कार्य योजना (1992) पर प्रकाश डालें |
उत्तर – भारत सरकार ने 1992 में राष्ट्रीय नीति, 1986 में संशोधन करने के साथ-साथ उसकी कार्ययोजना में भी कुछ संशोधन किये और उससे कार्ययोजना, 1992 के नाम से जना में भी प्रकाशित किया । कार्ययोजना 1986 पूरे 24 भागों में विभाजित थी। कार्ययोजना 1992 को 23 भागों में विभाजित किया गया है, जिसके शीर्षक निम्न है—
(1) नारी समानता के लिए शिक्षा, (2) अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़े वर्गों की शिक्षा, (3) अल्पसंख्यकों की शिक्षा (4) विकलांगों की शिक्षा (5) प्रौढ़ एवं सतत् शिक्षा, (6) पूर्व बाल्यकाल परिचर्या एवं शिक्षा, (7) प्रारम्भिक शिक्षा, (8) माध्यमिक शिक्षा, (9) नवोदय विद्यालय, (10) व्यावसायिक शिक्षा (11) उच्च शिक्षा, (12) मुक्त ” शिक्षा, (13) उपाधि की रोजगार से विलगता, (14) ग्रामीण विश्वविद्यालय एवं संस्थान, ( 15 ) तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा (16) अनुसंधान एवं विकास, (17) सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य, (18) भाषाओं का विकास, (19) जनसंचार एवं शैक्षिक तकनीकी, (20) खेल, शारीरिक शिक्षा एवं युवा, (21) मूल्यांकन प्रक्रिया एवं परीक्षा सुधार, (22) शिक्षक एवं उनका प्रशिक्षण, (23) शिक्षा का प्रबन्ध ।
समीक्षा (Estimate) — कार्ययोजना 1992 के अवलोकन से पता चलता है कि यह 1986 की कार्ययोजना से पर्याप्त रूप से समानता रखती है। इस संशोधित कार्य योजना में नई शिक्षा नीति को और अधिक परिमार्जित करने के प्रयास किये गये हैं । कुछ शीर्षकों को क्रम परिवर्तन करके तथा कुछ शीर्षकों की भाषा में कुछ बदलाव करके प्रस्तुत किया गया । इसके साथ एक समस्या यह भी थी कि यह केवल एक पुनरीक्षण समिति थी, जिसका कार्य नई शिक्षा नीति तथा राममूर्ति समिति के प्रतिवेदन को नये परिप्रेक्ष्य में समीक्षा मात्र करना था । अतः इस समिति से भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए किसी नवीन योजना अथवा किसी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की आशा नहीं थी । इस समिति ने अपने दायित्व को भली प्रकारनिभाते हुए ऐसी अनेक संस्तुतियाँ की, जिन्होंने आगे की शिक्षा को लाभान्वित किया । परन्तु कुल मिलाकर श्रेष्ठ परिणाम फिर भी प्राप्त न हो सके ।
परन्तु इस शिक्षा नीति (1992) का इतना लाभ तो अवश्य हुआ कि देश में आधुनिक तकनीकी में तीव्र गति से विकास हुआ, किन्तु इस विकास में मानवता, स्नेह, प्रेम, सहानुभूति, परदुःखकातरता, संवेदनशीलता, विद्वता, चिन्तन, मौलिकता आदि सब कहीं खो गये हैं। सच तो यह है कि इस शिक्षा नीति के लागू होने के बाद भारत की लगभग शत-प्रतिशत जनता शिक्षा के मूल उद्देश्यों को भूलाकर केवल धन कमाने की अंधी प्रतियोगिता में आँखें बन्द कर भागती जा रही है। आज की शिक्षा केवल अधिक-से-अधिक धन अर्जित कर लेने का साधन बनकर रह गई है । इसके साथ ही अंग्रेजी इस कदर हावी हो गयी है कि अब राष्ट्रभाषा को अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु जूझना पड़ रहा है । जो शैक्षिक विकास की दृष्टि से घातक है। अतः जितना जल्दी हो सके, इस स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया जाना बहुत आवश्यक है।
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