भारतीय संस्कृति में स्वामी विवेकानन्द के योगदान की वर्णन करें ।

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प्रश्न – भारतीय संस्कृति में स्वामी विवेकानन्द के योगदान की वर्णन करें । 

उत्तर – रामकृष्ण परमहंस के अध्यात्मवाद ( Spiritualism), सभी धर्मों की एकता, मनुष्य-मात्र की सेवा (Service to humanity), आदि विचारों को संसार में फैलाने का कार्य उनके शिष्य विवेकानन्द ने किया। स्वामी निर्वेदानन्द ने लिखा है : “शिष्य की आवाज द्वारा वास्तव में संसार गुरु की आवाज सुन रहा है । शिष्य गुरु का क्रियात्मक पूरक है । यदि गुरु का जीवन अमूल्य सिद्धान्तों की पुस्तक है तो शिष्य का जीवन उनके सिद्धान्तों की व्याख्या करते हुए, उनका व्यावहारिक स्वरूप है ।” अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले रामकृष्ण परमहंस ने बाह्य संसार से अपना सम्बन्ध समाप्त करके अपनी सम्पूर्ण शक्तियाँ स्वामी विवेकानन्द को सौंप दी थीं और उनसे कहा था : “ओ, नरेन, आज मैंने अपना सब कुछ तुम्हें दे दिया है और मैं भिखारी हो गया हूँ । इस शक्ति को लेकर तुम महान् कार्य करोगे और उसके पश्चात् तुम उस जगह वापस जाओगे जहाँ से तुम आये हो ।” इस प्रकार रामकृष्ण ने अपने विचारों को संसार में फैलाने का उत्तरदायित्व स्वामी विवेकानन्द पर सौंपा।

स्वामी विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था । उनका जन्म कलकत्ता के एक धनवान क्षत्रिय परिवार में 1863 ई. में हुआ । उन्होंने अंग्रेजी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की और स्नातक की श्रेणी (B.A.) तक शिक्षा ग्रहण की । वह आरम्भ में ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए थे और उन्होंने जॉन स्टुअर्ट मिल, ड्यूमा, हर्बर्ट स्पेन्सर आदि के दर्शन का विस्तृत अध्ययन किया । एक सम्बन्धी के कहने से वह दक्षिणेश्वर के मन्दिर में रामकृष्ण से मिलने गये । रामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ को देखते ही उन्हें अपने पास बुलाया और कहा : ‘आह, तुम बहुत देर से आये………… तुमने संसार के दुःखों को दूर करने के लिए भगवान नारायण के अवतार के रूप में जन्म लिया है । ”

जिस समय नरेन्द्रनाथ की स्वामी रामकृष्ण से प्रथम भेंट हुई थी उस समय उनके और रामकृष्ण के विचारों में कोई समानता न थी । रामकृष्ण हिन्दू धर्म के प्रतीक थे जबकि नरेन्द्रनाथ पश्चिम से प्रभावित तर्क, विचार और बुद्धिवाद में विश्वास करने वाले थे। उन्होंने पश्चिमी दर्शन के अतिरिक्त ब्रह्म-समाज के एकेश्वरवाद का भी गम्भीरता से अध्ययन किया था । उन्होंने शैली (Shelly,, वर्ड्सवर्थ (Eerdsworth), हीगल, दान्ते और फ्रांस की क्रान्ति से उत्पन्न स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृ-भाव के विचारों को पढ़ा था और रूसो (Rousseau), मिल तथा स्पेन्सर जैसे दार्शनिक उनके लिए प्रिय रहे थे। उन्हें ईश्वर की उपस्थिति में शंका थी । उनके और रामकृष्ण जैसे ईश्वर की उपस्थिति और अवतारों में विश्वास करने वाले सन्त के विचारों में कैसे समानता हो सकती थी ? नरेन्द्रनाथ की आत्मा सत्य और ज्ञान की खोज में अवश्य थी परन्तु वह विश्वास नहीं कर सकते थे कि वह सत्य और ज्ञान उन्हें एक अशिक्षित सन्त से प्राप्त होगा । परन्तु रामकृष्ण परमहंस का प्रभाव धीरे-धीरे उन पर होता गेया । उन्होंने तर्क, बुद्धि तथा अन्य सभी प्रकार से रामकृष्ण परमहंस से बातचीत की परन्तु अन्त में उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि रामकृष्ण का बताया हुआ मार्ग ही सत्य है । रामकृष्ण ने अपनी मृत्यु के अवसर पर अपने नवयुवक शिष्यों का नेतृत्व नरेन्द्रनाथ को दिया और कहा, “ मैं इन नवयुवकों को तुम्हारी देखभाल में छोड़ता हूँ। यह देखना कि मेरी मृत्यु के पश्चात् भी यह अध्यात्मवाद की क्रियाएँ करते रहें और अपने घर वापस न जायें । ”

उस समय तक नरेन्द्रनाथ के पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उनकी आर्थिक कठिनाइयाँ बहुत थीं । रामकृष्ण की मृत्यु के पश्चात् उनके बहुत से शिष्य अपने घर चले गये । लेकिन तब भी नरेन्द्रनाथ ने अपने 3 या 4 साथियों के साथ एक मठ निर्माण करने का निर्णय किया । उन्होंने काशीपुर के निकट ‘बारानगर’ में एक टूटे हुए मकान में रहना आरम्भ किया। बाद में मठ में कुछ और नवयुवक आ गये। इस प्रकार, मध्यम वर्ग के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कुछ नवयुवकों से इस मठ का आरम्भ हुआ। आरम्भ में उनको बहुत कठिनाई थी । स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने बाद में लिखा था: “अगर चावल था तो नमक न था, बिम्बा वृक्ष के उबले पत्ते, चावल और नमक महीनों तक हमारा भोजन था। ओह क्या दिन थे ! राक्षस भी ऐसी कठिनाइयों में भाग जाते फिर मनुष्य का तो प्रश्न ही क्या था ।” 1887 ई. में प्रथम बार इस मठ को धार्मिक रूप से ठीक प्रकार स्थापित किया गया जबकि मठ के करीब 12 सदस्यों ने वैदिक क्रियाओं के अनुसार संन्यास ग्रहण किया और अपने नाम बदल डाले । उसी समय नरेन्द्रनाथ का नाम स्वामी विवेकानन्द रखा गया ।

उसके पश्चात् स्वामी विवेकानन्द ने भारत भ्रमण किया। उस अवसर पर उन्हें भारत की दरिद्रता, अज्ञान, अन्धविश्वास और गिरावट का परिचय हुआ और उन्होंने यह सीखना आरम्भ किया कि भारत को किस प्रकार इस विनाश से बचाया जाये । वह सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करते हुए कन्याकुमारी तक गये और वहीं उन्हें पता लगा कि अमेरिका (U.S.A.) के शिकागो नगर में संसार के सभी धर्मों की एक सभा हो रही है। बड़ी कठिनाई से 1893 ई. में वह अमेरिका पहुँचे और वहाँ पर भी बड़ी कठिनाई से उन्हें उस ‘धर्मों की पार्लियामेण्ट’ में बोलने का अवसर मिला। परन्तु उनके प्रथम भाषण ने ही उन्हें सभी की नजरों में उठा दिया । वह उस सभा में 11 या 12 बा बार बोले और जब तक वह सभा समाप्त हुई तब तक उन्होंने अपना और भारत का प्रभाव अमेरिका में स्थापित कर दिया था । ‘न्यूयार्क हेराल्ड’ (New York Herald) ने उन्हें धार्मिक पार्लियामेण्ट का सबसे महान् व्यक्ति कहा और लिखा: “उनको सुनने के पश्चात् हमें यह पता लगा कि उस विद्वान देश में अपने धर्मप्रचारकों को भेजना कितनी मूर्खता है।” उसके पश्चात् स्वामी विवेकानन्द घूम-घूमकर अमेरिका के विभिन्न स्थानों पर हिन्दू धर्म और वेदान्त पर भाषण देते रहे । एक-एक हफ्ते में वह 14 या इससे भी अधिक बार जन-साधारण को भाषण देते थे। वहाँ उन्होंने एक ‘वेदान्त समाज’ की स्थापना की। सितम्बर, 1895 ई. में वह पेरिस होते हुए लन्दन गये और वहाँ पर भी उन्होंने इसी प्रकार धर्म प्रचार किया। वह एक बार पुनः अमेरिका वापस गये और उसके पश्चात् जनवरी 1897 ई. में भारत वापस आ गये ।

भारत आकर स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और भारत की निर्धनता, जाति -प्रथा, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास आदि के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। उनका विश्वास था कि भारत में अपूर्व शक्ति है, उसे सिर्फ जाग्रत करने की आवश्यकता है और वह जागृति धर्म द्वारा ही सम्भव है । 1 मई, 1897 ई. को उन्होंने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की और 1899 ई. में अपने प्राचीन मठ को बैलूर में स्थापित किया जो अब भी रामकृष्ण-मठों का केन्द्र-स्थान है । 1899 ई. में वह पुनः अमेरिका गये और विभिन्न स्थानों पर वेदान्त समाजों की स्थापना की । वहाँ के एक धार्मिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए वह पेरिस गये और वहाँ उन्होंने हिन्दू धर्म के पक्ष के एक धार्मिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए वह पेरिस गये और वहाँ उन्होंने हिन्दू धर्म के पक्ष में भाषण दिये । सम्पूर्ण यूरोप का भ्रमण करते हुए वह 1900 ई. में भारत वापस आ गये । एक बार पुनः बंगाल का भ्रमण किया और बैलूर मठ में हिन्दू रीति से दुर्गा पूजा की । अब उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा था । इसी कारण वह बनारस गये । वहाँ से कलकत्ता वापस आने पर उनका स्वास्थ्य पुनः खराब हो गया और 4 जुलाई, 1902 ई. को उनका देहान्त हो गया । इस प्रकार, जीवन-भर हिन्दू धर्म और मानव-समाज की भलाई करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने 39 वर्ष की अल्पायु में अपना जीवन समाप्त कर दिया ।

भारतीय संस्कृति और जागृति के लिए स्वामी विवेकानन्द का महत्वपूर्ण योगदान है । उन्होंने हिन्दू धर्म, सभ्यता और विचारों की श्रेष्ठता को सम्पूर्ण संसार के सामने व्यक्त किया । हिन्दू अध्यात्मवाद का सहारा लेकर उन्होंने जिस प्रकार हिन्दू धर्म, समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहयोग दिया, वह अद्वितीय है। यही नहीं, बल्कि सभी धर्मों की समानता और मनुष्य-मात्र की सेवा का आधार लेकर जो सन्देश उन्होंने पश्चिमी राष्ट्रों को प्रदान किया वह भी अद्वितीय है । निस्सन्देह, स्वामी विवेकानन्द उदार हिन्दू धर्म और अध्यात्मवाद की जीती-जागती आत्मा थे। स्वामी विवेकानन्द ने सर्वदा यह कहा कि उन्होंने अपने व्यक्तित्व और परिश्रम से अपने गुरु के विचारों को स्पष्ट करके और रामकृष्ण मठ और ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना करके, अपने गुरु के उपदेशों, शिक्षाओं और विचारों को साकार स्वरूप प्रदान किया । रामकृष्ण परमहंस के विचारों को सम्पूर्ण संसार में फैलाने और उन्हें स्थायित्व प्रदान करने का श्रेय स्वामी विवेकानन्द को है ।

हिन्दू धर्म की जागृति – स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म के अंध्यात्मवाद को पुनर्जन्म दिया और एक बार पुन: हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करके उसे ईसाई और इस्लाम धर्म के आक्रमणों से बचाया । स्वयं पश्चिम के व्यक्तियों ने उन्हें तूफानी भ्रमण करने वाला साधु (Cyclonic Monk of India) पुकारा । इससे हिन्दुओं के सम्मान में वृद्धि हुई और हिन्दुओं ने उन्हें भारत का देशभक्त साधु (Patriot Saint of India) पुकारा । स्वामी विवेकानन्द ने न केवल हिन्दुओं को अपनी मानवीय प्रगति का मार्ग बताया बल्कि उन्हें अपने राष्ट्र की प्रगति और सम्मान का भी मार्ग दिखाया । उनके उपदेशों से हिन्दुओं को न केवल अपने धर्म, सभ्यता, उसके प्राचीन गौरव तथा हिन्दू धर्म की श्रेष्ठ अध्यात्मवाद का पता लगा, कि वे पतन की किस श्रेणी तक जा पहुँचे थे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि एक तरफ उनकी शारीरिक दुर्बलता, आलस्य, नपुंसकता, डरपोकपन ने तथा दूसरी तरफ आत्मनिर्भरता, पौरुष, प्रेम, उदारता, आत्मविश्वास आदि की कमी ने उन्हें कितना हीन बना दिया है। अपने प्राचीन गौरव और तत्कालीन दुर्बलताओं की तुलना करने से उनमें प्रगति करने की भावना और आत्मविश्वास आया । स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को यह बताया कि यदि वह एक बार पुनः अपने वेदान्त के आदर्शों पर चलेगा, उन दीवारों को तोड़ डालेगा जिन्होंने मनुष्य को मनुष्य के पृथक् कर रखा है और अपनी आत्मा को समझेगा, तब वह पुनः एक गौरवशाली और शक्तिशाली समाज और राष्ट्र का निर्माण कर सकेगा। उन्होंने मुख्यतः उन व्यक्तियों से धर्म की ओर ध्यान देने के लिए कहा जो राजनीति, अर्थ व्यवस्था और अन्य क्षेत्रों में पश्चिमी सभ्यता के विचारों से प्रभावित होते जा रहे थे। उन्होंने कहा, “मैं समझता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की भाँति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक ऐसा आधार होता है, जो उसकी शक्ति का केन्द्र बिन्दु होता है । एक राष्ट्र में राजनीतिक शक्ति कलात्मक हो सकता है और किसी अन्य को कोई अन्य । भारत में धार्मिक जीवन उसकी शक्ति का केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों तरफ राष्ट्रीय जीवन घूम रहा है और यदि तुम धर्म को छोड़कर समाज और राजनीति या किसी अन्य बात को भी अपने राष्ट्र की शक्ति का केन्द्र मानकर उसमें लग जाओगे तो तुम्हारी शक्ति का केन्द्र बिन्दु नष्ट हो जायेगा और तुम समाप्त हो जाओगे । इसको रोकने के लिए यह आवश्यक है कि तुम अपने प्रत्येक कार्य का आधार धर्म की शक्ति को बनाओ।

हिन्दू अध्यात्मवाद का प्रचार करके और पश्चिमी देशों में उसकी श्रेष्ठता को स्थापित करके स्वामी विवेकानन्द ने न केवल हिन्दू धर्म को उनके अन्धविश्वासों और दुर्बलताओं से ही बचाया बल्कि उसमें एक गौरव और आत्मविश्वास भी उत्पन्न किया जिसके कारण हिन्दू धर्म जाग्रत हो गया और उस हिन्दू धर्म का विकास हुआ जिसे भगिनी निवेदिता (Sister Nivedita) ने उग्र हिन्दू धर्म (Aggressive Hinduism) पुकारा है । उसका अर्थ यह न था कि हिन्दू धर्म ने अन्य धर्मों के व्यक्तियों को अपने धर्म में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया। परन्तु अब हिन्दू अपने धर्म और दर्शन के बारे में लज्जित न रहे । हिन्दुओं ने अब खुले तौर से अपने धर्म और दर्शन के बारे में अपने विचार प्रकट करने आरम्भ किये और कॉलेजों विश्वविद्यालयों और विद्वानों द्वारा हिन्दू धर्म का समर्थन किया गया ।

धार्मिक भावना की जागृति – स्वामी विवेकानन्द ने न केवल हिन्दू धर्म को ही प्रेरणा प्रदान की बल्कि सम्पूर्ण संसार में धर्म और धन्यात्मवाद के महत्व को बढ़ाया । वे धर्म को ‘मनुष्य का देवता जो उसमें स्वतः ही है’ (The manifestation of the divinity that is already in man) मानते थे। उनका कहना था कि धर्म वास्तव में आत्म-ज्ञान है । मनुष्य अपनी प्रकृति पर अधिकार कस्के पूर्णता को प्राप्त करता है और उसी के द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। उनका कहना था : “धर्म न पुस्तकों में है, न बौद्धिक विकास में और न तर्क में । तर्क सिद्धान्त, पुस्तकें, धार्मिक क्रियाएँ आदि केवल धर्म के सहायक हैं । धर्म आत्म-ज्ञान में हैं । उन्होंने धर्म को ‘जीवन का प्राकृतिक और स्वाभाविक अंग’ (natural and normal element of life) पुकारा । उन्होंने धर्म को स्वाभाविक ही नहीं बताया बल्कि आवश्यक भी बताया । उन्होंने बताया । “पूर्णता की प्राप्ति जो धर्म द्वारा ही सम्भव है, मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रकृति है, इस कारण व्यक्ति धर्म से पृथक् नहीं हो सकता ।” उनका कहना था : “मेरा विश्वास है कि धार्मिक विचार मनुष्य के शरीर का एक भाग है । उसके कारण मनुष्य के लिए धर्म को अपने से पृथक् करना उस समय तक सम्भव नहीं है जब तक कि वह अपने मस्तिष्क और शरीर को ही अपने से अलग न कर दे और जब तक कि वह अपने विचार और जीवन को ही समाप्त न कर दे।” परन्तु वह धर्म की आवश्यकता को उपयोगिता या धन की आवश्यकता के समान नहीं मानते थे। उन्होंने कहा : “एक व्यक्ति, को क्या अधिकार है कि वह सत्य को जाँचने का मापदण्ड उपयोगिता या धन को माने ? अगर मान भी लिया जाये कि सत्य की कोई उपयोगिता नहीं है तो भी क्या सत्य कम सत्य हो जायेगा ? उपयोगिता सत्यता को जानने का मापदण्डं नहीं है ।” उनके अनुसार धर्म प्रत्येक व्यक्ति और समाज की एक ऐसी आवश्यकता है जो उसकी स्वाभाविक प्रकृति की पूर्ति के लिए आवश्यक है। एक राष्ट्र की प्रगति का मापदण्ड है जो उसकी धार्मिक और आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रेरित किया । इसी आधार पर वह पूरब और पश्चिम के विचारों में आदान-प्रदान चाहते थे । भारत पश्चिम को अध्यात्मवाद प्रदान कर सकता था और स्वयं पश्चिम से भौतिक प्रगति की शिक्षा प्राप्त कर सकता था। उनका कहना था कि जिस प्रकार पश्चिमी राष्ट्रों ने अध्यात्मवाद की प्रगति न करके अपने समाज के सन्तुलन को खो दिया है । इस कारण समाज के सन्तुलन को बनाये रखने और सम्पूर्ण प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि भारत अध्यात्मवाद के साथ-साथ भौतिक प्रगति करे और पश्चिमी राष्ट्र भौतिक प्रगति के साथ-साथ अध्यात्मवाद की प्रगति करें । उन्होंने यह भी कहा था कि समाजवाद और साम्यवाद जैसी नवीनतम विचारधाराएँ भी अपने लक्ष्य की पूर्ति में असफल होंगी जब तक कि वे अपना आधार अध्यात्मवाद को नहीं बनायेंगी । इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण संसार को धर्म और अध्यात्मवाद की प्रगति के लिए प्रोत्साहन दिया ।

सभी धर्मों की एकता में विश्वास – स्वामी विवेकानन्द सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते थे और उन्होंने धार्मिक उदाहरता, समानता और सहयोग पर बल दिया । इसी कारण, वे धार्मिक मतभेदों और झगड़ों के विरुद्ध थे। शिकागो के धार्मिक सम्मेलन में उन्होंने अपने अन्तिम भाषण में कहा था : “एक ईसाई को हिन्दू या बौद्ध बनने की आवश्यकता नहीं है और एक हिन्दू या बौद्ध को ईसाई बनने की आवश्यकता नहीं है । बल्कि प्रत्येक को एक-दूसरे की सत्य की भावना को समझना चाहिए और अपने पृथक् व्यक्तित्व की रक्षा करते हुए अपनी स्वयं की प्रगति के कानून के द्वारा अपना विकास करना चाहिए । सहायता करो, लड़ो नहीं, एक-दूसरे से ग्रहण करो, विनाश नहीं, मेल और शान्ति, मतभेद नहीं । ” उनका कहना था कि धर्म के मूल लक्ष्य के विषय में सभी धर्मों में एकता है । सभी धर्मों का लक्ष्य मनुष्य को प्रकृति के आधिपत्य से मुक्त करना है । धार्मिक झगड़ों का मूल कारण बाहरी चीजों पर अधिक बल देना है। सिद्धान्त धार्मिक क्रियाएँ, पुस्तकें, मन्दिर, गिर्जे, मस्जिद आदि जिनके विषय में मतभेद हैं, केवल साधन मात्र है। इस कारण इन पर अधिक बल नहीं देना चाहिए । उनका कहना था : “आत्मा की भाषा एक है जबकि राष्ट्रों की भाषाएँ विभिन्न हैं, उनके रिवाज और जीवन के तरीके पूर्णतया पृथक्-पृथक् हैं । धर्म आत्मा से सम्बन्धित है लेकिन वह विभिन्न राष्ट्रों, विभिन्न भाषाओं और विभिन्न रिवाजों के माध्यम से प्रकट होता है। उससे यह सिद्ध होता है कि संसार के सभी धर्मों में मूल आधार पर एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप विभिन्न हैं।” उनका यह भी कहना था कि धर्मों की यह विभिन्नता स्वाभाविक ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है। उन्होंने कहा था : “तुम सभी व्यक्तियों की विचारधारा को एक नहीं कर सकते । यह सत्य है और मैं इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ ………… विचारों के अन्तर और संघर्ष से ही नवीन विचार जन्म लेते हैं । ” संसार को सभी धर्मों की एकता में विश्वास दिलाने के लिए उन्होंने अपने विषय में कहा था : “मैं भूतकाल के सभी धर्मों में विश्वास करता हूँ और उन सभी की पूजा करता हूँ। मैं उन सभी के साथ ईश्वर की पूजा करता हूँ वे चाहे जिस भी शक्ल में उसकी पूजा करते हों । मैं एक मुसलमान की मस्जिद में जाऊँगा, मैं ईसाई गिर्जे में जाऊँगा और ईसा मसीह के सामने अपने घुटने झुकाऊँगा । मैं बौद्ध मन्दिर में जाऊँगा और बुद्ध तथा उसके कानूनों की शरण में जाऊँगा, मैं जंगल में जाऊँगा और एक हिन्दू के साथ बैठकर ईश्वर का ध्यान करूँगा जो एक ऐसी रोशनी को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है जो सभी के हृदय में रोशनी देता है मैं यही नहीं करूँगा बल्कि मैं भविष्य में आने वाले सभी धर्मों के लिए भी अपना हृदय खुला रखूँगा – बाइबिल, वेद और कुरान और अन्य सभी धार्मिक ग्रन्थ ज्ञान के पर्चे हैं और अभी तो अनगिनती पर्चे और आने हैं। मैं सभी के लिए अपने हृदय को खुला रखूँगा ।” इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने वेदों के आधार पर सभी धर्मों की एकता में विश्वास जाग्रत करने का प्रयत्न किया । उन्होंने हिन्दू अध्यात्मवाद और वेदों के ज्ञान का उपयोग संसार के सभी धर्मों की एकता के लिए किया ।

मानव सेवा – स्वामी विवेकानन्द के धर्म में मानव मात्र की सेवा का महत्वपूर्ण स्थान था । वे शिक्षा, स्त्री-पुनरुद्धार और आर्थिक प्रगति के पक्ष में थे । निर्धनता, अशिक्षा, अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता पर उन्होंने कठोर आक्रमण किया । वे मानव सेवा को धर्म का एक अंग मानते थे । उन्होंने कहा था : “ ईश्वर तुम्हारे सामने यहीं पर विभिन्न रूपों में है । जो ईश्वर के बच्चों को प्यार करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है ।” उन्होंने एक पत्र लिखा था : “ईश्वर की खोज में एक व्यक्ति को कहाँ जाना चाहिए ? क्या निर्धन, असहाय और निर्बल ईश्वर नहीं हैं ?” उन्होंने अपने एक साथ को लिखा था : “निर्धन, नासमझ, अशिक्षित और असहाय को अपना ईश्वर बनाओ । इनकी सेवा करना ही महनतम धर्म है ।” उन्होंने कहा था । “मैं जनसाधारण की अवज्ञा को राष्ट्रीय पाप मानता हूँ और यह हमारे पतन का एक मुख्य कारण है । उस समय तक कोई भी राजनीति लाभदायक नहीं होगी जब तक भारत की जनता एक बार फिर शिक्षित, सम्पन्न और सुखी नहीं हो जाती । जनता हमारी शिक्षा के लिए धन देती है, वह हमारे लिए मन्दिर बनाती है परन्तु बदले में उसे ठोकरें मिलती हैं । वे व्यावहारिक दृष्टि से हमारे गुलाम हैं। अगर हम भारत का उद्धार चाहते हैं तो हमें उनकी भलाई के लिए कार्य करना चाहिए ।” उन्होंने फिर कहा था : “जब तक कि करोड़ों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी रहते हैं तब तक मैं हर व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ जो उन्हीं के खर्चे पर शिक्षा प्राप्त करता है और उनकी बिलकुल परवाह नहीं करता । ” मेरे भाइयो, देश में फैली हुई गरीबी की स्थिति में धर्म प्रचार के लिए समय अनुकूल नहीं है । यदि मुझे इस देश के दुःख और गरीबी को दूर करने में कभी सफलता मिली तभी मैं धर्म की बात करूँगा ।” परन्तु स्वामी विववेकानन्द प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक सुधारों में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि अध्यात्मवाद से आत्मनिर्माण होगा और आत्म-निर्माण से देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति होगी। अध्यात्मवाद का प्रचार करके वह मनुष्य को पहले मनुष्य बनाना चाहते थे और उसी को सम्पूर्ण प्रगति का मूल आधार मानते थे । वह सम्पूर्ण संसार की प्रगति के लिए यह आवश्यक मानते थे कि भारत अध्यात्मवाद का प्रचार करे परन्तु वह यह भी कहते थे कि संसार भारत के अध्यात्मवाद के विचार के उसी समय स्वीकार करेगा जबकि भारत स्वयं अपनी निर्धनता, अज्ञानता और अशिक्षा को दूर करने में सफलता प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार, भारत की भौतिक, प्रगति, सामाजिक सुधार आदि को भारत की प्रगति का ही आधार नहीं मानते थे बल्कि अध्यात्मकवाद में संसार का नेतृत्व करने के लिए भारत की एक बड़ी आवश्यकता मानते थे ।

राजनीतिक दूरदर्शिता – विवेकानन्द को अपने समय की आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों का बहुत ज्ञान था । उसी के आधार पर उन्होंने संसार में होने वाले परिवर्तनों की ओर ध्यान दिया था । उन्होंने कहा था कि समाज में पहले पुजारियों का, उसके बाद कुलीनों का और फिर व्यापारियों का शासन रहा है जो एक प्रकार से हिन्दुओं के तीन वर्गों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज की इन परिवर्तनशील परिस्थितियों में अब ऐसा समय आयेगा जिसमें शूद्रो (Proletariat) का शासन होगा । 1896 ई. में उन्होंने यह कहा था : “यह परिवर्तन रूस या चीन से आयेगा और सम्भवतः रूस संसार में प्रथम मजदूरवादी राज्य (Proletarian State) होगा । ” उनकी भविष्यवाणी 20 वर्षों में ही पूरी हो गयी । आधुनिक समय में चीन में भी साम्यवादी राज्य स्थापित हो चुका है । यह विवेकानन्द की राजनीतिक दूरदर्शिता के प्रमाण हैं ।

राष्ट्रीयता का निर्माण – स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रीयता के निर्माण में भी बहुत बड़ा सहयोग दिया । उनसे पहले हिन्दू अपने धर्म और सभ्यता के बारे में गौरव अनुभव नहीं करते थे बल्कि ईसाई धर्म प्रचारकों के सम्मुख हीनता अनुभव करते थे । स्वामी विवेकानन्द ने जब अमेरिका और यूरोप में भी हिन्दू धर्म और अध्यात्मवाद की श्रेष्ठता को स्थापित कर दिया तब हिन्दुओं को अपने को हिन्दू कहने का साहस हुआ और उन्हें अपने धर्म, संस्कृति और देश से प्रेम हुआ । उन्होंने भारतीयों में जो आत्मविश्वास और आत्म-गौरव उत्पन्न किया, उससे राष्ट्रीय प्रेम और भक्ति का उत्पन्न होना स्वाभाविक था । हिन्दुओं के लिए जो प्रार्थना उन्होंने बनाई थी, वह इस प्रकार थी : “ ऐ गोरीपति, ऐ संसार की माता, मुझे पुरुषत्व प्रदान करो । ऐ शक्ति माँ, मेरी दुर्बलता को नष्ट करो, मेरी पुरुषत्वहीनता को नष्ट करो और मुझे पुरुष बनाओ।” इस प्रकार हिन्दुओं को उनके पुरुषत्व की याद दिलाकर उन्होंने शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण में सहयोग दिया । भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में स्वामी विवेकानन्द के योगदान के विषय में एक आधुनिक भारतीय इतिहासकार ने लिखा है : “स्वामी विवेकानन्द को आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता का पिता पुकारा जा सकता है । बहुत कुछ अंशों में उन्होंने उसका निर्माण किया और साथ ही साथ अपने जीवन में उसके श्रेष्ठतम और सबसे ऊँचे आदर्शों को सम्मिलित किया । ”

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