सृजनात्मकता के विकास में अध्यापक की भूमिका का वर्णन करें।

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प्रश्न – सृजनात्मकता के विकास में अध्यापक की भूमिका का वर्णन करें। 
(Describe the role of the teacher in nurturing of creativity.)

उत्तर – ऐसा अनुभव किया जाता है कि कक्षा वातावरण को उपयुक्त बना कर शिक्षक विद्यार्थियों की सृजनात्मकता का विकास कर सकते हैं लेकिन, कुछ शोध निष्कर्षों के आधार पर यह देखा गया है कि सृजनात्मकता के लिये, शैक्षिक कार्यक्रमों के अभाव में, कक्षा में दिया जाने वाला सृजनात्मक प्रोत्साहन, सृजनात्मकता के विकास को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षकों को सृजनात्मक शिक्षण करना चाहिये तथा इस योग्यता के विकास के लिये अलग से भी प्रयास करना चाहिये ।

सृजनात्मक शिक्षण लचीला, कल्पना प्रधान, समन्वयात्मक, स्वनिदेशन पर बल देने वाला व चुनौतीपूर्ण होता है। अभिप्रेरणा, उद्दीपन, पूछताछ तथा अन्वेषण शिक्षण विधि के आधर स्तम्भ हैं। शिक्षण प्रश्न पूछने, उत्तर निकलवाने, सुझाव देने, संकेत देने, विकल्पों की ओर ध्यान आकृष्ट करने व समन्वय करने की कला बन जाता है। इससे सम्बन्ध, रूपान्तरण, संश्लेशण व अपसारी चिन्तन की योग्यताओं को बढ़ावा मिलता है तथा सामग्री व विचारों के अनोखे उपयोग खोजने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। शिक्षक उपयुक्त वातावरण का सृजन करता है, चुनौतीपूर्ण अनुभव प्रदान करता है तथा अधिगम अनुभवों को निर्देशित करता है। सीखने का उत्तरदायित्व बालक पर होता है। शिक्षण की प्रक्रिया तब सृजनात्मक होती है जब व्यक्ति अपनी शिक्षण प्रविधियों व योजनाओं में सुधार की आवश्यकता अनुभव करता है तथा एक समस्या का समाधान करते समय अनेक विकल्पों पर विचार करता है। साथ ही, अपने शैक्षिक अध्ययन व प्रत्यक्ष अनुभवों से प्राप्त ज्ञान व सूझ का प्रयोग करता है। शिक्षक विद्यार्थियों को समस्या का परिचय प्राप्त करने के लिए अवसर देता है व परिचय के आधार पर समस्या परिस्थिति को शब्दों में व्यक्त करने के लिए समय प्रदान करता है। शिक्षक सामग्री उपलब्ध कराता है तथा विचारों को सुस्पष्ट बनाने के लिए समय देता है। वह बालकों को उचित सूझों की तुलना करने का अवसर देता है तथा अधिक संघर्ष करने के बाद बालक समाधान खोज पाता है। इस समाधान को परिष्कृत करने व पूर्ण बनाने में बालकों को कठिनाई अनुभव होती है व शिक्षक इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित करता है। परिणामस्वरूप, विद्यार्थी अपने सृजनात्मक उत्पाद को विश्वासपूर्वक व्यक्त करते हैं।

कुछ नया सृजन करने की योग्यता तथा श्रेष्ठ विचार जो हमारी समस्याओं के समाधान में सहायक हों, सृजनात्मक चिन्तन कहलाता है तथा इस योग्यता के विकास के प्रयास विद्यार्थियों में प्रारम्भिक अवस्था में किये जाने चाहियें | टोरेन्स (Torrance) कहता है कि इस बात में कोई शक नहीं है कि बाल्यावस्था, सृजन की सर्वश्रेष्ठ अवस्था है। बहुत से उदाहरण साक्षी हैं— न्यूटन (Nweton), जेम्स हिल्स (James Hills), पास्कल (Pascal), कार्ल फ्रेडरिक (Carl Friedriech), गॉस (Gauss), सेमुअल (Sammuel Colt) आदि।

कक्षा में परम्परागत शिक्षण छात्रों में उकताहट पैदा करता है। वर्तमान शैक्षिक प्रक्रिया मुख्यतः बालक की ज्ञानात्मक तथा स्मृत्यात्मक पहलुओं पर ही केन्द्रित है। उत्पादकता (Productive) तथा मूल्यांकन सम्बन्धी पहलुओं की उपेक्षा की जाती है। जासेफ तथा बेंटली (Joseph and Bently, 1966) के अनुसार, सृजनात्मक फलाँक तथा उपलब्धि फलाँक Divergent thinking तथा Evaluative scores के साथ सार्थक रूप में उच्च स्तरीय सह-सम्बन्ध रखते हैं जबकि, सृजनात्मक फलाँक, स्मृति फलाँक से कोई सम्बन्ध नहीं रखते है। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि चूँकि वर्तमान परीक्षा पद्धति स्मृति तथा ज्ञान पर अधिक बल देती है अतः इसके माध्यम से सृजनशील विद्यार्थी को अनजाने ही दंडित किया जाता है। विगत विर्षों में शिक्षा सुधार हेतु अनेक सुझाव दिये गये हैं। शिक्षा आयोग की कुछ सिफारिशें भी लागू की गई हैं।

बहुत-सी चीजें हम विकसित देशों से प्राप्त करते हैं। लेकिन, प्रजातान्त्रिक या समूह तरीके अभी भारत में ठीक से नहीं अपनाये गये हैं। छात्रों को कक्षा में विकसित देशों की तरह स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की जाती, जिसके कारण छात्र कक्षा गतिविधियों में भाग नहीं लेता, वह चुपचाप बैठा रहता है, उसे प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं दी जाती है और यदि वह साहस करके कुछ पूछ बैठता है तो उसे ‘समस्यात्मक बालक’ (Problematic) की संज्ञा दे दी जाती है। अध्यापकों को आधुनिक समूह प्रविधियों जैसे, seminar, symposium] discussion, panel discussion, workshop आदि से अवगत कराना इसी दृष्टि से आवश्यक समझा जाता है।

सृजनात्मक चिन्तन कई प्रकार का हो सकता है, जैसे— संगीत, कला, पेन्टिंग, साहित्य अथवा विज्ञान सम्बन्धी तथा इनका मापन भी सम्भव है। एक पुरानी धारणा थी कि बुद्धि में सृजनात्मक चिन्तन भी शामिल है लेकिन, आधुनिक धारणा के अनुसार बुद्धि-परीक्षण सृजनात्मक चिन्तन का मापन नहीं कर सकते तथा I.Q. व Creativity scores में बहुत कम स्थायी धनात्मक सह-सम्बन्ध होता है। इसका अर्थ यह है कि यद्यपि सृजनात्मक चिन्तन के लिये थोड़ी बुद्धि की आवश्यकता जरूर पड़ती है लेकिन, उच्च सृजनशीलता के लिए उच्च बुद्धि का होना आवश्यक नहीं है। यह भी देखने में आया है कि व्यक्ति में सृजनशीलता normally distributed होती है। इस दृष्टि से, प्रत्येक व्यक्ति कम या अधिक सृजनशील अवश्य होता है। वर्तमान समय में सृजनात्मकता के सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय तथ्य यह सामने आया है कि व्यक्ति में मानसिक योग्यता स्वेच्छा (deliberately) से विकसित की जा सकती है। प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि एक सृजनशील व्यक्ति selfactualising तथा सामान्यतः मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। पिछले दो दशकों में विद्यार्थियों तथा वयस्कों में स्वेच्छा से इस योग्यता के विकास के लिये अनेक प्रयोग सफलतापूर्वक प्रयोग में लाये गए।

सृजनात्मकता के विकास में अध्यापक के दृष्टिकोण तथा उसके व्यक्तित्व की विभिन्न विशेषताओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। वोडके तथा वालेन (Wodtke and Wallen, 1965) के अनुसार – अध्यापक का उच्च स्तरीय व्यवहार नियन्त्रण बच्चों में शाब्दिक चिन्तन की वृद्धि करता है। इसी प्रकार टोरेन्स (Torrance, 1966 ) ने कहा कि जो अध्यापक अपनी कक्षा पर प्रभुत्व बनाये रखते हैं, उनके विद्यार्थियों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास होता है।

सृजनात्मकता के विकास की दृष्टि से लॉस एंजेल्स (Los Angels) में दक्षिणी केलीफोर्निया विश्वविद्यालय में जे०पी० गिलफर्ड ने अपने साथियों के साथ मनुष्य की बुद्धि का सामान्य तौर पर विश्लेषण करने के लिये मनोमिति विधियों (Psychometric) का प्रयोग किया। साथ ही, उन मानसिक योग्यताओं का भी पता लगाने का प्रयास किया जो प्रभावी सृजनात्मक चिन्तन की दृष्टि से प्रत्यक्ष रूप में योगदान रखतीं हैं। पिछले दो दशकों से साल्ट लेक सिटी, ऊटाह (Salt Lake City, Utah) में इस बात के प्रयास किये जा रहे हैं कि किस प्रकार मनोवैज्ञानिक तथा दूसरे अनुसन्धान परिणामों का प्रयोग एक नये शिक्षा सिद्धान्त के विकास के लिये किया जा सके, जिसका केन्द्र बिन्दु अथवा मुख्य विषय सृजनात्मक हो। केल्विन टेलर (Calvin W. Taylor) के निर्देशन में यह ऊटाह समूह, सक्रिय रूप में इस कार्य से जुड़ा हुआ है तथा राष्ट्रीय विज्ञान आधारशिला (National Science Foundation) के तत्त्वाधान में सृजनात्मक अनुसन्धान गोष्ठियों (Creativity Research Conferences) की एक श्रृंखला का आयोजन भी किया जाता रहा है। पॉल टोरेन्स (Paul Torrance) जो जार्जिया (Georgia) विश्वविद्यालय में अमेरिका में शिक्षा मनोविज्ञान के प्रोफेसर रहे हैं तथा जिनकी गिनती सृजनात्मकता सम्बन्धी अनुसन्धान कार्यों में सबसे अग्रणी पंक्ति में की जाती है, इस कार्य में निरन्तर रूप से लगे हुए हैं तथा उनका उद्देश्य शैक्षिक प्रक्रिया में सृजनात्मक क्षमताओं को विकसित करना है।

सृजनात्मक के विकास में जो मुख्य बाधा है, वह है सृजनशील बालकों को ठीक प्रकार से दिशा निर्देशन प्राप्त कराना तथा प्रशिक्षण प्रदान करना। इस दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक कोई परीक्षण प्रारूप (Testing programme) निश्चित नहीं हो पाया है। यदि सृजनशील बालकों का पता उचित परीक्षणों को प्रशासित करने पर चल जाये, तब निश्चित रूप से आसानी से ऐसे बालकों को शैक्षिक निर्देशन एवं परामर्श दिया जा सकता है। इस दिशा में नये परीक्षण तैयार करने के लिये फिर से प्रयास शुरू किये जाने चाहियें अथवा जो पहले से ही उपलब्ध परीक्षण हैं, उन्हें देश के सभी भागों में प्रयोग में लाया जाये।

अध्यपकों का भी यह कर्त्तव्य है कि वह यह देखें कि सृजनशील विद्यार्थियों को कक्षा में किसी भी प्रकार से हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिये। आज भारतवर्ष को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सृजनशील वैज्ञानिकों एवं सृजनशील नेताओं की आवश्यकता है। अतः सभी योग्य व्यक्तियों को, चाहे वे जीवन की किसी भी धारा से सम्बद्ध क्यों न हों, अपने तरीके से आगे बढ़ने के लिये सभी प्रकार की सुविधाएँ एवं प्रोत्साहन दिये जायें। यही एकमात्र उपाय है जिसके द्वारा ‘प्रतिभा का पलायन’ (Brain-Drain) होने से बचा जा सकता है।

संक्षेप में, बच्चों की सृजनात्मकता को बढ़ाने के उपाय निम्नलिखित हैं –

बच्चों में सृजनात्मकता का स्वरूप आन्तरिक होता है लेकिन यह तभी विकसित हो पाता है जब इसे उचित वातावरण प्रदान किया जाता है। सृजनात्मकता के बारे में दूसरा तथ्य में यह है कि विभिन्न प्रकार के बालकों में सृजनात्मकता भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। विद्यालय तथा परिवार को बच्चों के सृजनात्मक स्तर को बढ़ाने के लिये निम्नलिखित उपाय करने चाहियें –

  1. सृजनात्मकता का सम्बन्ध अहं से होता है अतः परिवार एवं विद्यालय को बच्चों के इस अहं को संतुष्ट करने के अवसर प्रदान करने चाहिये ।
  2. बालक जिस वातावरण में रहता है वह बालक को कुछ नया करने के लिये प्रेरित करने वाला होना चाहिये।
  3. बच्चों को कुछ ऐसे स्थानों पर ले जाना चाहिये जहाँ कुछ सृजनात्मक कार्य किये जा रहे हों।
  4. बच्चों में कुछ ऐसे गुण विकसित किये जाने चाहिये जैसे—आम-विश्वास, आत्म-निर्भरता आदि।
  5. किसी भी प्रकार का क्रियात्मक कार्य करने में बालक को स्वतन्त्र अवसर प्रदान • किये जाने चाहियें।
  6. बच्चों की मौलिक विचारों एवं क्रियाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  7. बच्चों में किसी भी प्रकार की हिचक व भय को दूर करने के प्रयास किये जाने चाहियें।
  8. बच्चों को किसी भी प्रकार के तनाव, चिन्ता, द्वन्द्व से दूर रखना चाहिये ताकि वे सृजनात्मक कार्य पूर्ण आत्म-विश्वास से कर सकें।
  9. स्कूलों में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पाठ्य सहगामी क्रियाओं का भी आयोजन करना चाहिये तथा इन क्रियाओं में छात्रों को स्वतन्त्र दायित्व सौंपे जाने चाहियें। हैं,
  10. आज के समय में सृजनात्मक विकास हेतु नवीन प्रविधियाँ विकसित की जैसे—खेल तकनीक, ब्रेन स्टॉर्मिंग आदि । अभिभावकों एवं शिक्षकों को इन प्रविधियों का प्रयोग करना चाहिये ।
  11. यह भी आवश्यक है कि अभिभावक एवं शिक्षक सृजनात्मकता के विकास हेतु आवश्यक सामग्री भी बच्चों को उपलब्ध करायें।

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