कक्षा परिस्थितियों में छात्रों को किस प्रकार अभिप्रेरित किया जाए ?

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प्रश्न – कक्षा परिस्थितियों में छात्रों को किस प्रकार अभिप्रेरित किया जाए ?
(How to motivate students in classroom situation.)
उत्तर – फ्रेन्डसन ने कहा है कि, “प्रभावी अधिगम प्रभावशाली प्रेरणा पर निर्भर करता है । ” जितनी अच्छी प्रेरणा होगी उतना ही बेहतर सीखना । अतः, शिक्षक को कक्षा में छात्रों को प्रेरित करने में निम्नलिखित विधियाँ अपनानी चाहिए –
  1. पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment) — छात्रों को प्रेरित करने की यह एक प्रमुख प्रविधि है । इस प्रविधि के अनुसार अच्छे कार्यों के लिए छात्रों को पुरस्कार दिया जाना चाहिए तथा गलत कार्यों के लिए दण्ड दिया जाना चाहिए । पुरस्कार एवं दण्ड देते समय शिक्षक को पक्षपात नहीं करना चाहिए। साथ ही, पुरस्कार अधिक महँगा न हो जो विद्यार्थी में लालच उत्पन्न करे तथा दण्ड देते समय छात्र को उसका कारण बता देना चाहिए तथा उतना ही दण्ड दिया जाए जितनी छात्र ने गलती की है। पुरस्कार के रूप में इनाम, मेडल, धन, पीठ थपथपाना आते हैं। पुरस्कार मधुर स्मृति जोड़ता है तथा दण्ड घृणा । अतः, पुरस्कार से ही काम चलाना चाहिए । दण्ड का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर ही किया जाए। वैसे इन दोनों का उद्देश्य भावी व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालना ही है, फिर भी, पुरस्कार को अधिक प्रभावी माना गया है । कहा भी गया है कि — ” पुरस्कार प्रदान करने में फल, साधन की श्रेष्ठता सिद्ध करता है । ”
    इसी प्रकार, रोविन्सन स्मिथ (Robinson Smith) लिखते हैं कि –“वास्तविक समस्या कृत्रिम पुरस्कारों को समाप्त करने की नहीं अपितु उन्हें इस प्रकार साधन बनाने तथा प्रदान करने की है ताकि पुरस्कार प्राप्त करने के लिए छात्रों के उच्च उद्देश्यों को प्रभावित किया जा सके । “
    पुरस्कार एवं दण्ड के सापेक्षिक महत्त्व को और अधिक स्पष्ट करते हुए जे० पी० सेवार्ड (J. P. Savard) लिखते हैं कि, “पुरस्कार एवं दण्ड, दोनों का उद्देश्य एक ही है, अर्थात् भावी व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालना । लेकिन दोनों प्रविधियाँ अलग-अलग हैं। पुरस्कार व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालने के लिए कार्य के साथ ‘मधुर स्मृति’ जोड़ता है और दण्ड अवांछित कार्य को रोकने के लिए ‘अप्रिय अनुभूति’ जोड़ता है।” साथ ही, यह भी एक भ्रम है कि दण्ड जितना कठोर होगा उतना ही प्रभावी होगा ।
  2. प्रशंसा एवं निन्दा (Praise and Blame) – यह प्रविधि भी पुरस्कार एवं दण्ड के समान है। इस प्रविधि में अच्छे कार्यों के लिए छात्र की प्रशंसा करनी चाहिए तथा बुरे कार्यों के लिए उसकी निन्दा करनी चाहिए । इस प्रविधि के प्रयोग में भी अध्यापक या दुर्भावना से काम नहीं लेना चाहिए । प्रशंसा प्राप्त होने पर छात्र गर्व महसूस करता है तथा अपने साथियों के बीच निन्दा होने पर वह दुःखी होता है । कोई भी छात्र निन्दा नहीं चाहता । शोध कार्यों से पता चला है कि लड़के तथा लड़कियों में लड़कियाँ निन्दा से घबराती हैं, पिछड़े बालक तथा मेधावी बालकों में मेधावी छात्र निन्दा से तिलमिलाते हैं, नर्सरी स्कूल के छात्रों पर निन्दा का असर कम पड़ता है, प्राइमरी स्तर के बालकों पर प्रशंसा एवं निन्दा का लगभग बराबर असर पड़ता है, अन्तर्मुखी तथा बहिर्मुखी छात्रों में से अन्तर्मुखी छात्र निन्दा से और टूट जाते हैं। इस प्रकार, शिक्षक को छात्रों की अधिक निन्दा नहीं करनी चाहिए। साथ ही, प्रशंसा करने में उसे व्यक्तित्व विभिन्नताओं का ध्यान रखना चाहिए । सीमित योग्यता के कारण साधारण छात्र की प्रशंसा श्रेष्ठ छात्रों की अपेक्षा कम कठिन कार्यों पर ही कर देनी चाहिए । लेकिन श्रेष्ठ छात्र अपनी योग्यता के अनुकूल कठिन कार्य करें वे तभी प्रशंसा के पात्र होंगे । इस प्रविधि में यह भी महत्त्व रखता है कि प्रशंसक कौन है। व्यक्ति उसकी प्रशंसा का मूल्य अधिक समझता है जिसका वह आदर करता है तथा जिसको वह अपने कार्य को भली-भाँति समझने और उसका निर्णय करने का अधिकारी मानता है। विद्यार्थी अपने साथियों की अपेक्षा अपने उस अध्यापक की प्रशंसा से बहुत प्रेरणा पाता है जिसका वह सम्मान करता है । निन्दा को नकारी प्रेरक माना गया है। न्यायोचित न होने पर निन्दा प्रभावहीन होती है । इसका प्रयोग कम ही करना चाहिए ।
    According to Frendsun, “Use of Praise and Blame al proper place and time, may prove an imporotant factor for motivation.”
    According to Wheat, “Praise for success and Blame for failure are more effective than indiscriminate Praise and Blame.”
  3. सफलता व असफलता (Sucess Vs Failure)– जीवन एक संघर्ष है। हर प्राणी को सफलता व असफलता जीवन में दोनों प्राप्त होते हैं। सफलता मिलने पर व्यक्ति आगे बढ़ता है लेकिन बार-बार असफल होने पर उसका मनोबल टूट जाता है तथा वह है होकर अपनी मंजिल से दूर भागने की कोशिश करता है। ऐसी स्थिति में शिक्षक विद्यार्थी को समझाए कि वह अपने मानसिक स्तर के अनुकूल ही लक्ष्य निर्धारित करे तथा असफल होने पर पुनः और अधिक प्रयास के साथ आगे बढ़े। छात्र को असफलताओं को सफलता के मार्ग में बाधा न मानकर पड़ाव समझना चाहिए, ठीक उसी प्रकार जैसे दूर का राही अपनी मंजिल पर पड़ावों पर थोड़ी-थोड़ी देर रुक कर आगे बढ़ता है। इसलिए फ्रेण्डसन ने लिखा है –
    “Successful attempts of learning compel (motivate) more to learn.”
    साथ ही, स्कूल को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वहाँ स्कूली कार्यों में इतनी विविधता हो कि विद्यार्थी अपनी रुचि के विषय या कार्यकलापों को अपनाकर उसमें अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सके । इसीलिए बर्नार्ड लिखते हैं कि—
    “School programme should be sufficiently varied so that every pupil has a chance to succeed at his ownrevel.”
    लक्ष्य प्राप्ति में सफलता, असफलता का काफी हाथ रहता है। व्हीट ने लिखा है— “यदि असफलता को भली-भाँति समझ लिया जाए तो यह अधिक प्रयत्न के लिए चुनौती देती है। यदि सफलता को भली-भाँति समझ लिया जाए तो यह और अधिक प्रयत्न करने के लिए चुनौती का काम करती है….. शिष्य, सफलता-असफलता के बारे में जो कुछ जानता या समझता है उसी से आगे उसे अधिगम की प्रेरणा मिलती है । “
    सुख-दुःख के सिद्धान्त के अन्तर्गत हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की यह इच्छा रहती है कि उसे हमेशा सुख ही मिले, दुःख न मिले लेकिन यह असम्भव है । वस्तुतः ये दोनों व्यक्ति के विचार में निहित होते हैं । आशावाद – निराशावाद उसके दृष्टिकोण का अंग होते हैं। इसीलिए गिलास में कम पानी होने पर एक व्यक्ति कहता है कि गलास आधा खाली है तो दूसरा उसे आधा भरा मानता है। यही बात शेक्सपियर कहते हैं—
    Nothing is good or bad but thinking makes it so.”
    यही बात गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में कही है
    “जाकी रही भावना जैसी, प्रभूत मूरत देखी तिन तैसी”
    उपरोक्त सत्य को जानते हुए भी व्यक्ति सदैव सुख की कामना करता है और वे ही कार्य करता है जो उसे सुख प्रदान करें। अभिप्रेरणा का यही सिद्धान्त है । यही भावना मनुष्य को प्रेरणा देती है ।
  4. प्रतियोगिता एवं सहयोग (Competition and Co-operation) — आज का युग प्रतियोगिता का युग है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा है। प्रतियोगिता एक अच्छा प्रेरक है । इस भावना से प्राणी चिन्तित होकर अपने कार्य को मेहनत से करता है ताकि वह पिछड़ न जाए । प्रतियोगिता दो प्रकार की होती है— व्यक्तिगत तथा सामूहिक । व्यक्तिगत में छात्र अपनी तुलना स्वयं से ही करता है या दूसरे विद्यार्थी से। जैसे राम ने तिमाही परीक्षा में 60% अंक पाये हैं तो वह छमाही में 70% लाना चाहता है या दूसरे विद्यार्थी श्याम से आगे निकलना चाहता है। सामूहिक प्रतियोगिता का स्वरूप बड़ा होता है। इसमें शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिए कि छात्रों में मनमुटाव न हो, साथ ही, उसे भी पक्षपात से बचना चाहिए । अन्यथा इस प्रविधि का एक दूसरा ही रूप हमारे सामने आएगा और वह होगा घृणा और ईर्ष्या का, जिससे व्यक्ति असामाजिक बन सकता है ।
    इसी प्रकार, आज के युग में बिना सहयोग के मनुष्य कार्य नहीं चला सकता । मिलजुल कर कार्य करने का कार्य आसानी से पूरा हो जाता है तथा अधिक परिश्रम भी नहीं करना पड़ता । बालक प्रारम्भिक अवस्था से ही सुरक्षा, प्यार, स्नेह पाता है, अतः वह समझ जाता है कि दूसरों से सहयोग जीवन को बेहतर बनाता है । Hierarchical Theory of Motivation के अनुसार मनुष्य संसार में किसी का बनना चाहता है या किसी को अपना बनाना चाहता है | प्रेरक प्रतियोगिता से कहीं अधिक स्वाभाविक है । ऐसे व्यक्ति बहुत कम हैं जो प्रतिस्पर्धा को सहयोग से अधिक महत्त्व देते हैं। वास्तव में अगर देखा जाए तो समाज का आधार ही सहकारिता है।
    “Friendly competition is a better source of Motivation.”—J.P. Millar
    “Competition has been used a motivational influence during the entire history of Pedagogy.”  – Vaughn and Diseren
    “Learning in group seems to be superior to learning in isolation. Group dynamics will be adversly affected when there are vast differences in the motives of members of the group. Children are more co-operative, show more initative, quarrel less and display less friction and hostility in a democratic group.” —A. I. Gates
  5. प्रगति का ज्ञान (Knowledge of Progress ) – प्रगति का ज्ञान होते रहने से व्यक्ति को आगे बढ़ने में निरन्तर प्रोत्साहन मिलता रहता है। उसे आत्मविश्वास हो जाता है कि निर्धारित समय सीमा में उसने कितना कार्य समाप्त कर लिया है और कितना कार्य अभी करना शेष है। प्रगति का लेखा-जोखा आँखों के सामने रहने से व्यक्ति धैर्यपूर्वक अपने कार्य में लगा रहता है। थार्नडाइक व जड़ ने अपना एक प्रयोग बॉडीबिल्डर्स पर किया । उन्होंने इन्हें दो वर्गों में विभक्त किया। एक वर्ग को सामान्य तरीके से अभ्यास कराया गया तथा दूसरे वर्ग को एक ऐसी मशीन के सामने खड़ा करके अभ्यास कराया गया जिसमें शीशा लगा था। शीशे में बॉडीबिल्डर अपने शरीर की प्रगति साफ देख सकता था। निष्कर्ष रूप में दूसरे की प्रगति पहले वर्ग की तुलना में 20 से 40% तक अधिक देखी गई । एक ऐसा ही प्रयोग ब्रीन (Brien) ने किया। उन्होंने कक्षा 8 के छात्रों को (Speedy  Pronunciation का अभ्यास उनके सामने एक चार्ट रखकर 28 दिनों तक कराया । देखने में आया कि इससे छात्रों के ज्ञान में 20% तक की वृद्धि हुई । अतः, किसी विषय में छात्रों को किस सीमा तक प्रेरित किया जा सकता है इसके लिए यह आवश्यक है कि छात्रों का उनके द्वारा की गई प्रगति का ज्ञान करा दिया जाए । इससे छात्र क्रियाशील बनते हैं तथा उन्हें पुनर्बलन तथा पृष्ठपोषण भी मिलता है जो उन्हें लक्ष्य प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है । इसी के अनुरूप आजकल विद्यालयों में छात्रों के प्रगति पत्र बनाए जाने लगे हैं । इससे छात्र व अभिभावक दोनों सजग रहते हैं। स्किनर ने वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की इस कमी की ओर ध्यान दिलाया कि स्कूलों में शिक्षक द्वारा छात्रों के अपेक्षित व्यवहारों का पुनर्बलन नहीं किया जाता । इसीलिए उसने शिक्षण मशीन का आविष्कार किया जिसमें सही अनुक्रिया का तुरन्त पुनर्बलन किया जाता है तथा छात्र को भी यह पता चल जाता है कि उसने सही उत्तर दिया है अथवा गलत । अभिक्रिमित अनुदेशन इसी दिशा में एक कदम है ।
  6. आकांक्षा का स्तर (Level of Aspiration ) – यह प्रविधि एक प्रकार से सफलता व असफलता प्रविधि पर आधारित है। बार-बार सफलता मिलने पर व्यक्ति का आकांक्षा स्तर ऊँचा होता चला जाता है तथा बार-बार असफलता मिलने पर व्यक्ति का आकांक्षा स्तर गिरता चला जाता है। व्यक्ति में आकांक्षाएँ एक जैसी नहीं होतीं । कोई सुख-शान्ति में रहना चाहता है तो कोई विशाल सम्पत्ति का मालिक बनना चाहता है। कोई दोनों वक्त पेट भरकर खाना और तन ढाँकने को कपड़ा चाहता है तो कोई कोठी, कार, नौकरर-चाकर, लाखों के बैंक बैलेंस से भी संतुष्ट नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति का, साथ ही, कोई न कोई जीवन लक्ष्य भी होता है । जीवन लक्ष्य एक होने पर आकांक्षा स्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न होते हैं। जैसे—दो छात्रों का लक्ष्य शिक्षक बनना तो है लेकिन एक प्राइमरी स्कूल के शिक्षक बनने में ही संतुष्ट है तो दूसरा विश्वविद्यालय स्तर पर पहुँचने की आकांक्षा रखता है आकांक्षा स्तर का प्रत्यय कर्ट लेविन की देन है। उसके अनुसार — “आकांक्षा स्तर किसी जाने-पहचाने कार्य के सन्दर्भ में व्यक्ति की आगामी उपलब्धि (भविष्य सम्बन्धी) का स्तर है जो उसे प्राप्त करने की उम्मीद रखता है । ”
    आकांक्षा-स्तर का परिचय हमें डेंबो ने कराया था जो लेविन की शिष्या थी । इस सम्बन्ध में हॉपी ने गम्भीरता से विचार किया। उनके अनुसार व्यक्ति की सफलता-असफलता की भावना कार्य की कठिनाई पर निर्भर करती है। यदि कार्य ‘अत्यधिक आसान’ होता है जो व्यक्ति सफलता की भावना का अनुभव नहीं करता । इसी प्रकार यदि कार्य ‘अत्यधिक कठिन’ होता है तो व्यक्ति कार्य सम्पन्न न करने पर असफलता का अनुभव नहीं करता क्योंकि उसमें उसका अहांविष्टन नहीं होता । उदाहरणार्थ- यदि एक विद्यार्थी संस्कृत नहीं जानता तो वह संस्कृत व्याकरण सम्बन्धी उत्तर न देने पर असफलता की भावना अनुभव नहीं करेगा । हॉपी ने बताया कि व्यक्तियों के आकांक्षा-स्तर अथवा लक्ष्य स्थापन-व्यवहार एक समान नहीं होते। कुछ व्यक्ति अपना आकांक्षा-स्तर ऊँचा रखते हैं, कुछ नीचा रखते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं जो यह निर्णय नहीं ले पाते कि आँकाक्षा-स्तर ऊँचा रखा जाए अथवा नीचा । कुछ व्यक्ति आकांक्षा – स्तर को स्थापित करने में यथार्थवादी होते हैं; वे अतीत के आधार पर इसे स्थापित करते हैं ।
  7. नवीनता (Novelty) — नवीनता का अर्थ यह है कि छात्र एक ही परम्परागत तरीके से पढ़ते-पढ़ते ऊब जाता है। उसका ध्यान कक्षा से उचटने लगता है और जब वह शिक्षक के पढ़ाने के तरीके से सन्तुष्ट नहीं हो पाता तो कक्षा से अनुपस्थित रहने लगता है या कक्षा में बैठकर अनुशासन सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करने लगता है। अतः, शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वह शिक्षण-अधिगम-प्रक्रिया में छात्र की रुचि को कम न होने दे । इसीलिए वह नवीन-नवीन शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों का प्रयोग करता है तथा कठिन बातों को समझाने के लिए दैनिक जीवन से सम्बन्धित उदाहरणों का सहारा लेता है । उत्तम श्रेणी की दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री का प्रयोग भी वह इसी उद्देश्य से करता है लेकिन नवीनता लाने के प्रयास में उसे हास्यास्पद एवं बेढंगी सहायक सामग्री के प्रयोग से बचना चाहिए ।
    नवीनता का महत्त्व किसी भी प्रकार से कम नहीं आँका जा सकता । जब कोई वस्तु पुरानी हो जाती है तब हम उसकी ओर ध्यान नहीं देते। इसके विपरीत, कोई नवीन दृश्य अथवा नवीन ध्वनि हमारा अवधान आसानी से अपनी ओर आकर्षित कर लेती है । इसी प्रकार, किसी स्थान या अखबार में उलटा छपा विज्ञापन हमारे ध्यान को शीघ्र आकर्षित कर लेता है। साथ ही, जिस अखबार में नित्य नए समाचार पढ़ने को मिलते हैं उसी अखबार को अधिकांश व्यक्ति पढ़ना चाहते हैं। अभिप्राय यह है कि अवधान के आकर्षण के लिए यह आवश्यक है कि वस्तु के रंग तथा आकार में नवीनता हो । यह ध्यान रखना चाहिए कि प्राणी की अतिजीविता के लिए नवीनता का होना ज़रूरी है। नवीनता का उदाहरण दैनिक जीवन में भी भली-भाँति देखने को मिलता है। खाने में सब्जियाँ बदल-बदल कर खाना तथा प्रतिदिन कपड़े बदलना हमारी इसी मानसिकता का द्योतक है और यही कारण है कि शिक्षक गूढ़ तथ्यों को सरल तरीके से छात्रों को समझाने के लिए नए – नए तरीके खोजता है ।
  8. रुचि ( Interest ) – रुचि से बढ़कर कोई चीज नहीं है तथा इसके अभाव में शिक्षक के सभी प्रयास विफल हो जाते हैं । अतः, कुछ भी पढ़ाने से पूर्व शिक्षक को छात्रों में रुचि जागृत करनी चाहिए तथा इसे बराबर बनाए रखना चाहिए । इसीलिए किसी ने कहा है कि—
    “Interest is the greatest word in the dictionary of Education.”
    रुचियाँ केवल यही नियन्त्रण नहीं करती कि अवधान को क्या आकर्षित करता है अपितु वे यह भी नियन्त्रण करती हैं कि अवधान को क्या स्थिर किए रहता है । मन्द से मन्द विद्यार्थी भी क्लास में अपनी कुर्सी के सिरे पर बैठ जाता है जब क्लास में शिक्षक सिनेमा की बात करते हैं। इसी प्रकार, जिन विज्ञापनों में अश्लीलता होती है वे कुछ लोगों के लिए विशेष आकर्षण का बिन्दु होते हैं । भूखा व्यक्ति स्वादिष्ट भोजन पर रुचि के कारण ही टूट पड़ता है, भले ही उसे भूख न हो । इसी प्रकार प्रोफेसर, डाक्टर तथा क्लर्क अपनी-अपनी रुचियों की वस्तुओं की ओर ही अवधान देते हैं । उदाहरणार्थ, दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर जिस बात में रुचि रखेगा उसमें जीवशास्त्र का प्रोफेसर रुचि नहीं लेगा । वास्तविक बात यह है कि जब किसी वस्तु में रुचि उत्पन्न हो जाती है तब वह हमारे अवधान के केन्द्र में आ जाती है । इस सम्बन्ध में ब्रीस ने एक प्रयोग किया। उन्होंने अपने कुछ प्रयोज्यों से स्टीरियोस्कोप में देखने को कहा जिससे उन्होंने एक वर्ग को लाल देखा और दूसरे को हरा । कुछ देर बाद प्रयोज्यों ने बताया कि उनकी आँख को कभी लाल रंग दिखाई देता था और कभी हरा और इस प्रकार उन दोनों रंगों में दोलन प्रतीत होता था । दूसरी आँख के सम्बन्ध में भी यही बात थी । अबकी बार ब्रीस ने एक वर्ग पर क्रॉस का चिन्ह बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि चिन्ह वाले वर्ग का रंग दूसरे वर्ग की अपेक्षा अधिक समय तक एक-सा दिखाई देता रहा | स्पष्ट है, चिन्ह लग जाने के कारण वह वर्ग अवधान का केन्द्र बन गया ।
    एक अन्य उदाहरण से इसे और स्पष्ट किया जा सकता है – एक छात्र मेडिकल की मुख्य शाखा में जाना चाहता था लेकिन उसे पशु – शाखा मिली । वे-मन से माता-पिता के दबाव में उसने प्रवेश ले लिया तथा हॉस्टल में रहने लगा। परीक्षा के दिनों में उसने प्रयोगात्मक परीक्षा की तैयारी नहीं की लेकिन दोस्तों के कंहने पर वह परीक्षा देने चला गया। परीक्षक पूछा बैल के मुँह में कितने दाँत होते हैं। छात्र ने लापरवाही से कहा बत्तीस । परीक्षक ने नाराज हुए बिना सामने खड़े बैल के दाँत गिनने को कहा। छात्र देखकर हतप्रभ रह गया कि बैल के एक जबड़े में एक भी दाँत नहीं था । परीक्षक ने समझाया कि कोई भी शाखा अच्छी या बुरी नहीं होती तुम इसी शाखा में रुचि उत्पन्न करो । परीक्षक की इस प्रेरणा से अभिभूत हो वह छात्र भविष्य में इसी में रुचि लेने लगा और एक महान वैज्ञानिक ने सिद्ध हुआ ।
  9. आवश्यकताओं का ज्ञान (Knowledge of Needs) — प्रत्येक छात्र की अपनी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं, मूल्य होते हैं, आदर्श होते हैं, दृष्टिकोण एवं अभिक्षमताएँ होती हैं। इन्हीं के योग से छात्र का व्यक्तित्व बनता है। अतः, यदि अध्यापक यह चाहता है कि छात्र शिक्षण में उपेक्षित प्रगति करे तो उसे उपरोक्त सभी के बारे में विस्तृत जानकारी रखनी चाहिए । विद्यार्थी को छात्र जीवन में उन्हीं विषयों को अपनाने को कहा जाए जिसमें उसका रूझान हो। उसे विषयों के चयन में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए । माता-पिता अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के उद्देश्य से विद्यार्थी पर अपने मनचाहे विषय न लादें, बल्कि उसे अपनी संतुष्टि के क्षेत्र में जाने की पूरी – पूरी छूट दें । ऐसी स्थिति में छात्र को किसी बाह्य अभिप्रेरणा को आवश्यकता नहीं पड़ेगी, बल्कि वह स्वयं ही अपने लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर लेगा। अध्यापक को व्यक्तिगत विभिन्नताओं को अनदेखी नहीं करनी चाहिए और इन्हीं के अनुरूप छात्रों को प्रेरणा प्रदान करनी चाहिए ।
    आवश्यकता को आविष्कार की जननी माना जाता है, क्योंकि कोई भी आविष्कार बिना आवश्यकता के नहीं हो सकता । व्यक्ति कोई भी कार्य आवश्यकता के कारण ही करता है । यही प्रवृत्ति बालक में होती है। अतः, शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वह छात्रों को पाठ्यवस्तु की आवश्यकता को अनुभूत कराए। इसके लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक को किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले अथवा किसी पाठ्यवस्तु को पढ़ाने से पहले छात्रों को यह बता देना चाहिए कि वह कार्य अथवा पाठ्य सामग्री उनकी किन-किन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगी, क्योंकि उनकी आवश्यकतायें ही उन्हीं के अधिगम में उद्दीपन के रूप में कार्य करती हैं। साथ ही, शिक्षक को शिक्षण प्रारम्भ करते समय छात्रों की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। वह इस बात का भी ध्यान रखे कि विद्यार्थी पढ़ाए जाने वाले पाठ को स्वयं पर आरोपित न समझे। इसके लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम छात्रों की पाठ के प्रति रुचि व ध्यान विकसित किया जाए। यही बात हरलॉक ने इस प्रकार कही है—
    “बालक की मुख्य आवश्यकताएँ उसके सीखने में उद्दीपक का कार्य करती हैं । “
  10. कक्षा का वातावरण (Classroom Enviornment) कक्षा वातावरण भी स्वयं में एक अच्छा अभिप्रेरक है। जैसा कक्षा का वातावरण होगा वैसी ही छात्रों की उपलब्धि होगी। कक्षा वातावरण छात्रों के व्यक्तित्व के किसी एक पहलू को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि उसके पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । शिक्षा के क्षेत्र में एक नए वातावरण के प्रत्यय का उदय हुआ है जिसे ‘व्यवहार परिवेश’ कहते हैं। व्यवहार परिवेश का अर्थ हैशिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार । यदि शिक्षक अपने छात्रों से अच्छा व्यवहार करता है तो कक्षा वातावरण प्रेरणादायक व आनन्ददायक महसूस होता है और यदि अध्यापक कठोर व निरंकुश अमानवीय व्यवहार अपने छात्रों से करता है तो कक्षा वातावरण दुःखदायी व बोझिल महसूस होता है। प्रेरणादायक व्यवहार छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि यह छात्रों के मनोबल को भी प्रभावित करता है। इसलिए अच्छे शिक्षण के लिए कक्षा वातावरण भी उतना ही श्रेष्ठ होना अनिवार्य है।
    कक्षा वातावरण से सम्बन्धित एक दूसरा पहलू विषय विशेष की विशिष्ट प्रकृति भी है। उदाहरणार्थ-विज्ञान शिक्षण के लिए उचित प्रयोगशाला का होना, इतिहास व भूगोल शिक्षण के लिए उपयुक्त चित्र- मानचित्रों का होना, नागरिकशास्त्र शिक्षण के लिए नेताओं व विभिन्न राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक संगठनों के चित्र होना आदि आदि । यह अध्यापक पर निर्भर करता है कि वह मीरस से नीरस विषय व कक्षा के वातावरण को भी रुचिपूर्ण बना दे । जैसे— हिन्दी जैसे विषय में भी हिन्दी कक्षा को विभिन्न लेखकों व कवियों के रंगीन चित्रों से कक्षा का आकर्षक व सार्थक बनाया जा सकता है। इसीलिए किसी ने कहा है कि भूगोल का सफल शिक्षण भूगोल कक्ष में ही हो सकता है। यही बात फ्रेण्डसन ने इस प्रकार कही है
    ” एक उत्तम अध्यापक प्रभावी अभिप्रेरणा हेतु शिक्षण सामग्री से युक्त सार्थक तथा सतत्रू प से परिवर्तनशील कक्षा-कक्ष वातावरण पर निर्भर करता है । “

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