पाठ्यक्रम के क्षेत्र की विवेचना करें ।
उत्तर – सामान्य बोलचाल की भाषा में विद्यालयों में विद्यार्थी को शिक्षित करने हेतु जो कुछ किया जाता है, उसे पाठ्यक्रम के नाम से जाना जाता है। विभिन्न शिक्षा-शास्त्रियों ने पाठ्यक्रम को कुछ निश्चित शब्दों में बाँधने अथवा परिभाषित करने का प्रयास भी किया है, किन्तु पाठ्यक्रम के विस्तार क्षेत्र की सीमाएँ सुनिश्चित कर पाना अत्यन्त कठिन कार्य है । फिर भी कतिपय मानवीय शैक्षिक एवं सामाजिक प्रवृत्तियों के आधार पर पाठ्यक्रम के विस्तार क्षेत्र की सीमाओं को चिन्हांकित करने का प्रयास किया गया है |
यदि हम पाठ्यक्रम के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो स्पष्ट रूप से पता चलता है कि पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाने वाले ज्ञान का स्वरूप एवं विस्तार अनिवार्य रूप से सम्बन्धित समाज द्वारा मान्य शैक्षिक उद्देश्यों पर निर्भर करता है । इसीलिए देश और काल की भिन्नता के अनुसार, वहाँ के पाठ्यक्रमों में भिन्नता भी पायी जाती है। भारतीय सन्दर्भ में यदि हम वैदिक काल की शिक्षा पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि वैदिक काल में भारतीय शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य ईश्वर भक्ति एवं धार्मिक भावन को दृढ़ करना, बालकों का चरित्र निर्माण एवं उनके व्यक्तित्व का विकास करना तथा सामाजिक कुशलता में वृद्धि करना था । इस दृष्टि से उस समय का पाठ्यक्रम भी अत्यन्त विस्तृत था । उसमें परा विद्या अर्थात् धार्मिक साहित्य का अध्ययन तथा अपर विद्या अर्थात् लौकिक एवं सांसारिक ज्ञान दोनों का ही समावेश था | उस समय शिक्षा कार्य गुरुकुलों में होता था तथा शिक्षार्थी पूरे शिक्षाकाल में गुरुकुल या गुरु-परिवार के सदस्य के रूप में रहता था । वह गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ गुरु एवं गुरु-पत्नी की सेवा आश्रम की सफाई, पशुओं की देखभाल तथा भिक्षाटन के माध्यम से कर्त्तव्यपालन, सेवाभाव विनयशीलता अन्य चारित्रिक गुणों की शिक्षा भी प्राप्त करता था । कभी-कभी शिक्षा प्राप्त करने हेतु शिष्यों को देशाटन पर भी जाना पड़ता था । इस प्रकार वैदिककालीन पाठ्यक्रम में पठन-पाठन के साथ-साथ विद्यार्थियों को व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करने के समुचित अवसर भी प्राप्त होते थे तथा उसका सम्पादन भी अध्ययन कक्षों और समय के घण्टों में सीमित नहीं था ।
इसी प्रकार यदि हम यूरोप के इतिहास का अध्ययन करें तो वहाँ के पाठ्यक्रम के सीमा क्षेत्र का आभास मिलता है। प्राचीन यूनान के नगर राज्य स्पार्टा को प्रायः युद्धरत रहना पड़ता था, अतः वहाँ पर बालकों के शारीरिक विकास एवं शस्त्र विद्या पर अधिक ध्यान दिया जाता रहा, जबकि एथेन्स नगर- राज्य में शान्ति एवं स्थायित्व होने से वहाँ पर साहित्य, दर्शन एवं ललित कलाओं को अधिक महत्त्व दिया जाता था । प्रारम्भ में यूरोप और अमेरिका में भी शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को पढ़ने, लिखने एवं सामान्य गणना कर सकने के योग्य बना देना मात्र था अतः उस समय पाठ्यक्रम भी 3 R’s तक सीमित था। यह स्थिति एक लम्बी अवधि तक बनी भी रही, क्योंकि पाश्चात्य देशों में भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत केवल उन्हीं प्रवृत्तियों का समावेश किया जाता रहा जो कक्षा के अन्दर पाठ पढ़ाते समय आयोजित की जाती थीं । कालान्तर में भी अनेक राजनीतिक कारणों से पाठ्यक्रम का रूप, पश्चिमी देशों जैसा ही हो गया तथा गुरुकुलों एवं आश्रमों के स्थान पर पाठशालाओं का उदय हुआ जिनका कार्य केवल पाठ पढ़ने-पढ़ाने तक ही सीमित रह गया । इस प्रकार पठन-पाठन से इतर प्रवृत्तियों को पाठशाला के क्षेत्र से बाहर की चीज माना जाने लगा ।
शिक्षा के इतिहास में भी इस बात का पता चलता है कि समय के साथ-साथ पाठ्यक्रम में भी परिवर्तन होते रहे हैं तथा इसमें कभी व्यापकता और कभी संकीर्णता भी आती रही है । इसका बहुत अच्छा उदाहरण खेलकूद प्रवृत्ति की धारणा है। हमारे देश में अभी कुछ समय पहले तक अध्ययन एवं खेलकूद प्रवृत्ति को एक-दूसरे का विरोधी माना जाता था, किन्तु बाद में जब इसका आभास हुआ कि विद्यालयों से निकले हुए युवक वास्तविक जीवन में असफल भी हो रहे हैं तब यह धारणा विकसित हुई कि जीवन की तैयारी के लिए पढ़ना, लिखना ही सब कुछ नहीं है। मनोविज्ञान के विकास से भी बालकों की अन्य प्रवृत्तियों के समुचित विकास को महत्त्व मिला तथा यह माना जाने लगा कि केवल पठन-पाठन पर ही ध्यान देना बालकों के विकास की दृष्टि से एकांगी है। इस नवीन दृष्टिकोण का प्रभाव विद्यालयों के कार्यक्रमों पर पड़ा और उनमें व्यापकता विकसित हुई । अत: विद्यालयों में पाठ्य विषयों के साथ-साथ ऐसी प्रवृत्तियों का समावेश भी किया जाने लगा जिनसे बालकों में बौद्धिक ज्ञान के साथ-साथ स्वास्थ्य, सौन्दर्य बोध, सृजनात्मकता तथा अन्य महत्त्वपूर्ण गुणों का विकास भी हो सके ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्व में पाठ्यक्रम की संकल्पना में परिवर्तन आते रहे हैं, किन्तु बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से पाठ्यक्रम का क्षेत्र निरन्तर व्यापकता की ओर बढ़ रहा है तथा इसके अन्तर्गत विविध प्रवृत्तियों का समावेश होता चला आ रहा है । इसके क्षेत्र के विस्तार की गति वर्तमान समय में इतनी तेज है कि उसकी सीमा को चिन्हांकित करते ही, उसमें कई अन्य प्रवृत्तियों का समावेश हो जाता है । इसी स्थिति को देखकर बबिट महोदय ने कहा भी है, “ उच्चतर जीवन के लिए प्रतिदिन और चौबीसों घण्टे की जा रही समस्त क्रियाएँ पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आ जाती हैं।”
प्रारम्भ में पाठ्यक्रम का सीमा क्षेत्र विषयों की निर्धारित पाठ्य-वस्तु तक ही सीमित था तथा शिक्षा का उद्देश्य सूचनात्मक ज्ञान प्राप्त करना होता था, किन्तु बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में शैक्षिक मनोविज्ञान, शैक्षिक समाजशास्त्र एवं शैक्षिक दर्शनशास्त्र आदि व्यवहार सम्बन्धी विज्ञानों का तीव्र गति से विकास हुआ जिसका प्रभाव पाठ्यक्रम निर्माण पर भी पड़ा । साथ ही शिक्षण-अधिगम के क्षेत्र किये गये अनुसन्धानों का भी पाठ्यक्रम के विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा । पूर्व में यह धारणा महत्त्वपूर्ण थी कि यदि शिक्षक अपने विषय ज्ञान का अच्छा ज्ञाता है तथा विषय-वस्तु पर उसका स्वामित्व है तो वह सफल शिक्षण भी कर सकता है तथा वह ज्ञान बालकों को भी प्रदान कर सकता है, किन्तु यह धारणा प्राय: गलत सिद्ध होती हुई देखी गई। मनोवैज्ञानिक अनुसन्धानों से इस तथ्य की पुष्टि हो गई है कि जब तक शिक्षार्थी नवीन ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मानसिक रूप से तैयार न हो उसे कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता है। साथ ही किसी नवीन ज्ञान को प्राप्त कर लेना ही बालक के लिये नहीं होता । जब तक बालक उस नवीन ज्ञान को आत्मसात् नहीं कर लेता तब तक व्यावहारिक दृष्टि से उसकी कोई उपयोगिता नहीं होती है । इस प्रकार विभिन्न शोधों के द्वारा इस तथ्य की पुष्टि हो गई कि अधिगम का परिपक्वता से सम्बन्ध होता है तथा अधिगम में व्यक्तिगत भेदों एवं प्रत्यक्ष अनुभव की विशेष भूमिका होती है। इस दृष्टिकोण ने विद्यालयों के कार्यों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया । अब विद्यालयों का कार्य बालकों को ज्ञान देने के स्थान पर ऐसी स्थितियाँ प्रस्तुत करना माना जाने लगा है । जो बालकों को स्वानुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो सके । इस धारणा को फलस्वरूप क्रिया आधारित पाठ्यक्रम की संकल्पना प्रस्तुत की गई जिसमें पाठ्य-वस्तु के महत्त्व को बनाये रखते हुए उसके चयन एवं क्रियान्यवन के आधार को परिवर्तित कर दिया गया ।
अनुभव एवं क्रिया आधारित पाठ्यक्रम को साकार रूप देने की दिशा में सर्वप्रथम प्रयास करने का श्रेय संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्जीनिया राज्य को है जहाँ पर शिक्षाविदों ने शिक्षा के लक्ष्य को सूचनात्मक ज्ञान से हटाकर ‘सम्पूर्ण व्यक्तित्व निर्माण’ की ओर निर्देशित किया । इन शिक्षाविदों ने दो प्रमुख प्रश्नों- बालक को किस प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहिए ? तथा उसे सामाजिक प्राणी होने के कारण किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए ? के विस्तृत उत्तरों के आधार पर शिक्षा के लक्ष्यों को निर्धारित किया । इन शिक्षाविदों ने यह अनुभव किया कि शिक्षा के निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु समुचित परिवेश सामाजिक जीवन के स्वाभाविक कार्यों को पूरा करने में ही मिल सकता है । अतः पाठ्यक्रम को ऐसे कार्यों पर आधारित करने का निश्चय किया गया, जिसके फलस्वरूप ‘विषय-वस्तु’ के रूप में प्रतिष्ठित पाठ्यक्रम का स्थान ऐसी अभिवृत्तियों, अवबोधनों, योग्यताओं एवं क्षमताओं आदि ने ले लिया जो सामान्य सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकें । इस प्रकार पाठ्यक्रम ‘पाठ्य सामग्री की सूची’ के स्थान पर ‘अधिगमानुभवों’ के रूप में परिभाषित किया जाने लगा और इसे इस संकल्पना के रूप में प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई ।
इस प्रकार वर्तमान समय में विद्यालय का कार्य क्षेत्र समयबद्ध पठन-पाठन के सीमित घेरे से निकलकर एक व्यापक रूप धारण कर चुका है तथा इसमें निरन्तर वृद्धि भी होती जा रही है, जिसके कारण इसकी सीमाएँ निश्चित कर पाना बहुत कठिन होता जा रहा है । चूँकि विद्यालयों में आयोजित की जाने वाली सभी प्रवृत्तियाँ पाठ्यक्रम का ही अंग होती हैं, अत: पाठ्यक्रम के विस्तार क्षेत्र का निर्धारण करना भी उतना ही कठिन कार्य है । फिर भी शिक्षाविदों ने पाठ्यक्रम को उसके अन्तर्गत सम्पादित किये जाने वाले कार्यों के आधार पर सीमांकित करने का प्रयास किया है ।
माइकेल पेलार्डी के अनुसार, “सामान्यतया पाठ्यक्रम को विद्यार्थी के उन समस्त अनुभवों के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनका दायित्व विद्यालय अपने ऊपर लेता है । इस रूप में पाठ्यक्रम का तात्पर्य प्रायः उन क्रमिक कार्यों से है जो इन अनुभवों से पूर्व, इनके होने के साथ-साथ तथा इन अनुभवों के बाद आयोजित किये जाते हैं।” इन कार्यों को निम्नलिखित आठ वर्गों में समाहित किया जा सकता है –
(i) लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का निर्धारण(ii) बालकों के संज्ञानात्मक विकास का पोषण,(iii) बलकों के मनोवैज्ञानिकों एवं सामाजिक स्वास्थ्य का संवर्धन,(iv) अधिगम हेतु व्यवस्था,(v) शैक्षणिक स्रोतों का उपयोग,(vi) छात्रों का व्यक्तिगत बोध तथा उसके अनुरूप शिक्षण व्यवस्था,(vii) समस्त कार्यक्रमों एवं बालकों के कार्यों का मूल्यांकन,(viii) नवीन प्रवृत्तियों का साहचर्य ।
1. शैक्षिक क्रियाएँ,2. पाठ्य सहगामी क्रियाएँ,3. रुचि कार्य ।
- शैक्षिक प्रवृत्तियाँ अथवा क्रियाएँ (Educational Activities or Curricular Activities) -यद्यपि विद्यालयों के समस्त क्रिया-कलापों के साथ-साथ शिक्षा क्षेत्र की सभी प्रवृत्तियाँ वे जहाँ भी, जिस रूप में भी चाहे जब भी आयोजित की जाती हों शैक्षिक ही होती हैं, किन्तु सामान्य रूप से उन्हीं प्रवृत्तियों को शैक्षिक कहा जाता है, जिनका नियोजन कुछ निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु निर्धारित पाठ्य-विषयों के पठन-पाठन की दृष्टि से किया जाता है । इन प्रवृत्तियों का आयोजन मुख्य रूप से कक्षा-कक्षों में विभिन्न विषयों के अध्ययन-अध्यापन के रूप में किया जाता है, किन्तु वर्तमान में व्यावहारिक ज्ञान अर्थात् प्रयौगिक कार्यों का पाठ्यक्रम में समावेश होने तथा नवीन शिक्षण विधियों द्वारा बालकों की सक्रियता पर अधि क बल देने के फलस्वरूप प्रयोगशालाएँ, कार्यशालाएँ तथा पुस्तकालय आदि शैक्षिक प्रवृत्तियों के कार्य-स्थल बन गये हैं। इसके साथ ही अब अधिगम- अनुभवों अर्थात् विद्यार्थियों द्वारा वास्तविक परिस्थितियों में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करने पर भी अधिक बल दिया जाने लगाया है | इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु विभिन्न भौगोलिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, व्यावसायिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के स्थानों के भ्रमण एवं सर्वेक्षण आदि भी आयोजित किये जाते हैं जहाँ पर छात्र जाकर वास्तविक स्थितियों का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अतः इन्हें भी शैक्षिक प्रवृत्तियों में ही सम्मिलित किया जाता है ।
- पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ (Co-curricular Activities)- प्रारम्भ में पाठ्यक्रम का क्षेत्र विभिन्न विषयों की पाठ्य-वस्तुओं के अध्ययन अध्यापन तक ही सीमित माना जाता था । विद्यालयों में आयोजित होने वाली अन्य प्रवृत्तियों जैसे- खेलकूल, व्यायाम, सांस्कृतिक क्रिया-कलाप आदि को पाठ्येतर क्रियाएँ (Extra curricular activities) माना जाता था, परन्तु पाठ्यक्रम के व्यापक दृष्टिकोण के आधार पर अब इन प्रवृत्तियों को पाठ्य सहगामी क्रियाओं के नाम से जाना जाता है। वर्तमान समय में विद्यालयों में शिक्षकों के निर्देशन में विभिन्न प्रकार की पाठ्य सहगामी क्रियाएँ आयोजित की जाती हैं जिन्हें कुछ प्रमुख वर्गों में निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है –
- शारीरिक विकास सम्बन्धी क्रियाएँ- इसके अन्तर्गत शारीरिक प्रशिक्षण (पी. टी.), व्यायाम, खेलकूद, ट्रेकिंग, पर्वतारोहण, हाइकिंग, तैराकी, नौकायन आदि क्रियाओं के साथ-साथ स्वास्थ्य परीक्षण, रोगों से बचने के उपाय, शुद्धता एवं स्वच्छता का ध्यान, एवं पौष्टिक आहार (मध्यान्ह भोजन) आदि बातों को समाहित किया जाता है ।
- साहित्यिक क्रियाएँ- इसके अन्तर्गत भाषण कला, वाद-विवाद, विचार-गोष्ठी, कार्य-संगोष्ठी, कविता-पाठ, अन्त्याक्षरी, परिचर्चा, वार्त्ता, आशुभाषण, पत्रिका प्रकाशन, लेखन, समाचार एवं पत्रवाचन तथा पुस्तकालय एवं वाचनालय के उपयोग आदि से सम्बन्धित प्रवृत्तियों का समावेश किया जाता है ।
- सांस्कृतिक क्रियाएँ – इसके अन्तर्गत एकल अभिनय, मूल अभिनय, नाटक प्रहसन, संगीत, नृत्य एवं अन्य मनोरंजनात्मक क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं ।
- सृजनात्मक क्रियाएँ – इस वर्ग में बालकों की रचना सम्बन्धी प्रवृत्तियों जैसे- चित्रकारी, पच्चीकारी, दस्तकारी, बागवानी, उपयोगी वस्तुओं का निर्माण एवं नवीनता की खोज आदि को समाहित किया जाता है ।
- सामाजिक क्रियाएँ – विद्यालयों द्वारा बालकों के माध्यम से सफाई अभियान, साक्षरता का प्रसार, स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों का प्रचार, सामाजिक कुरीतियों एवं अन्ध विश्वासों को दूर करने के लिए प्रचार अभियान आदि को संचालित करना इसके अन्तर्गत आता है।
- राष्ट्रीय क्रिया-कलाप – इसके अन्तर्गत राष्ट्रीय दिवसों एवं राष्ट्रीय नेताओं की जयन्तियों को मनाना, राष्ट्रीय कैडेट कोर (एन. सी. सी.) स्काउटिंग, रेडक्रास, राष्ट्रीय सेवा योजना (एन. एस. एस.), आपात काल में देश एवं समाज सेवा तथा आन्तरिक सुरक्षा में सहयोग, साम्प्रदायिक सद्भाव में सहयोग तथा राष्ट्रीय कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में सहयोग आदि प्रवृत्तियाँ आती हैं ।
- रुचि कार्य (Hobbies) – इसके अन्तर्गत वे प्रवृत्तियाँ आती हैं जिनका आयोजन विद्यालयों द्वारा बालकों की रुचियों का समुचित विकास करने के उद्देश्य से किया जाता है । इस प्रकार की प्रवृतियों में विभिन्न वस्तुओं जैसे- टिकट, सिक्के, पत्थर आदि का संग्रह करना, चित्र एवं कार्टून बनाना, फोटोग्राफी करना, बेकार पड़ी चीजों से उपयोगी वस्तुएँ बनाना, विभिन्न प्रकार के चित्रों के एलबम तैयार करना आदि शामिल हैं ।
यद्यपि विद्यालयों में आयोजित की जाने वाली प्रवृत्तियों के उपर्युक्त तीन वर्गों में विभाजित करने का प्रयास किया गया है, किन्तु सही मायने में न तो इन प्रवृत्तियों की पूर्ण सूची तैयार की जा सकती है और न ही उन्हें निश्चित रूप से किसी एक वर्ग में रखा ही जा सकता है। उदाहरणार्थ, वाद-विवाद, परिचर्चा, पैनलचर्चा आदि प्रवृत्तियों को पाठ्य सहगामी प्रवृत्तियों के अन्तर्गत साहित्यिक प्रवृत्तियों में सम्मिलित किया जाता है, किन्तु यदि इन्हीं प्रवृत्तियों को निर्धारित पाठ्यक्रम के किसी प्रकरण के अध्ययन-अध्यापन की विधि के रूप में प्रयोग किया जाता है तब यही शैक्षिक प्रवृत्तियाँ हो जाती हैं। इसी प्रकार व्यवस्था परिवर्तन के फलस्वरूप भी इनमें परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ, खेल पाठ्य सहगामी प्रवृत्तियों के अन्तर्गत आता है, किन्तु कुछ राज्यों ने इसे अब एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में एक निश्चित स्थान प्रदान किया है, अतः अब यह शैक्षिक प्रवृत्तियों में सम्मिलित हो गया है।
वास्तव में पाठ्यक्रम के विकास का इतिहास मानव जीवन के विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम है । मानव द्वारा प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का अभियान, नवीन खोज एवं आविष्कार, निरन्तर परिवर्तित होने वाली सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ, ज्ञान का विस्फोटक तथा विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं आदि के द्वारा मानव को सदैव नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों का सफलतापूर्वक समाधान निकालने के लिए मानव को अपनी वर्तमान अवस्था में यथोचित परिवर्तन-परिवर्द्धन करते रहना पड़ता है। समाज का भी यह प्रयास रहता है कि वह बालकों को जीवन में ठीक प्रकार से समायोजित हो सकने हेतु उपयुक्त शिक्षा की व्यवस्था कर सके । अतः तद्नुसार शिक्षा के उद्देश्यों एवं पाठ्यक्रम में उपयुक्त परिवर्तन एवं परिवर्द्धन की प्रक्रिया चलती रहती है। उदाहरणार्थ, प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली की स्थापना के परिणामस्वरूप विभिन्न देशों में नागरिकता की शिक्षा की आवश्यकता उत्पन्न हुई । औद्योगिक प्रगति के कारण बढ़ती हुई दुर्घटनाओं से बचाव हेतु पाठ्यक्रम में सुरक्षा-शिक्षा तथा मालिक-मजदूर के झगड़ों के निराकरण हेतु पाठ्यक्रमों में समाजवादी दृष्टिकोण का समावेश किया गया । वैज्ञानिक प्रगति तथा आवागमन के साधनों के विकास के फलस्वरूप विभिन्न देशों को एक-दूसरे के के नजदीक जाने का अवसर प्राप्त हुआ, उन्हें एक-दूसरे के भू-भागों एवं वैभव सम्पन्नता की जानकारी प्राप्त हुई । अतः विकसित देशों ने दूसरे छोटे देशों एवं राज्यों को अपने अधिकार में करने तथा उपनिवेश स्थापित करने तथा उपनिवेश स्थापित करने प्रारम्भ किये जिसके कारण छोटी-छोटी लड़ाइयों के साथ-साथ दो विश्वयुद्धों से भी विश्व मानव जाति को गुजरना पड़ा। इसके समाधान हेतु अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव एवं विश्व शान्ति स्थापित करने के प्रयास किये जाने लगे। परिणामस्वरूप पाठ्यक्रमों में राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता तथा नागरिकता की शिक्षा के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव एवं विश्व – बन्धुत्व की शिक्षा का भी समावेश किया गया ।
पाठ्यक्रम के क्षेत्र विस्तार के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि प्रारम्भ में शिक्षा समाज के अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित थी । इस वर्ग को जीविकोपार्जन की कोई चिन्ता नहीं होती थी तथा वह अपने बालकों को अपने वर्गीय हितों को ध्यान में रखते हुए ही शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करता रहा । इसके फलस्वरूप पाठ्यक्रम भाषा साहित्य, इतिहास, ललित कलाओं तथा सामान्य शिष्टाचार तक ही सीमित था, किन्तु शिक्षा का प्रसार धीरे-धीरे मध्यम एवं निम्न वर्ग तक हो गया । इस मध्यम वर्ग को अपनी रोजी-रोटी कमाने हेतु व्यवसाय की अधिक चिन्ता रहती थी । अतः पाठ्यक्रम में बौद्धिक ज्ञान के साथ-साथ व्यावसायिक विषयों का समावेश भी कर दिया गया। अठारहवीं शताब्दी में यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति ने पाठ्यक्रम में अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक एवं औद्योगिक विषयों को सम्मिलित करने के लिए सभी को बाध्य कर दिया। बाद में व्यवसायों की संख्या बहुत अधि क बढ़ जाने के कारण व्यवसाय विशेष में विशिष्टता प्राप्त करने की होड़ में अनुकूल विषय के चयन की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी । इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम में विभिन्न विकल्पों एवं धाराओं की व्यवस्था की गई। छात्र अपनी योग्यताओं, क्षमतओं एवं अभिरुचियों के अनुसार सही विषय को चुन सकें, इसके लिए निर्देशन एवं परामर्श कार्यक्रम को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया । चूँकि बालक को व्यावसायिक जीवन के साथ-साथ पारिवारिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में भी समुचित समायोजन की आवश्यकता होती है अतः निर्देशन एवं परामर्श का कार्य क्षेत्र व्यावसायिक के साथ-साथ वैयक्तिक क्षेत्र तक फैल गया तथा इससे सम्बन्धित विषयों जैसे अवकाश के लिए शिक्षा, यौन शिक्षा आदि को पाठ्यक्रम का अंग माना जाने लगा । इसी प्रकार वर्तमान युग में जनसंख्या वृद्धि, महानगरों की घनी आबादी एवं गन्दी बस्तियों आदि के कारण मानव को विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों के खतरे का सामना करना पड़ रहा है, जिससे अनेकों प्रकार की बीमरियाँ उत्पन्न हो रही हैं । अतः अब पाठ्यक्रम में जनसंख्या शिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा एवं पर्यावरण शिक्षा को स्थान देना अनिवार्य होता जा रहा है। इसके साथ ही आधुनिक युग अन्तरिक्ष युग एवं कम्प्यूटर युग के रूप में विकसित हो रहा है। अतः अब पाठ्यक्रम में अन्तरिक्ष सम्बन्धी ज्ञान तथा कम्प्यूटर ज्ञान का अधिक से अधिक समावेश करने में काफी तत्परता से प्रयास किये जा रहे हैं। परिणामस्वरूप नित्य नये विषयों के नाम सुनने में आ रहे हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव जीवन से सम्बन्धित हर एक पक्ष का पाठ्यक्रम पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है अर्थात् पाठ्यक्रम में संशोधित एवं संवर्धन की प्रक्रिया मानव जीवन के विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होती है तथा यह प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक मानव का अस्तित्व है ।
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