग्य वजीर निजाम उल-मुल्क को मलिकशाह की देखभाल का आदेश दे रखा था । वस्तुतः अल अर्सलन तथा मलिक शाह के प्रशासन को संचालित करने वाला वह फारसी वजीर निजाम-उल-मुल्क ही था । वह दीन-हीन लोगों की मदद करता था ।
मलिकशाह एक योग्य शासक साबित हुआ। उसने अपनी योग्यता व कुशलता के बल पर सलजुक साम्राज्य को काफी ऊँचाई पर पहुँचाया। खलीफा अल मुक्तफी ने उसे सुल्तान जलालुद्दौला (साम्राज्य का गौरव) का विरुद्ध प्रदान किया। अब तक सुल्तान का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि खलीफा भी उसके हाथ की कठपुतली बन गया था। अब शुक्रवार के नमाज में खलीफा के नाम के साथ सुल्तान का नाम भी लिया जाने लगा। 1087 ई. में खलीफा अल-मुक्तफी ने सुल्तान मलिकशाह की पुत्री के साथ शादी भी कर ली। 1091 ई. में मलिक शाह ने सुल्तान पद की शक्ति एवं गौरव को भी बढ़ाया।
मलिक शाह ने सलजुक साम्राज्य को बुलंदियों पर पहुँचाया। वह एक महान विजेता, योग्य संगठनकर्ता एवं शिक्षा-साहित्य तथा कला का महान् पोषक था। उसके शासनकाल में सलजुक साम्राज्य का यथेष्ट विस्तार हुआ। सम्पूर्ण साम्राज्य में उसने शान्ति सुव्यवस्था की स्थापना की। वह एक प्रजापालक शासक था और जनहित के उद्देश्य से उसने अनेक उल्लेखनीय कार्य किये। उसने शिक्षा – साहित्य, ज्ञान-विज्ञान एवं विभिन्न कलाओं के विकास हेतु व्यापक प्रयास किए। मलिक शाह ने अपनी सैन्य योग्यता एवं कूटनीति के बल पर सलजुक साम्राज्य का व्यापक विस्तार किया। उसके एक गवर्नर सुलेमान ने सलजुक साम्राज्य की सीमा को कैरिया तक फैला दिया। तत्कालीन बैजेन्टाइनी शासक ने भी सुल्तान की संप्रभुता को स्वीकार कर लिया। सुलेमान ने अपने बाहुबल से ग्रीकों को अन्तिओक से भगा दिया। इस प्रकार मलिकशाह का साम्राज्य काशगर से जरूसलेम तथा कुस्तुनतुनिया से कैस्पियन सागर तक फैला हुआ था। अपने शासनकाल के दौरान मलिक शाह ने जनहित के व्यापक कार्य किए। इसके कुछ प्रमुख कार्यों को निम्न प्रकार समझा जा सकता है—
1. प्रसिद्ध अब्बासी खलीफा हारून अल रशीद तथा मामून के आदर्शों पर चलकर उसने अपने साम्राज्य में कूपों, तालों और नहरों का निर्माण करवाना ।
2. अनेक नए मार्गों का निर्माण करना, पुरानी मस्जिदों का जीर्णोद्धार करना, नयी मस्जिदें बनवाना और हज के लिए जाते हुए कारवाँ को आराम देने के लिए बड़ी संख्या में सराय बनवाना, बाजार की स्थापना करना ।
3. एशिया के विभिन्न शहरों में सुल्तान ने मदरसे, अस्पताल और यतीमखानों का निर्माण करवाया।
4. मलिक शाह की योजनानुसार खलीफा मुक्तीदी ने बगदाद में स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के उद्देश्य से महत्वपूर्ण कार्य करवाना ।
5. लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना l
यद्यपि मलिकशाह कुछ ज्यादा पढ़ा नहीं था, पर वह शिक्षा – साहित्य, ज्ञान-विज्ञान एवं विभिन्न कलाओं का महान संरक्षक था। उनकी सुविधा के लिए उसने साम्राज्य के विभिन्न शहरों में मदरसे स्थापित किये। निजाम-उल-मुल्क ने नीशापुर और बगदाद में 1065 ई. के बीच अपने नाम पर निजामिया मदरसों की स्थापना की। मलिक शाह के शासनकाल में साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान संबंधी विभिन्न विषयों की व्यापक प्रगति हुई। फारसी के विकास में सुल्तान ने विशेष दिलचस्पी दिखलायी। सुल्तान का प्रसिद्ध वजीर निजाम-उल-मुल्क स्वयं एक सुसंस्कृत एवं प्रतिष्ठित विद्वान था। उसके द्वारा फारसी में रचित ‘सियासतनामा’ इस्लामी प्रशासन पर लिखी गयी एक महत्वपूर्ण टीका मानी जाती है। इस दौरान नासिर-ए-खुसरो तथा उमर खैय्याम जैसे साहित्यकारों ने भी कई कृतियों की रचना की। उमर खैय्याम अपने युग का सर्वश्रेष्ठ शायर, गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थी। गजाली भी इस युग का प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं धर्मवेत्ता मलिक शाह ने एक वेघशाला का निर्माण भी करवाया और कुछ खगोलशास्त्रियों की सहायता से उसने तत्कालीन कैलेण्डर में सुधार कर नया कैलेण्डर बनवाया, जो सुल्तान के नाम पर ही जलाली कैलैण्डर के नाम से प्रसिद्ध है। इसका निर्माण निजाम-उल-मुल्क तथा खैय्याम के निर्देशन में किया गया था। आधुनिक विद्वानों इसे आज कैलेण्डर से भी अच्छा मानते हैं।
अंतिम समय पहले तो मलिक शाह का शासनकाल काफी अनुशासित था, पर कट्टर शियापंथियों का एक दल हसन सबा के नेतृत्व में बहुत ही शक्तिशाली रूप में उभरा। प्रारम्भ में सलजुक शासक के साथ इस दल का अच्छा संबंध था परंतु शीघ्र ही किन्तु जल्द ही यह दल सलजुक शासन का कट्टर विरोधी हो गया। इसी दल के एक व्यक्ति ने 1092 ई. में वजीर-उल-मुल्क की हत्या का दी। वजीर की हत्या के संदर्भ में इतिहासकार सुल्तान की भूमिका को लेकर असमंजस में हैं किन्तु वजीर की हत्या के अभी दो महीने भी नहीं बीते थे कि सुल्तान की भी मृत्यु हो गई। इस दौरान उसकी उम्र मात्र 39 वर्ष थी।
सलजुक साम्राज्य का पतन (Fall of Seljuk Empire)
मलिक शाह के बाद सलजुक वंश में कोई ऐसा शासक नहीं हुआ, जो इस विशाल साम्राज्य की आन को बचाए रख पाता। इसकी शक्ति की मूल कड़ी उसका मंत्री निजाम-उल-मुल्क था। उसकी मृत्यु के साथ ही सलजुक साम्राज्य पतन के मार्ग पर चल पड़ा। अब तक के तीन सलजुक सुल्तानों के शासनकाल में सलजुक साम्राज्य की जो प्रगति देखने को मिली, 1092 ई. के बाद वह ठप्प पड़ गयी। उल्लेखित सुल्तानों ने उन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिए, जो कभी इस्लामी साम्राज्य के अंग रह चुके थे, इस्लाम के गौरव एवं प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि की थी। किन्तु इस्लामी इतिहास में सलजुक शक्ति का उत्कर्ष अत्यन्त क्षणिक सिद्ध हुआ। इसके पतन में मलिक शाह के उत्तराधिकारियों का सत्ता संघर्ष विशेष रूप से उत्तरदायी था। साम्राज्य में विकेंद्रीकरण की भावना तीव्र होती चली गयी। सुल्तान महमूद, बरक्यारूक, मोहम्मद आदि सलजुक शासक इतने प्रभावहीन साबित हुए कि साम्राज्य टूटता चला गया। मौके का लाभ उठाकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र होते गए। निःसंदेह सलजुकों की प्रधान फारसी शाखा ने 1157 ई. तक विघटित राज्य पर किसी-न-किसी तरह अपना आधिपत्य स्थापित रखा, किन्तु यह केवल नाममात्र का था। रूमी राज्य की सत्ता लगभग 1300 ई. तक बनी रही। उत्कर्ष काल में इस्लामी इतिहास का अन्तिम शक्तिशाली सम्राट राजनीतिक शक्ति का प्रतीक माना जाता है। ऑटोमन तुर्की ने एक अत्यन्त विस्तृत एवं शक्तिशाली इस्लामी साम्राज्य की स्थापना की जिसका अस्तित्व प्रथम विश्वयुद्ध तक था। उधर मुजाहिदों ने सलजुक राज्य के बचे हुए क्षेत्रों को भी जीत लिया। सुल्तान बरक्यारूकं उनकी बढ़ती हुई शक्ति को रोक नहीं सका। ख्वारिज्म के शासक और अन्तिम सलजुक सुल्तान तुगरिल के बीच 1194 ई. में संघर्ष हुआ जिसमें तुगरिल हार गया। इस तरह से इराक और कुर्दिस्तान में बचे हुए सलजुक राज्य का भी अवसान हो गया। कालांतर में चंगेज खाँ और तार्तार आक्रमणकारियों ने न सिर्फ अब्बासी साम्राज्य का, बल्कि सलजुक सत्ता का अस्तित्व भी समाप्त कर दिया।
पतन के प्रमुख कारण (Major Causes of Failure)
सलजुंक साम्राज्य के पतन के लिए निम्नलिखित कारणों को जिम्मेदार माना जाता है—
1. जागीर – प्रथा का प्रारम्भ-मलिक शाह के वजीर निजाम-उल-मुल्क ने अपने प्रभुत्व काल में जांगीर की प्रथा को काफी प्रोत्साहित किया था। सैनिक अधिकारियों को नकद वेतन न देकर बड़ी जागीरें दी जाने लगी थीं। इस जागीरों पर वंशानुगत अधिकार की व्यवस्था को मान्यता दे दी गयी। परिणामस्वरूप जागीर-प्राप्त सैन्य अधिकारी अपने-अपने जागीरों में सरदार बन गये । इस प्रकार साम्राज्य में अनेक अर्ध-स्वतंत्र राज्य स्थापित हो गये, जो कालांतर में मौका मिलने पर स्वतंत्र हो गए।
2. गृह युद्ध का प्रारम्भ-मलिक शाह के पुत्रों में उत्तराधिकारियों को लेकर युद्ध छिड़ गया ! मलिक शाह के बाद उसका नाबालिग पुत्र महमूद सम्राट बना। जल्द ही उसके बड़े भाई बरक्यारूक ने उसे चुनौती दी । इराक और खुरासान की समस्या उनके बीच संघर्ष का प्रमुख कारण बना। इस संघर्ष ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ‘हत्यारों के दल’ के नेता हसन सबा की शक्ति एवं प्रभाव में और भी वृद्धि कर दी। इस उत्तराधिकार के संघर्ष ने सलजुक साम्राज्य की कमजोरियों को उजागर कर दिया ।
3. शियाई हत्यारे दल का प्रभाव – इस दल ने हसन सबा के नेतृत्व में काफी तरक्की की । जल्द ही उत्तरी फारस, इराक तथा सीरिया के अनेक क्षेत्रों और दुर्गों पर इस दल का अधिकार हो गया। इनके द्वारा अब बड़े-बड़े राजनेता और अधिकारियों की हत्या की जाने लगी। इसी गुप्त आंतकी दल द्वारा वजीर निजाम-उल-मुल्क की हत्या की गई, जो सलजुक साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख बना ।
4. जन समर्थन का अभाव – मलिक शाह के उत्तराधिकारियों साम्राज्य की प्रगति अथवा जनहित पर कोई ध्यान नहीं दिया। प्रजा के बीच असंतोष की भावना बढ़ती गयी। साम्राज्य ने जनसमर्थन खो दिया जो कि किसी भी साम्राज्य की नींव होती है।
5. बाह्य आक्रमण- सलजुक साम्राज्य की कमजोर स्थिति को देखकर मुजाहिदों ने इस पर आक्रमण करने शुरू कर दिए। मुजाहिदों के आक्रमणों से सलजुक सुल्तान अथवा अब्बासी खलीफा इस्लामी साम्राज्य की सुरक्षा करने में असमर्थ प्रमाणित हुए। ट्रिपोलो पर जल्द ही मुजाहिदों का अधिकार हो गया। 1111 ई. तक अब्बासी साम्राज्य के एक बड़े भूखंड पर मुजाहिदों ने अधिकार कर लिया।
सलजुक-कालीन सभ्यता-संस्कृति (Civilization and Culture of Seljak Period)
तुगरिल बेग अल्प अर्सलन और मलिक शाह ने सलजुक साम्राज्य को बुलंदियों पर पहुँचाया। सलजुक शक्ति एवं प्रशासन को अच्छे ढंग से संगठित होने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रसिद्ध फारसी वजीर जाम उल मुल्क के निदेशन में साम्राज्य की अद्वितीय प्रगति हुई। आर्थिक दृष्टि से सलजुक साम्राज्य सुदृढ़ हुआ और शिक्षा साहित्य, ज्ञान-विज्ञान एवं विभिन्न कलाओं की व्यापक प्रगति हुई। सलजुक साम्राज्य के लिए मलिक शाह का शासनकाल आर्थिक दृष्टि से ही अच्छा रहा। उसके वजीर निजामत-उल-मुल्क ने साम्राज्य को आर्थिक दृष्टि से परिष्कृत सामंतवादी व्यवस्था के आधार पर संगठित किया। उसने स्वामीभक्त अधिकारियों को उनकी राजकीय सेवा के बदले जागीर देना शुरू किया। अब इन अधिकारियों ने अनुभव किया कि उनकी व्यक्तिगत प्रगति जागीर भूमि के साथ जुड़ी हुई है। अतः जागीरों की देखभाल एवं उनकी सुव्यवस्था के प्रति अब वे सचेष्ट हो उठे। इस प्रकार थोड़े ही प्रयास से निजाम उल-मुल्क ने साम्राज्य की आर्थिक संपन्नता एवं प्रगति को ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। इस वजीर ने साम्राज्य में सभ्यता संस्कृति के क्षेत्र में काफी काम किया। 1065 ई. में उसने निशापुर और जल्द ही बगदाद में निजामिया विश्वविद्यालय की नींव डाली । इस्लाम के इतिहास में इसे प्रथम सुव्यवस्थित संस्थान माना गया है।
वजीर ने लेखकों को भी आश्रय दिया। उसके राजाश्रय में इस्लाम के अन्तिम महान् धर्मशास्त्रवेत्ता गजाली ने नीशापुर में अरबी कृतियों का सृजन किया। उसने धर्मशास्त्र पर अनेक ग्रंथ लिखे। 54 वर्ष की आयु में तुस में 19 दिसम्बर, 1111 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। गजाली के अलावा इस युग का उल्लेखनीय विद्वान प्रसिद्ध गणितज्ञ उमर-अल-खैय्याम था। उसने गणित, ज्यामिति एवं अलजबरा की अनेक पुस्तकें लिखीं। उमर-अल-खैय्याम के निर्देशन में ही मलिक शाह ने जलाली कलैण्डर का बनवाया था।
कहा जा सकता है कि सजलुक काल में साहित्य की रचना हुई। स्थापत्य कला, कला-कौशल, उद्योग-धंधे व्यापार की काफी उन्नति हुई । शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई।
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