सामाजिक परिवर्तन में अध्यापक की भूमिका का वर्णन करें ।
उत्तर – भले ही हमारे शैक्षिक उद्देश्य बहुत उच्च हों, भले ही हमारा पाठ्यक्रय बहुत सोच-विचार के पश्चात् प्रगतिशील बनाया गया हो । भले ही पाठ्य पुस्तकों की विषय-सामग्री राष्ट्रीय समाकलन तथा भावात्मक एकता के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो, परन्तु यदि अध्यापक राष्ट्रीय समाकलन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण तथा उत्साह नहीं दिखाता तो बाकी सब व्यर्थ प्रतीत होता है ।
राष्ट्रीय समाकलन सम्बन्धी जानकारी तथा इस सन्दर्भ में उचित मूल्य निर्माण करने का उत्तरदायित्व केवल सामाजिक विषय पढ़ाने वाले अध्यापक का ही नहीं है, अपितु सभी अध्यापक इसमें अपने उदाहरण से महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। अनेक प्रकार की शैक्षिक क्रियाएँ हैं, जिनमें वे भाग ले सकते हैं ।
ई. डब्ल्यू, गॉर्डन (E. W. Gorden) के कथनानुसार, “अध्यापक का कार्य हैपरिवर्तन के लिए शिक्षित करना, परिवर्तन के द्वारा शिक्षित करना, नियन्त्रित क्रान्ति के लिए शिक्षित करना तथा आवश्यकता पड़ने पर क्रान्तिकारी क्रिया द्वारा शिक्षित करना ।”
सभी अध्यापक दो प्रकार से राष्ट्रीय समाकलन के मूल्यों के विकास में योगदान दे सकते है—
विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों से सामाजिक परिवर्तन में अध्यापक की भूमिका (Role of the Teacher in Social Change through School Programmes)—
- राष्ट्रीय मूल्यों में विश्वास और उत्साह (Faith in National Values and Education)—अध्यापकों में राष्ट्रीय भावना और सहयोग के प्रति विश्वास और उत्साह होना चाहिए, ताकि वे छात्रों तथा अभिभावकों के मन में यह भावना उत्पन्न कर सकें ।
- नवीनता के प्रति उचित दृष्टिकोण (Appropriate Attitude to Change) सामाजिक परिवर्तन के लिए नवीनता के मूल्यों के प्रति अध्यापक का दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए | उसमें ये गुण अवश्य होने चाहिए— (i) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, (ii) गतिशीलता, (iii) परिवर्तन को समझने की क्षमता, (iv) उदार दृष्टिकोण; (v) नवीन विचारों के लिए परख शक्ति ।
- बाधाओं को दूर करने में विश्वास — अध्यापक को विश्वास से काम करना होगा ।
- राष्ट्रीय मूल्यों के सन्दर्भ में पाठ्यक्रम का अर्थ और अभिप्राय समझना (Clear Concept of National Curriculum) – विभिन्न विषय पढ़ाते समय अध्यापकों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि जाति, धर्म, रंग और दूरी लोगों के आपसी सम्बन्धों में बाधक होते हैं ।
- पक्षपातरहित व्यवहार (Fair Treatment) — छात्रों के दिमाग को पक्षपात से दूषित नहीं करना चाहिए । अध्यापकों को तथ्यों की व्याख्या पक्षपातरहित रूप से करनी चाहिए ।
- सामाजिक ज्ञान पढ़ाते समय अध्यापकों का कर्त्तव्य – अध्यापकों को इस क्षेत्र में प्रभावपूर्ण कार्य करना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे छात्रों को मिथ्या प्रचार से सचेत करें, जिससे उनमें पक्षपात जैसी भावना जन्म न ले सके । उन्हें तर्क द्वारा निर्णय करने का भी प्रशिक्षण देना चाहिए ।
- बच्चों के मानसिक स्तर को उठाना (Raising the Mental Level of Students) — वास्तव में युद्ध दिमाग में उपजता है। लड़ाई एक मानसिक दोष है, जिसे मनोविज्ञान में एक रोग कहा गया है। इसलिए सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के लिए आवश्यक है कि अध्यापक छात्रों की ओर अधिक ध्यान दें और स्कूल के पाठ्यक्रम द्वारा उनके मानसिक विकास को स्वस्थ बनाएँ ।
- भावात्मक तथा राष्ट्रीय एकता (Emotional and National Integration)दूसरे राज्यों का भ्रमण और अध्ययन के लिए अध्यापकों को अवकाश, आर्थिक और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ और अध्यापकों के आदान-प्रदान की भी व्यवस्था की जाए ।
- सांस्कृतिक विकास ( Cultural Development) — सभी स्तरों पर सामाजिक ज्ञान पर विशेष बल दिया जाना चाहिए जिससे देश की भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का पर्याप्त ज्ञान हो, सामाजिक ज्ञान में विश्व तथा देश की महान् विभूतियाँ एवं महान् ग्रन्थों का वर्णन होना चाहिए ।
- सामूहिक तथा गतिशील पाठान्तर क्रियाएँ (Collective and Dynamic Co-curricular Activities) — राष्ट्रीय दिवसों एवं पर्वों को सामूहिक रूप में मनाना, खेलकूद, शैक्षिक यात्रा, राष्ट्रीय कैडेट कोर जैसी सैनिक शिक्षा, स्काउटिंग, विभिन्न भागों के विद्यार्थियों के सम्मिलित कैम्प आदि पाठान्तर क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए । ( पूर्व प्रश्न के उत्तर में दिए गए कार्यक्रमों का आयोजन करना ) ।
- राष्ट्रीय एकता (National Integration ) — प्रातः सभा में बच्चों को देश की एकता पर भाषण दिए जाएँ । बच्चे वर्ष में कम-से-कम दो बार शपथ लें, “भारत मेरा देश है तथा सभी भारतीय मेरे भाई-बहन हैं, मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ तथा उसकी सम्पन्न एवं विविध विरासत पर मुझे गर्व है। मैं अपने माता-पिता, अध्यापकों तथा गुरुजनों का सम्मान करूँगा तथा सभी के प्रति सौजन्य दिखाऊँगा। मैं जीवों के प्रति दया करूँगा । मैं अपने देशवासियों के प्रति निष्ठा रखूँगा । उन्हीं की भलाई एवं सम्पन्नता में मेरी भलाई है। “
- अध्यापक की आधुनिक मान्यताएँ तथा आदर्श ( Modern Attitude and Ideals of the Teacher) — सबसे महत्त्वपूर्ण बात है अध्यापक की सामाजिक परिवर्तन में अपनी आस्था तथा उचित दृष्टिकोण । अध्यापक छात्रों के सम्मुख अपने आदर्श रखें, ताकि वे स्वतः उनको अपने जीवन में धारण करें ।
- स्कूल के बाहर अध्यापकों के सामाजिक परिवर्तन सम्बन्धी कार्य (Role of the Teacher in Social Change Outside the School) – समाज के अन्य बुद्धिमान और शिक्षित व्यक्ति की भाँति अध्यापक स्कूल से बाहर भी कार्य कर सकते हैं, जिससे वे सामाजिक जीवन के उपयुक्त बन सकें ।
- स्वास्थ्यवर्द्धक सामाजिक परिवर्तन में विश्वास रखना ।
- ‘एकता में शक्ति है’ इस प्रकार का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए छात्रों को दृष्टान्त देकर प्रेरित करना ।
- देशभक्ति के गीतों पर बल देना |
- सभी धर्मों अथवा वर्गों के त्योहार मनाना तथा इनमें भाग लेने के लिए छात्रों को प्रेरित करना ।
- छात्रों को राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान तथा राष्ट्रीय चिह्नों के प्रति आदर करना सिखना |
- सभी बच्चों के साथ एक जैसा बर्ताव करना अर्थात् ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, की दृष्टि से न देखना |
- समुदाय की सेवा के लिए कार्यक्रमों का आयोजन करना ।
- आरम्भ से ही छात्रों के मन में इस प्रकार की भावनाएँ भरना कि हम भारतीय पहले हैं, बाद में पंजाबी, गुजराती, बंगाली अथवा हिन्दू मुस्लिम आदि ।
‘मेरा देश—सही या गलत’ की भावना अत्यन्त हानिकारक है। यह धारणा बच्चे के. दृष्टिकोण को बहुत ही संकीर्ण बना देती है। जब-जब किसी भी देश में इस प्रकार की भावना का विकास किया गया, संसार के अन्य देशों को और इस प्रकार की भावना का निर्माण करने वाले देश को भयानक परिणाम भुगतने पड़े हैं। संसार में दो विश्वयुद्ध इस संकीर्ण भावना की ही देन हैं | एक विद्वान लॉवीसी (Lovise) का कहना है, “मातृभूमि के प्रति प्रेम की भावना को दृढ़ करना आवश्यक है, परन्तु अपने देश के लाभ की अवहेलना करना ठीक नहीं है।” मानव जाति के विकास में विभिन्न देशों ने विभिन्न प्रकार से योगदान दिया है उसे कभी नहीं भूलना चाहिए ।
अध्यापक का समाज में कम होता स्तर तथा उसका सामाजिक परिवर्तन में सीमित योगदान (Decreasing Status of the Teacher in the Society and His Marginal Role and Responsibilities in Social Change) — अनेक समाजशास्त्रियों के विचार में आज की परिस्थिति में अध्यापकों की भूमिका समाजिक परिवर्तन में सीमित है । एक समय था जबकि अध्यापक का स्थान समाज में ऊँचा था। उसे इतिहास का निर्माता कहा जाता था, परन्तु अब स्थिति इसके विपरीत है । आज समाज में उसे कहने को तो गुरु का दर्जा दिया जाता है, परन्तु वास्तविक स्थिति कुछ और ही है। इसमें सन्देह नहीं कि आज समाज के मध्यम वर्ग से सम्बन्धित पुरुष सामान्यतः अध्यापक बनना नहीं चाहते । इस पेशे में अब न तो उचित मान रह गया है और न ही आय। कक्षाओं में इतने छात्र होते हैं कि अध्यापक-छात्र के व्यक्तिगत सम्पर्क के लिए बहुत ही कम समय मिलता है ।
प्राचीन काल में ज्ञान का साधन अकेला शिक्षा ही हुआ करता था । कम्प्यूटर द्वारा अनेक प्रकार का ज्ञान मिल जाता है। प्राथमिक कक्षाओं में अवश्य छात्र अध्यापक का उचित आदर करते हैं।
प्राचीन काल में प्राय: छात्र एक ही अध्यापक (गुरु) से सम्पूर्ण शिक्षा प्राप्त करते थे । वह ही छात्र का धर्मगुरु था अर्थात् आध्यात्मिक विकास का मार्ग दर्शाता था, परन्तु आज कक्षा एक से लेकर कक्षा बारह तक एक छात्र बारह से भी अधिक अध्यापकों से शिक्षा ग्रहण करता है। उसी मात्रा में एक छात्र का अपने अध्यापक के प्रति मान-सम्मान कम हो जाता है ।
आज दूरदर्शन, रेडियो तथा सम्पूर्ण मीडिया (Media) का बहुत प्रभाव पड़ रहा है। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि आज अध्यापक की भूमिका समाज परिवर्तन से सीमित है |
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