फ्राइड के मनो विश्लेषण सिद्धान्त की आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

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प्रश्न – फ्राइड के मनो विश्लेषण सिद्धान्त की आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
(Critically examine the Freud’s Psycho-analytical theory.) 
उत्तर- फ्रॉयड के व्यक्तित्व सिद्धान्त की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं। फ्रॉयड ने सर्वप्रथम मन की तीन दशाएँ बतायी हैं—
  1. चेतन (Conscious) ― चेतना का सम्बन्ध वर्तमान से होते हैं। चेतन मन के कई उदाहरण हमारे दैनिक जीवन में मिलते हैं— जैसे परीक्षा भवन में परीक्षार्थी का प्रश्नों के उत्तर लिखते रहना। फ्रॉयड के अनुसार चेतना अचेतन का वह भाग है तो तत्कालिक ज्ञान से सम्बन्धित रहता है।
  2. अचेतन (Unconscious) – फ्रॉयड के अनुसार मन का सबसे बड़ा भाग अचेतन होता है। उसने अचेतन मन की तुलना बर्फ के टुकड़े से की है जिसका अधिकाँश भाग पानी में डूबा रहता है। यह भाग हमें दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बर्फ के टुकड़ों का जो कम भाग तैरता है उसे हम चेतन कहते हैं तथा जो भाग डूबा रहता है उसे अचेतन कहते हैं ।
  3. अर्द्ध- चेतन (Pre-conscious) – यह चेतन अवस्था की ऊपरी सहत होती है। कुछ स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जो आसानी से बिना किसी प्रयास के चेतन अवस्था में आ जाती हैं, इन्हें अर्द्ध- चेतन कहते हैं। उदाहरणार्थ- जीभ का लड़खड़ा जाना, परिचित नामों को भूल जाना, वस्तुओं को गलत जगह पर रख देना इत्यादि। ये सभी क्रियायें अर्द्ध-चेतन में आती हैं।

व्यक्तित्व संरचना की दृष्टि से फ्रॉयड Id, Ego, Super Ego को महत्त्व देता है-

इदं (Id) – फ्रायड ने Id को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। यह जीवन व मृत्यु दोनों मूल प्रवृत्तियों का केन्द्र है। इसकी उत्पत्ति बच्चे के जन्म के साथ ही हो जाती है। यह इच्छाओं की जननी है। इसे उचित-अनुचित का कुछ ज्ञान नहीं होता क्योंकि यह आनन्द सिद्धान्त (Pleasure-Principle) को मानता है जिसके कारण इसका मुख्य उद्देश्य केवल आनन्द प्राप्त करना ही है ।

अहं (Ego ) – अहं को वास्तविकता सिद्धान्त (Reality Principle) कहते हैं। यह हमारे व्यवहार पर नियन्त्रण करता है। साथ ही, हमारी इच्छाओं तथा वास्तविकताओं के बीच सन्तुलन बनाये रखता है। अहं का कार्य एक पुल की तरह है जो Id तथा Super-Ego के बीच होता है। इसे इन दोनों को मनाना होता है। इसलिये इसे मन का शासक कहा जाता है।

परह- अहं (Super-Ego)– इसका विकास सबसे देर में होता है तथा इसे आदर्शवादी या नैतिकता का सिद्धान्त (Idealistic Principle) कहते हैं। यह वह शक्ति है जो आदमी को सामाजिक बनाये रखती है। इसी के आधार पर व्यक्ति के अंदर पछतावे की भावना आती है। इसे हम आत्मा की आवाज भी कह सकते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बढ़ती जाती है इड कमजोर होता जाता है तथा सुपर- इगो विकसित होता जाता है। फ्रायड ने इन तीनों में सम्बन्ध भी बताया है।

फ्रॉयड के सिद्धानत के कुछ अन्य मुख्य प्रत्यय इस प्रकार हैं –

लिबिडो (LIBIDO) – फ्रॉयड काम-शक्ति को ‘लिबिड़ो’ कहता है। इसका सम्बन्ध मूल रूप से व्यक्ति की कामुकता से होता है। लिबिडों के अन्तर्गत केवल काम-वासना की संतुष्टि को ही नहीं रखा जा सकता बल्कि इसके अन्तर्गत वे सभी व्यवहार आते हैं जिनका सम्बन्ध प्रेम, स्नेह, लगाव आदि से होता है। व्यक्ति के वे सभी कार्य जिनसे सुख मिलता है, लिबिडो से सम्बन्धित होते हैं। यह एक ऐसी शक्ति है जो हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। जब लिबिडो का प्रभाव स्वयं से हटकर अन्य व्यक्तियों में प्रवाहित होने लगता है और व्यक्ति प्रेम का प्रदर्शन करने लगता है तो उसे विषय प्रेम (Object love) कहते हैं।

शैशव – कामुकता (Infantile Sexuality)–फ्रॉयड के अनुसार छोटे बच्चों में भी काम-वासना होती है लेकिन यह काम-वासना किशोरावस्था की काम-वासना से भिन्न होती है। शिशु अपनी काम-वासना की पूर्ति स्वयं से ही करता है तथा इन क्रियाओं में बच्चे की पेशाब व शौच क्रिया से चिपटना, अँगूठा चूसना आदि सम्मिलित हैं। इस प्रकार, शैशव कामुकता तीन चरणों में अपना क्रम पूरा करती है— चूषण अवस्था, गुदा अवस्था तथा जननेन्द्रिय अवस्था। चूषण अवस्था में बच्चा काम-वासना का सुख माँ का स्तनपान करके लेता है। गुदा अवस्था में बालक देर से शौच जाकर गुदा- सुख प्राप्त करता है तथा जननेन्द्रिय अवस्था में बालक अपनी जननेन्द्रियों को स्पर्श करने में अधिक रुचि लेता है। इस अवस्था में बच्चों में प्रदर्शन की भावना तीव्र रहती है। बच्चे भाई-बहन या माँ-बाप को नंगा देखने का अवसर ढूंढते हैं। जब बच्चों को कमरे से बाहर जाने या दूसरे कमरे में सोने को कहा जाता है तो उन्हें आभास हो जाता है कि माँ-बाप के बीच कोई विशेष क्रिया होती है।

ऑडिपस ग्रन्थि (Oedipus Complex)— ऑडिपस ग्रन्थि का आधार एक घटना है। यूनान देश में एक ऑडिपस नाम का राजा था। कुछ राजनैतिक कारणों से उसे अपने पिता की हत्या करनी पड़ी और उसने अपनी माँ से विवाह कर लिया। उनके विवाह के बाद चार बच्चे हुए। बहुत समय बाद यह रहस्य खुला कि उसकी पनि उसकी माँ है। इस बात से उसे इतना कष्ट हुआ कि उसने अपनी आँखे ही निकलवा दीं और कष्टमय जीवन जीने लगा। फ्रॉयड ने इस घटना के आधार पर कहा कि ऑडिपस की ही तरह चार-पाँच साल का बच्चा अपनी माँ से शादी की इच्छा करता है तथा पिता से घृणा करता है लेकिन क्योंकि पिता उसका पालन-पोषण करता है इसीलिये वह उसे प्रेम करने लगता है।

जिस प्रकार लड़के की काम-वासना माँ की ओर होती है उसी प्रकार लड़की की काम-वासना पिता की ओर मुड़ जाती है। लड़की के अन्दर यह ग्रन्थि बन जाती है कि उसमें पिता के समान शिशन क्यों नहीं है। इस प्रकार की ग्रन्थि को इलेक्ट्रा कहा जाता है। फ्रॉयड स्वयं इस ग्रन्थि का शिकार था। उसका पिता अत्यन्त बूढ़ा था और माँ जवान थी।

स्व-मोह (Narcissism)– कभी-कभी बच्चा अपने ही रूप पर मोहित होकर अपने आप से ही प्रेम करने लगता है। फ्रॉयड ने इस स्व-मोह या नार्सिज्जिम कहा है। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है। कहते हैं कि ग्रीक देश में नार्सिसस नाक का एक अति सुंदर युवक था। एक दिन यह बालक जंगल में गया। वहाँ उसे प्यास लगी। पास में ही तालाब था। जब वह इस तालाब में पानी पीने के लिये झुका तो उसे पानी में एक सुन्दर चेहरा दिखाई दिया जो उसकी स्वयं की परछाई थी। वह इस परछाई को देखकर मुग्ध होता रहा और भूख प्यास के कारण मर गया। कहते हैं जिस स्थान पर उसकी मृत्यु हुई थी वहाँ एक सुन्दर पौधा उगा और लोगों ने इस पौधे का नाम बच्चे के नाम पर ही ‘नरगिस ‘ रख दिया।

फ्रॉयड के अनुसार ऐसा थोड़ा बहुत सबके साथ होता है। कुछ व्यक्ति वास्तव में ऐसे होते हैं जिन्हें अपने शारीरिक अंगों पर गर्व होता है। वे शीशे में बार-बार अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं तथा इतने कामुक हो जाते हैं कि अपने ही शारीरिक अंगों को ऐसे चूमने लगते हैं जैसे किसी दूसरे के शरीर को चूम रहे हों। फ्रॉयड ने ऐसे लोगों को नार्सिसस कहा है।

मूल-प्रवृत्तियाँ (Instincts)— फ्रॉयड ने दो प्रकार की मूल प्रवृत्तियाँ मानी हैं— जीवन ‘मूल प्रवृत्ति तथा मृत्यु – प्रवृत्ति (Life and Death Instinct) । फ्रॉयड ने जीवन मूल प्रवृत्ति को प्रेम मूल-प्रवृत्ति भी कहा है। यह मूल प्रवृत्ति वासनामयी आवेगों को जन्म देती है तथा व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान व अन्य रचनात्मक कार्य करने के लिये प्रेरित करती है। बौद्धिक विकास भी इसी मूल प्रवृत्ति से होता है।

मृत्यु मूल प्रवृत्ति के अन्तर्गत निर्माण, प्रेम की ही बातें नहीं सोचता बल्कि वह विध्वंस, आक्रमण और घृणा की भावना से भी भरा होता है। यह मूल प्रवृत्ति मानव जीवन को तहस-नहस करने के लिये विवश करती है। ये दोनों मूल प्रवृत्तियाँ एक-दूसरे की विरोधी नहीं हैं बल्कि जुड़ी हुई हैं। उदाहरणार्थ- बड़े से बड़े प्रेमी में भी अपनी प्रेमिका के प्रति घृणा व सताने की भावना पाई जाती है। ठीक इसी प्रकार बड़े से बड़े डाकूओं में भी प्रेम, सहानुभूति व गरीबों के प्रति दया भाव पाया जाता हैं।

फ्रॉयड (Freud) ने व्यक्तित्व विकास की व्याख्या दो दृष्टिकोणों के आधार पर की है। पहला दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि व्यस्क व्यक्तित्व बाल्यावस्था की विभिन्न प्रकार की अनुभूतियों द्वारा नियन्त्रित होता है तथा दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार जन्म के समय बालक में लैंगिक आधार (Sexual category) विद्यमान रहती है जो विभिन्न मनोलैंगिक अवस्थाओं (Psychosexual stages) से होकर विकसित होती है। फ्रॉयड के इस दूसरे दृष्टिकोण को मनोलैंगिक विकास का सिद्धान्त (Theory of psychosexual development) कहा जाता है।

फ्रॉयड द्वारा प्रतिपादित मनोलैंगिक विकास के सिद्धान्त की पाँच अवस्थाएँ निम्नांकित हैं —

(i) मुखावस्था (Oral stage )
(ii) गुदावस्था (Anal stage )
(iii) लिंगप्रधानावस्था (Phallic stage)
(iv) अव्यक्तावस्था ( Latency stage )
(v) जनेन्द्रियावस्था (Genital stage)

इनका वर्णन निम्नांकित है—

  1. मुखावस्था (Oral Stage)—मुखावस्था मनोलैंगिक विकास की पहली अवस्था है जो जन्म से लेकर करीब 1 साल की उम्र तक होती है। इस अवस्था का कामुकता क्षेत्र (erogeneous zone) मुँह होता है। फलस्वरूप बच्चा मुँह द्वारा की जानी वाली सभी क्रियाओं जैसे—चूसना (sucking), निगलना (swallowing), जबड़ा (jaw) से कोई चीज दबाना आदि लैंगिक सुख प्राप्त करता है। फ्रायड के अनुसार इस अवस्था पर अधिक या कम मात्रा में मुखवर्ती उत्तेजन (oral stimulation) होने से वयस्कावस्था (adulthood) में दो तरह के व्यक्तित्व विकसित होते हैं— मुखवर्ती निष्क्रिय व्यक्तित्व (Oral-passive personality) तथा अनुवर्ती आक्रामक व्यक्तित्व (oral-aggressive personality)। मुखवर्ती-निष्क्रियत व्यक्तित्व वाले व्यक्ति आशावादी होते हैं तथा उन्हें दूसरे व्यक्तियों पर विश्वास अधिक होता है । इनमें निष्क्रियता तथा दूसरों पर अत्यधिक निर्भरताका पाया जाता है। मुखवर्ती – आक्रामक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों पर अधिक प्रभुत्व दिखलाते हैं तथा उनकी बुरी तरह से शोषण भी करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को परपीड़न कार्यों ( sadistic activities) में अधिक अभिरुचि होती है।
  2. गुदावस्था (Anal Stage )—यह अवस्था जीवन का पहला साल समाप्त होने पर प्रारंभ होता है तथा दूसरे साल की अवधि समाप्त होने तक बनी रहती है। दूसरे शब्दों में यह अवस्था 2 से 3 साल के आयु के बीच होती है। इस अवस्था में कामुकता, क्षेत्र (erogeneous zone) मुँह से हटकर शरीर के गुदा क्षेत्र (anal region) में आ जाता है । ‘ फलस्वरूप, बच्चे मल-मूत्र त्यागने से संबंधित क्रियाओं से आनन्द उठाते हैं। इस अवस्था पर अधिक या कम उत्तेजना होने पर वयस्कावस्था में दो तरह के व्यक्तित्व विकसित होते हैं— गुदा – आक्रामक व्यक्तित्व (anal-aggressive personality) तथा गुदा धारणात्मक व्यक्तित्वं (anal-retentive personality)। गुदा- आक्रामकता व्यक्तित्व में क्रूरता (cruelty),. विनाशिता (destructiveness), विद्वेष (hostility), क्रमहीनता ( disorderliness) आदि शीलगुणों की प्रधानता होती है तथा गुदा- धारणात्मक व्यक्तित्व (anal-retentive personality) में हठ, कंजूसी, क्रमबद्धता (Orderliness) तथा समयनिष्ठा आदि के गुणों . की प्रधानता होती है।
  3. लिंगप्रधानावस्था (Phallic Stage)-मनोलैंगिक विकास की यह तीसरी अवस्था होती है जो जीवन के चौथे से पाँचवे साल के दौरान की अवस्था है। इस अवस्था का कामुकता क्षेत्र जनेन्द्रिय (gental) होता है। लड़कियों की जनेन्द्रियों को योनि (vagina) तथा लड़कों के जनेन्द्रिय को शिशन (Penis) कहा जाता है । फ्रायड का कहना था कि इस अवस्था में प्रत्येक लड़का में मातृ-मनोग्रन्थि (oedipus complex) तथा प्रत्येकु लड़की में पितृ-मनोग्रन्थि (electra complex) विकसित होता है। अतः ये दोनों ही ग्रन्थियाँ सर्वसार्विक (universal) होती हैं। मातृ मनोग्रन्थि (oedipus complex) में लड़का अचेतन रूप से (unconsciously) अपनी माता से लैंगिक प्रेम तथा रतिक्रिया (sexual intercourse) की इच्छा करता है तथा पिता से घृणा करता है। बालक चूँकि यह समझता है कि यह पिता को मान्य नहीं होगा, अतः वह पिता से डरता है और सोचता है कि पिता उसके लिंग (penis) को ही काट देंगे या. कटावा देंगे। इस चिंता को बंधियाकरण चिन्ता (castration anxiety) की संज्ञा दी गयी है जिससे वयस्कावस्था में तंत्रिकातापी चिन्ता (neurotic anxiety) उत्पन्न होती है। पितृ-मनोग्रन्थि में अचेतन रूप से लड़की पिता से लैंगिक सुख चाहती है तथा माता से घृणा करती है। लड़कियों में माँ के प्रति घृणा का एक कारण यह होता है कि वह यह सोचती है कि उसके पास पिता या अपने भाई के समान लिंग नहीं है जो होना चाहिए था। उसकी माँ ने ही उसे लिंग से. वंचित कर दी हैं। इसे फ्रॉयड ने लिंग-ईर्ष्या (penis envy) कहा है जो लड़कों में पाये जाने वाले बंधियाकरण चिन्ता (castration anxiety) के तुल्य है। इन मनोग्रन्थियों का सफलतापूर्वक समाधान होने से लड़का तथा लड़की में नैतिकता (morality) विकसित होता है। परन्तु ठीक ढंग से समाधान नहीं होने पर उसका कुप्रभाव वयस्क व्यक्तित्व पर सीधा पड़ता है।
  4. अव्यक्तावस्था (Latency Stage)—मनोलैंगिक विकास की यह चौथी अवस्था है जो लिंगप्रधानावस्था (phallic stage) के बाद प्रारंभ होती है। यह अवस्था 6 या 7 साल के उम्र से प्रारंभ होकर लगभग 12 वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में बच्चों में कोई नया कामुकता क्षेत्र विकसित नहीं होता है तथा साथ-ही-साथ लैंगिक इच्छाएँ (sexual wishes) भै सुषुप्त (dormant) हो जाती हैं। सही अर्थ में इस अवस्था में लैंगिक इच्छाओं (sexual energy) का उदात्तीकरण (sublimation) होता पाया जाता है अर्थात् इच्छाओं की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार के अलैंगिक क्रियाओं (non-sexual activities) जैसे— शिक्षा, चित्रकारी, खेल-कूद आदि के रूप में होती है। तकनीकी रूप से (technically) इस अवस्था को मनोलैंगिक विकास की एक अवस्था नहीं मानी गयी है क्योंकि इसमें कोई नया कामुकता क्षेत्र (erogeneous zone) तो विकसित होता नहीं है।
  5. जननेंद्रियावस्था (Genital Stage)–मनोलैंगिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है जो 13 वर्ष की आयु से प्रारंभ होकर निरन्तर चलती रहती है। इस अवस्था में किशोरावस्था (adolescence) तथा प्रौढ़ावस्था (adulthood) दोनों ही सम्मिलित होते हैं। इस अवस्था में किशोर एवं किशोरियों में अनेक तरह के शारीरिक परिवर्तन होते हैं तथा ग्रन्थीय विकास (glandular development) परिपक्व हो जाते हैं। इस अवस्था के प्रारंभ के कुछ वर्ष जो किशोरावस्था के वर्ष होते हैं, में व्यक्तियों में अपने ही लिंग के व्यक्तियों के साथ रहने, उठने-बैठने एवं बातचीत करने की प्रवृत्ति अधिक तीव्र होती है। इसे क्रॉयड ने समलिंगकामुकता (homosexuality) कहा है। फ्रॉयड का दावा है कि प्रारंभिक किशोरावस्था में सभी व्यक्ति में समलिंगकामुकता की प्रवृत्ति होती है। परन्तु धीरे-धीरे जैसे-जैसे व्यक्ति प्रारंभिक किशोरावस्था से निकलकर वयस्कावस्था (adulthood) में प्रवेश करता है तो उसकी समलिंगकामुकता प्रवृत्ति कम होने लगती है और उसमें यौन के व्यक्तियों के प्रति आकर्षण (attraction) बढ़ने लगता है और व्यक्ति में समलिंगकामुकता (homosexuality) की जगह पर विषमलिंग कामुकता (heterosexuality) विकसित होने लगती है। इस अवस्था में व्यक्ति शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से परिपक्व हो जाता है और वह सामाजिक रूप से अनुमोदित लैंगिक संबंध स्थापित कर एक संतोषजनक जिन्दगी की ओर अग्रसर होता है।

स्पष्ट है कि मनोलैंगिक अवस्थाओं (psychosexual stages) से होकर व्यक्ति की लैंगिक ऊर्जा (sexual energy) का धीरे-धीरे विकास होता जाता है जिससे व्यक्ति बाल्यावस्था की निष्क्रियता (passivity) को त्याग कर वयस्कावस्था में सामाजिक रूप से उपयोगी एवं सुखमय जीवन जीता है।

फ्रॉयड (Freud) के सिद्धान्त के कुछ गुण (merits) एवं परिसीमाएँ (limitations) हैं। इसके कुछ गुण निम्नांकित हैं

  1. फ़्रॉयड का यह सिद्धान्त काफी विस्तृत (comprehensive) एवं चुनौतीपूर्ण है। इसके व्यक्तित्व विकास की व्याख्या बोधगम्य (understandable) भाषा में की गयी है।
  2. फ्रॉयड के सिद्धान्त के अधिकांश संप्रत्यय ऐसे हैं जो आधुनिक व्यक्तित्व मनोवैज्ञानिकों के लिए इस क्षेत्र में वर्णनात्मक शोध (descriptive research) करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण साधन (tool) साबित हुए।
  3. फ्रॉयड के सिद्धान्त का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि जिसके माध्यम से मानव व्यवहार के बारे में ज्ञात तथ्यों को तार्किक रूप से मनोवैश्लेषिक ढाँचे में आसानी से ढाला जा सकता है।
इन गुणों के बावजूद मनोवैश्लेषिक सिद्धान्त (psychoanalytic theory) की कुछ खामियाँ है जिनमें निम्नांकित प्रमुख है-
  1. फ्रॉयड के मनोवैश्लेषिक सिद्धान्त की विधि वैज्ञानिक नहीं है। चूँकि उन्होंने अपने शोधों को क्रमबद्ध रूप से (systematically) वर्णन नहीं किया है, अतः उनसे सही-सही प्राक्कल्पना (hypothesis) तैयार करना संभव नहीं हो पाया है।
  2. फ्रॉयड के सिद्धान्त के बहुत सारे संप्रत्यय अस्पष्ट शब्दों में वर्णित हैं तथा उनकी अनुभवजन्य जाँच (empirical test) भी संभव नहीं है और उन्हें मात्र अजाँचनीय सैद्धान्तिक संप्रत्यय (theoretical concepts) के रूप में किसी तरह से लोगों द्वारा स्वीकार किया गया है। लुंडिन (Lundin, 1985) के अनुसार पराहं (super ego) तथा मानसिक ऊर्जा (psychic energy) दो ऐसे संप्रत्यय (concept) के उदाहरण हैं जिनके अस्तित्व को न तो अब तक साबित किया जा सकता है और न उन्हें खंडित ही किया गया है।
  3. आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि फ्रॉयड ने अपने सिद्धान्त को व्यक्तिगत प्रेक्षण (personal observation) पर आधारित किया है जिसके अधिकतम अंश उनके अपने व्यवहार के विश्लेषण से प्राप्त हुए थे तथा कुछ अंश उनके उपचार – गृह (clinic) में आये मानसिक रोगियों (mental patients) द्वारा बतलाये गये अनुभूतियों पर आधारित थे। इन आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि ऐसी सीमित अनुभूतियों के आधार पर ( और वह भी रोगियों की अनुभूतियों के आधार पर) सामान्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन करना युक्तिसंगत नहीं है ।
  4. फ्रॉयड ने अपने व्यक्तिगत सिद्धान्त में लैंगिक ऊर्जा (sexual energy) पर जरूरत से जयादा बल डाला है। उनका यह कहना कि जन्म के समय ही बच्चे में लैंगिक ऊर्जा मौजूद रहती है तथा जिसका विकास धीरे-धीरे बाल्यावस्था के मनोलैंगिक अवस्थाओं के माध्यम से होता है, आधुनिक मनोवैज्ञानिकों को मान्य नहीं है।
  5. कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि फ्रॉयड के सिद्धान्त के कुछ संप्रत्यय (concept) जरूरत से ज्यादा पौराणिक एवं काल्पनिक कथाओं पर आधारित हैं जिनकी वास्तविकता विश्वास की सीमा से बाहर मालूम पड़ती है। मातृ-मनोग्रन्थि (oedipus .complex) एक ऐसा ही संप्रत्यय है। लुंडिन (Lundin, 1985) के अनुसार यह कहना कि एक अपरिपक्व बालक अपने अचेतन में अपने माता या पिता से यौन संबंधं चाहता है, बिल्कुल ही एक बेतुकी बात लगती है। इतना ही नहीं, फ्रॉयड ने इस ग्रन्थि को एक सार्वजनिक घटना (universal phenomenon) कहा है जो सभी प्रजाति (race) के बच्चों में पाया जाता है। परन्तु ऐसी अनेक संस्कृति (culture) हैं जहाँ पिता एवं पुत्र में विद्वेष (rivalry) का कारण परिवार में पिता का प्रबल एवं शक्तिशाली स्थान होता है न कि किसी तरह की लैंगिक ईर्ष्या (sexual jealousy ) ।

इन अलोचनाओं के बावजूद फ्रायड द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व का सिद्धान्त आधुनिक व्यक्तित्व मनोवैज्ञानिकों के लिए महत्त्वपूर्ण प्रेरणा का स्त्रोत रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि व्यक्ति के दिन-प्रतिदिन के व्यवहार पर फ्रॉयड के सिद्धान्त का काफी प्रभाव बड़ा है। हाल तथा उनके सहयोगियों (Hall et al., 1985) ने बहुत ही सटीक शब्दों में टिप्पणी करते हुए कहा है, “सही या गलत, सिगमण्ड फ्रायड ने व्यक्तित्व मनोविज्ञान को जाँच के एक सही सस्ते पर ला रखा है और उसके लिए हम सभी लोग उनके अभारी हैं। ”

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