कहानी निर्वाचन, कहानी सुनाने वाले की विशेषताएँ एवं शिक्षण विधि का उल्लेख कीजिए ।

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प्रश्न – कहानी निर्वाचन, कहानी सुनाने वाले की विशेषताएँ एवं शिक्षण विधि का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर –

कहानी का निर्वाचन

कहानी कहना भी एक कला है। शिक्षक को सतर्क रहकर कहानी को उपयोगी बनाने के लिए ऐसी कहानी का निर्वाचन करना चाहिए जो बच्चों की आयु, योगयता, क्षमता, रुचि एवं ग्रहण-शक्ति के अनुसार हो । कहानी ऐसी हो जो बालकों के वर्तमान जीवन से तथा उनके चारों ओर दिखाई पड़ने वाले वातवरण से सम्बद्ध हो जिसमें उनके निजी अनुभवों का पुट हो। मानव जीवन की गहन समस्याओं से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, परन्तु उनमें कार्य व्यापार का होना अनिवार्य है । कहानी ऐसी न हो जिससे भयानक, वीभत्स तथा रौद्र रस का संचार छात्रों के हृदय में हो जाए। बच्चों का हृदय बड़ा कोमल और भावुक होता है। अतः मृत्यु, मारकाट, दुःख जैसे भावों से युक्त कहानियों के स्थान पर हास्य-विनोद, मनोरंजन, उत्साहबर्द्धक, भयरहित एवं शिक्षाप्रद कहानियों द्वारा ही उनका हित सम्भव है ।

कहानी सुनाने वाले की विशेषताएँ

कहानी सुनाने वाले स्वयं उस कहानी में रुचि रखना आवश्यक है, तभी वह बालकों में रुचि उत्पन्न कर सकता है। कहानी सुनाने वाले की सफलता तभी कही जा सकती है जब वह कहानी सुनाने में अपने को भूल जाए, तन्मय हो जाए। उसके बाद सरल हों, सरस हों तथा भावानुसार स्वर का उतार-चढ़ाव हो । विद्यार्थियों के प्रति शिक्षक का स्नेहमय व्यवहार वांछनीय है | कहानी – कथन इस प्रकार होना चाहिए जिससे वह छात्रों के मर्म को स्पर्श कर सके तभी उचित स्थायी संस्कार उनके हृदयों पर डाला जा सकता है।

कथा सुनाते समय स्वयं शिक्षक की दृष्टि के सामने दृश्यों का स्मृति चित्र रहना चाहिए जिन्हें वह स्वाभाविक गति से सुना सके। उसकी गति न बहुत तीव्र हो और न बहुत मन्द ।

शिक्षक को एक कुशल अभिनेता होना चाहिए | स्वर, अंग-संचालन, भाव-भंगिमा आदि भावों के अनुसार स्वाभाविक गति से होने चाहिए अन्यथा वह विदूषकत्व की श्रेणी को पहुँच जाएगा।

कहानी सुनाते समय आलंकारिक भाषा का प्रयोग विद्यार्थियों की रुचि में बड़ा व्यवधान में उपस्थित करता है, अत: कहानीकार की भाषा धारावाहिक, मुहावरेदार और बोधगम्य होनी चाहिए। साथ ही शिक्षक स्वयं विनोद – प्रिय हो जिससे विनोदात्मक तथा व्यंग्यात्मक भाषा से कहानी में सरलता आ जाए, परन्तु वह व्यंग्य किसी को दुःखी अथवा अपमानित करने वाला न हो।

कहानी कहने में शिक्षक को इतना आत्मविभोर भी न हो जाना चाहिए कि विद्यार्थियों को ध्यान ही न रहे, अपितु कहानी से सम्बन्धित उसे छोटे-छोटे प्रश्न भी पूछते रहना चाहिए। कहानी सुनने के पश्चात् बालकों से ही निष्कर्ष निकलवाना श्रेयस्कर है।

शिक्षक को कहानी की कथावस्तु का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। कभी-कभी बालकों की अनुरूपता के अनुसार कहानी में परिवर्तन करना भी आवश्यक हो जाता है । यदि कथा विदेशी अथवा भिन्न भाषा की हो तो अध्यापक को उसके पात्र तथा देश आदि के नाम अपने समाज के अनुसार परिवर्तित कर देने चाहिए ।

कहानी के प्रत्येक अंश तथा दृश्यों का शृंखलाबद्ध पारस्परिक सम्बन्ध हो जाना आवश्यक है, क्योकि तर्क सम्बन्धी ज्ञान का तभी विकास किया जा सकता है।

शिक्षण विधि

कहानी का निर्वाचन करके कहानी को इस प्रकार बालकों के सम्मुख उपस्थित करना चाहिए जिससे वे अधिक-से-अधिक बात ग्रहण कर सकें। अधिक ग्रहण मौखिक – कहानी कथन द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि पढ़कर सुनाने से कहानी में नीरसता आ जाती है। रुचि न रहने पर छात्रों का ध्यान एकाग्र नहीं रहता | शिक्षक के व्यक्तित्व तथा भावों का कोई भी प्रभाव उन पर नहीं पड़ पाता तथा गुरु-शिष्य में निकटत्व की भावना भी उत्पन्न नहीं हो पाती। इसके विपरीत छात्रों का अवधान सुनाई हुई कहानी की ओर अधिक एकाग्र रहता है। सुनाते समय अध्यापक की कहानी उसकी अपनी बात हो जाती है। उसमें उसका व्यक्तित्व समा जाता है। इससे शाला में भी घरेलू वातावरण सजग हो उठता है। अतः पुस्तक की कहानी को शब्दश: ग्रहण कर अपने शब्दों में कहना अधिक प्रभावोत्पादक होता है ।

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