प्राचीन भारतीय शिक्षा के मुख्य सिद्धान्तों एवं आधार तत्त्वों की व्याख्या कीजिए |

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प्रश्न – प्राचीन भारतीय शिक्षा के मुख्य सिद्धान्तों एवं आधार तत्त्वों की व्याख्या कीजिए |
(Descuss the main principles and postulates of ancient education.) 
उत्तर – प्राचीन भारतीय शिक्षा के सिद्धान्त एवं आधार तत्त्व ही उसकी विशेषताएँ थी । कुछ मुख्य इस प्रकार थीं—
  1. पूर्ण शिक्षा – शिक्षा पूर्ण होनी चाहिए । इसे प्रदीप्ति का स्रोत माना गया । और यह भी माना गया कि शिक्षा विद्यार्थियों को जीवन की समस्याओं से उबरने के योग्य भी बनाती है और इसलिए इसका पूर्ण (आर-पार) होना जरुरी था । शिक्षा का उद्देश्य सामान्य ज्ञान देना नहीं था । ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में प्रशिक्षण देना इसका आदर्श था ।
  2. शिक्षा सभी के लिए एवं कठोर अनुशासन – शिक्षा के द्वार उन सभी के लिए खुले होने चाहिए तो उसे प्राप्त करने के योग्य हैं। उपनयन संस्कार द्वारा धार्मिक एवं साहित्यिक शिक्षा का शुभारम्भ होता था। गरीब विद्यार्थी भी शिक्षा ग्रहण कर सकें इसलिए न केवल भिक्षा माँगने की छूट ही दी गयी, बल्कि भिक्षा माँगना विद्यार्थी जीवन का कर्त्तव्य बना दिया गया । अमीर, गरीब—सभी के लिए अनुशासन कठोर था । विषय में दक्षता प्राप्त करने के लिए लम्बी, निरन्तर एवं कठिन तैयारी की आवश्यकता थी ।
  3. विवाह असंगत — विद्यार्थी के लिए विवाह असंगत था । विद्यार्थी को ब्रह्मचारी का जीवन व्यतीत करना पड़ता था ताकि वह अपने शैक्षिक आदर्शों की प्राप्ति कर सके ।
  4. शिक्षा का उचित समय– बाल्यावस्था में स्मरण शक्ति तेज होती है, बुद्धि ग्रहणशील होती है, मानस आनम्य (Pliable) होता है और इसलिए 5 से 8 वर्ष का समय शिक्षा- शुरूआत के लिए उपयुक्त माना गया ।
  5. कोर्स के साथ शिक्षा की समाप्ति नहीं – प्राचीन काल में पुस्तकें कीमती और अलभ्य होती थीं। इसलिए प्रत्येक स्नातक के लिए यह अनिवार्य था कि उसने स्कूल व कॉलेज में जो सीखा है उसे वह रोज दोहराये । दीक्षान्त समारोह पर भी इसी बात पर जोर दिया जाता था ।
  6. विद्यार्थियों में ललक-अधिक ज्ञन प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों में ललक होना आवश्यक था। जिसमें ललक नहीं उस पर समय बर्बाद करना उचित नहीं ।
  7. दण्ड–प्राचीन शिक्षा में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल शिक्षा प्रदान करने की प्रवृत्ति मिलती है । छात्र को शारीरिक दण्ड देना अनुचित माना जाता था । याज्ञवल्क्य और मनु साधारण दण्ड के पक्ष में हैं, परन्तु गौतम नहीं ।
  8. आदतों का महत्त्व — उपयुक्त आदत निर्माण पर जोर दिया जाता था । सुबह जल्दी उठने पर जोर दिया जाता था । ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ आदर्श, था। कठोर जीवन बिताने पर जोर दिया जाता था ।
  9. साथ एवं अनुकरण – मन्द बुद्धि वाले विद्यार्थी को अच्छे विद्यार्थी के साथ रखने पर भी उसका अनुकरण कर बुद्धिमान हो सकता था ।
  10. गुरुकुल – स्मृतियों में साफ कहा गया है कि उपनयन के बाद विद्यार्थी को गुरु के निरीक्षण में रहना चाहिए । नभनेदिष्ट और कृष्ण अपने गुरुओं के पास रहे थे । गुरुओं का चरित्र विद्यार्थियों को प्रभावित करता था । गुरुकुल जंगलों में ही होते थे सो बात नहीं । गुरुकुल गाँवों में भी होते थे । आगे, गुरुकुलों में जब विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने लगी तो गुरु कक्षा के सबसे योग्य छात्रों की सहायता अध्यापन कार्य में लेने लगे। गुरुओं की अनुपस्थिति में ये योग्य छात्र अध्यापन कार्य करते थे । इनको पिति आचार्य कहा जाता था ।
  11. कटुम्ब का महत्त्व – प्राचीन विचारकों का मत था कि गर्भ से ही बच्चा अपना चरित्र निर्माण करने लगता है । प्रहलाद और अभिमन्यु पर जन्म के पहले ही क्रमश: नारद और कृष्ण का प्रभाव पड़ा था। इसलिए माताओं को सलाह दी जाती थी कि वे महान नायक और नायिकाओं के जीवन चरित्र का आह्वान करें और उनकी उपलब्धिओं पर मनन करें । आगे, कुटुम्ब ही बच्चों का प्रथम स्कूल माना जाता था । बच्चों को पिता द्वारा ही घर पर ही गुणा, व्याकरण आदि सिखा दिये जाते थे । लड़की की शिक्षा के सम्बन्ध में तो घर या.कुटुम्ब का विशेष महत्त्व होता  था ।
  12. प्रकृति एवं प्रशिक्षण-प्रकृति एवं प्रशिक्षण के सापेक्ष महत्त्व पर विद्वानों में मतैक्यता नहीं । पाश्चात्य विद्वान् प्लेटो के अनुसार, सारा ज्ञान आदमी में ही निहित है; उसे सिर्फ उसकी याद दिलाना है। डार्विन, गाल्टन और रिवाट ने आनुवांशिकता पर बहुत जोर दिया । शॉपेनहायर के अनुसार, मानवीय चरित्र अपरिवर्त्तनशील है । हरबर्ट और लॉक के अनुसार, प्रकृति के बजाय प्रशिक्षण का अधिक महत्त्व है। वैदिक आर्यों ने आनुवांशिकता और प्राकृतिक प्रतिभा पर अधिक जोर नहीं दिया। उनके अनुसार, आदमी के लिए कुछ भी असम्भव एवं कठिन नहीं । ज्यादा प्रशिक्षण अच्छी शिक्षा पर आधरित है। पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों के आधार पर कोई ब्राह्मण कुटुम्ब में जन्म ले सकता है और प्रकृति द्वारा वह ब्राह्मण के गुणों से सम्पन्न हो सकता है, परन्तु यदि वह आवश्यक शिक्षा प्राप्त नहीं करता तो शूद्र से बेहतर नहीं होगा ।
  13. जाति प्रथा का प्रभाव – जाति व्यवस्था ने प्राचीन भारत में शिक्षा को काफी प्रभावित किया । जाति ने व्यवसाय निर्धारित किये और अध्यापन कार्य को ब्राह्मणों का एकाधिकार बनाया, परन्तु हमें यह भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रियों ने वैदिक ऋचायें रची थीं, कुछ ब्राह्मणों ने अश्वपति, जनक, प्रवाहन, जैवाली आदि क्षत्रियों से शिक्षा प्राप्त की थी । स्मृतियों में लिखा है कि कठिनाई के समय को छोड़कर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के धन्धे को अपना सकते थे । फिर भी हमें यह पता चलता है कि कुछ ब्राह्मण सैन्य विज्ञान की शिक्षा थे । पाण्डव और कौरवों को ब्राह्मण द्रोणाचार्य ने शिक्षा दी थी ।
    आगे, हमें यह पता चलता है कि उपनयन के बाद ब्राह्मण 12 वर्ष तक वेदाध्ययन करे, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं था । कुछ को छोड़कर अन्य आवश्यकतानुसार वैदिक मन्त्र वगैरह याद करते थे, तथा दर्शन, व्याकरण और संस्कृत साहित्य का अध्ययन करते थे । स्मृति के अनुसार उपनयन के बाद क्षत्रियों और वैश्यों को भी वेदाध्ययन करना होता था । शूद्र लोग वैदिक शिक्षा और अनुष्ठान से वंचित थे ।
  14. छात्र जीवन सम्बन्धी नियम – छात्र नियमित जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ खान-पान, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार आदि के नियमों का पालन अनिवार्य रूप से करते थे । ये इस प्रकार थे—
    1. खान-पान—मनु के अनुसार विद्यार्थियों चाहिए— प्रातःकाल और सायंकाल । छात्र मांस, मधु-पान और बासी भोजन नहीं करते थे ।
    2. वेशभूषा – शरीर के निम्न भाग को ढँकने के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य छात्र क्रमश: सूत, रेशम, और ऊन के वस्त्रों का प्रयोग करते थे । ऊपरी भाग के लिए क्रमशः काले मृग, चित्तदार मृग और बकरे की खालों का प्रयोग होता था। छात्रों को हर प्रकार के फैशन से दूर रहने का आदेश था । सुगन्धित काजल, छाते तथा जूतों का प्रयोग वर्जित था । वे केश सज्जा नहीं कर सकते थे ।
    3. आचार-व्यवहार—छात्रों को अनेक मर्यादाओं का पालन करना पड़ता था । वे आत्म-संयम, आत्म-नियन्त्रण और पवित्रता का जीवन व्यतीत करते थे। उनसे आशा की जाती थी कि वे असत्य भाषण, दम्भ, गाली गलौच और चुगलखोरी से यथा सम्भव अपने को दूर स्खेंगे । वे धन और प्रत्येक प्रकार की सम्पत्ति से अपने को दूर रखते थे, तथा संगीत, नृत्य और जुआ आदि उनके लिए पूर्णतया निषिद्ध था । स्त्रियों से छात्र केवल काम की बात ही करते थे। उनसे अधिक मिलना वर्जित था |
  15. निःशुल्क शिक्षा एवं बाह्य नियन्त्रण से मुक्ति – छात्रों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था । शिक्षा समाप्ति पर वे स्वेच्छा से अपने गुरु को दक्षिणा प्रदान करते थे । किसी प्रकार का बाह्य नियन्त्रण भी नहीं था ।
  16. समापवर्तन उपदेश – शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब छात्र सामाजिक जीवन में प्रवेश करते थे तब उन्हें अन्तिम बार सद्गुणों से प्रेरित करने के लिए ‘समापवर्तन उपदेश’ देते थे ।
  17. अध्ययन विषय – बी. एन. पुरी के अनुसार, कुछ विषयों का अध्ययन सभी कर सकते थे, किन्तु कुछ विषयों का केवल वर्ण और वर्ग के साथ सम्बद्ध था ।
  18. शिक्षा सत्र एवं शिक्षा काल — सत्र तो 4½ या 5½ मास का होता था । शिक्षण काल के बारे में विशेष जानकारी नहीं । शायद प्रातः काल से मध्याह्न तक और फिर भोजनादि के बाद कुछ देर विश्राम पश्चात् सायंकाल तक चलता होगा ।
  19. शिक्षा पद्धति – शिक्षण पद्धति का आधार मनोवैज्ञानिक था और मौखिक एवं चिन्तन-मनन विधियों को प्रश्रय दिया गया था । शिक्षाकाल में गुरु शिष्य दोनों ही सक्रिय रहते थे और शिष्य अपनी शंकायें प्रस्तुत करते थे । गुरु उन शंकाओं का समाधान कर छात्रों में अन्वेषण वृत्ति उत्पन्न करता था ।

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