भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान शिक्षा नीति की विवेचना कीजिए ।
उत्तर – ब्रिटिश काल में शिक्षा की प्रगति ( Progress of Education During British Period) — हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा का प्रारम्भ ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के पश्चात् से होता है। प्रारम्भिक वर्षों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शिक्षा में कोई विशेष रुचि नहीं ली । अलबत्ता ईसाई पादरियों ने अवश्य अपने मिशन स्कूल खोले जिनकी कुछ मुख्य विशेषताएँ ये थीं – (i) ईसाई धर्म की शिक्षा, (ii) विस्तृत पाठ्यक्रम, स्थानीय भाषाएँ, व्याकरण, भूगोल तथा गणित आदि की शिक्षा, (iii) मुद्रत पाठ्य पुस्तकों का प्रयोग, (iv) बहुविषयक प्रणाली का प्रयोग, (v) प्राय: निःशुल्क शिक्षा, (vi) योग्य तथा प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा प्रशिक्षण ।
1765 तक कम्पनी ने पर्याप्त राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर ली थी और तब प्रशासन के क्षेत्र में अनेक नवीन कदम उठाये । 1773 में कलकत्ते में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी । अतः यह आवश्यक था कि भारतवासियों के मुकदमों का निर्णय उनके धर्म, रीति-रिवाज और रहन-सहन के आधार पर किया जाये। दूसरे अब कम्पनी को प्रशासनिक पदों के लिए भी पढ़े-लिखे योग्य भारतवासियों की आवश्यकता थी ।
उपर्युक्त उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वारेन हेस्टिंग्ज के समय कलकत्ता में मदरसा स्थापित किया गया इसमें कानून, ज्योतिष, गणित, विज्ञान, कुरान, धर्म के सिद्धान्त तथा व्याकरण आदि की विस्तार से शिक्षा दी जाती थी । मदरसा का मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश सरकार के लिए भारतीयों को योग्य बनाना । 1791 में बनारस में जोनाथन डंकन ने संस्कृत कॉलेज की स्थापना की । यहाँ हिन्दू धार्मिक सिद्धान्त, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, संगीत, इतिहास, कविता और कानून की शिक्षा दी जाती थी। इस कॉलेज के मूल में भी यही बात थी । अर्थात् संदर्भित दोनों संस्थाओं का मुख्य उद्देश्य यह था कि यूरोपीय जजों को योग्य हिन्दू और मुसलमान सहायक मिल सकें । 1800 में वेलेजली के समय कलकत्ते में फोट विलियम कॉलेज की स्थापना की गयी। इस कॉलेज का प्रमुख उद्देश्य भारतीयों को शिक्षित करना नहीं था, वरन् यह था कि जो अंग्रेज नागरिक अधिकारी भारत में नौकरी पर आयें उन्हें प्रशिक्षित किया जाये, और इस देश की भाषा और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करवाया जाये । जब भारतीयों ने अंग्रेजों को संस्कृत और बंगला सीखते देखा तो वे भी अंग्रेजी भाषा की ओर आकर्षित होने लगे । इस प्रकार इस कॉलेज ने लोगों का अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए मानस तैयार कर दिया जो कि ब्रिटिश प्रशासन और राजनय का एक करिश्मा था ।
1813 का चार्टर या आज्ञा पत्र और जन- शिक्षा की महासमिति – 1813 में ब्रिटेन की संसद ने कम्पनी को एक चार्टर प्रदान किया जिसकी एक धारा में शिक्षा का प्रसार करना कम्पनी का उत्तरदायित्व माना गया और सरकारी धन में से शिक्षा पर खर्च का प्रावधान किया गया । परन्तु लगभग 10 वर्ष तक कम्पनी ने कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाया, और इस अविधि के दौरान गैर-सरकारी प्रयत्नों से ही विभिन्न स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना हुई । 1823 में सरकार ने जन- शिक्षा की महासमिति (Committee of Public Instruction) की नियुक्ति की ।
मैकाले की योजना — जिस समय भारत में यह पाश्चात्य – प्राच्य विवाद अपना उग्र रूप धारण कर चुका था, उसी समय 1834 में मैकाले ने अपना कार्यभार संभाला। वह अंग्रेजी शिक्षा का कट्टर समर्थक था। भारत में वही अंग्रेजी शिक्षा का जन्मदाता कहा जाता है। उसने 2 फरवरी, 1835 को अपना प्रसिद्ध पत्र कौंसिल के समक्ष पेश किया । उसने भारतीय भाषा और साहित्य की आलोचना की और आंग्ल-भाषा की प्रशंसा। उसका कहना था कि ‘यूरोप ने एक अच्छे पुस्तकालय की आलमारी का एक तख्ता भारत और अरब के समस्त साहित्य से अधिक मूल्यवान है ।’ वह वस्तुतः भारत में ‘ब्राउन रंग के अंग्रेजों’ (Brown Englishmen) का एक वर्ग बनाना चाहता था जिन्हें कम खर्च पर कम्पनी के निम्न पदों पर बहाल किया जा सके । उसने इस बात पर पर्याप्त बल दिया कि, “हमें ऐसा वर्ग बनाने के लिए जी-जान से प्रयत्न करना चाहिए जो हमारे और उन करोड़ों लोगों के बीच जिन पर हम शासन करते हैं, दुभाषिये का काम कर सके; यह उन लोगों का वर्ग हो जो रक्त और रंग की दृष्टि से भारतीय हों, मगर रुचि, विचारों आचरण तथा बुद्धि की दृष्टि से अंग्रेज हों।” मैकाले की यह भी योजना थी कि भारत के उच्च वर्ग को अंग्रेजी माध्यम द्वारा शिक्षित किया जाये; वह जनसाधारण को शिक्षित करने के लिए लालायित नहीं था । वस्तुतः वह विप्रवेशन सिद्धान्त (Infiltration Theory) या निस्पन्दन या शिक्षा छनाई का सिद्धान्त (Downward Filteration Theory) में विश्वास करता था ।
बैंटिक द्वारा मैकाले योजना की स्वीकृति — जो भी हो बैंटिक ने 7 मार्च 1835 को मैकाले योजना स्वीकार कर एक प्रस्ताव का आज्ञा-पत्र जारी किया जिसमें यह कहा गया कि –
- प्राच्य शिक्षा प्रसार के लिए अब तक जो भी किया गया है उसे समाप्त न करके वैसा ही बना रहने दिया जाये। प्राच्य शिक्षा के अध्यापकों और छात्रों को पहले ही के समान अनुदान मिलता रहेगा।
- ब्रिटिश सरकार का प्रमुख उद्देश्य भारतीयों में यूरोपीय साहित्य और विज्ञान का प्रसार करना है। अतः भविष्य में शिक्षा सम्बन्धी धनराशि अंग्रेजी माध्यम द्वारा दी जाने वाली शिक्षा पर ही व्यय की जायेगी ।
- प्राच्य विद्या – सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन भविष्य में नहीं किया जाएगा।
- प्राच्य साहित्य के स्थान पर अंग्रेजी साहित्य और विज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थों के प्रकाशन पर धन व्यय किया जायेगा ।
इस प्रकार : 1835 के प्रस्ताव में ब्रिटिश हुकूमत की शिक्षा नीति का स्पष्टीकरण कर, उसके उद्देश्य, साधन और माध्यम को निश्चित कर दिया गया। बैंटिक का प्रस्ताव भारतीय शिक्षा के इतिहास में नये युग का सूत्रपात करने वाला था । जन शिक्षा समिति के दो सदस्यों—एच. टी. प्रिंसेप तथा डब्ल्यू. एच. मैकनाफटन ने, जो प्राच्य शिक्षा के समर्थक थे, प्रस्ताव के विरुद्ध त्यागपत्र दे दिया। जो हो, समिति ने प्रस्ताव को बड़े जोर-शोर से लागू किया । कई नये स्कूल और कॉलेज खोले गये । अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाने लगी । मैकाले योजना भारतीयों के हित में ठीक तो नहीं कही जा सकती, पर फिर भी यह मानना होगा कि इससे अंग्रेजी साहित्य एवं विज्ञान विषयों का प्रचार हुआ। कालान्तर में इसके द्वारा भारत में राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई ।
बैंटिक के बाद : बैंटिक के बाद आकलैण्ड के समय प्राच्यवादियों ने पुनः आवाज उठायी थी जिसे आकलैंड ने बड़ी चतुराई से काम लेते हुए प्राच्य शिक्षा के लिये, अल्प आर्थिक सहायता (500 रु. महावार) देकर दबा दिया था । दूसरी ओर पाश्चात्य ज्ञान के प्रसार के लिए उसने एक लाख रुपया स्वीकृत किया और अंग्रेजी शिक्षा-प्रसार के कार्य की पूर्ति की दिशा में कदम उठाते हुए उसने ढाका, पटना, बनारस, इलाहाबाद, आगरा आदि में अंग्रेजी कॉलेजों की स्थापना की। कलकत्ता में एक मेडिकल कॉलिज खुला और रुड़की में एक इंजीनियरिंग कॉलेज |
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि 1835 से चार्टर के नवीनीकरण (1853-54) तक के काल में शिक्षा का काफी पाश्चात्यीकरण हो गया । इसी समय जान टॉमसन ने हल्काबन्दी स्कूल-व्यवस्था को निकालकर एक नया प्रयोग चलाया । इस योजना के अन्तर्गत कुछ ग्रामों का एक मण्डल बनाकर वहाँ पर शिक्षा की व्यवस्था की गयी, तथा ग्राम का जमींदार अपनी आय का 1% इन पाठशालाओं पर व्यय करता था । इस प्रकार शिक्षित व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। कॉलेज तो इस समय खुले ही, परन्तु मिडिल औ हाईस्कूल भी खुले । शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी स्वीकार कर लिया गया। साथ ही सरकार द्वारा निस्पन्दन सिद्धान्त स्वीकार किये जाने पर केवल उच्च शिक्षा को ही प्रोत्साहन मिला, प्राथमिक शिक्षा की उन्नति इस युग में कम हो सकी। देशी भाषाओं का विकास पूर्ण रूप से अवरुद्ध हो गया, परन्तु इन सब दोषों के होते हुए भी इस युग में सबसे बड़ा काम यह . हुआ कि सरकार ने शिक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया ।
वुड डिस्पेच या वुड का घोषणा पत्र – 1853 में कम्पनी के चार्टर के नवीनीकरण का अवसर आया । इसी वक्त से शिक्षा – प्रसार का दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण शुरू हुआ । ब्रिटिश लोकसभा ने अब तक यह अनुभव कर लिया था कि भारतीय शिक्षा की अधिक दिन तक अवहेलना नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अब वह समय आ गया है जब कि भारतीयों के लिए एक स्थायी शिक्षा नीति को अपनाना आवश्यक है। इन विचारों के आधार पर ही 19 जुलाई, 1854 को कम्पनी के संचालकों ने भारतीय शिक्षा की नीति की घोषणा की | घोषणा पत्र चार्ल्स वुड की अध्यक्षता में तैयार हुआ था, इसलिए उसे (घोषण-पत्र को) उसका (वुड का) नाम दे दिया गया ।
1857 की क्रान्ति के बाद – 1857 की क्रान्ति के बाद भारत में कम्पनी के शासन का अन्त हो गया और भारतीय शासन की बागडोर सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथों में आ गयी । ब्रिटिश संसद के 1858 के अधिनियम से भारतीय शासन ब्रिटिश सम्राज्ञी विक्टोरिया के हाथ में चला गया । फिर, कॉलेजों की संख्या बढ़ने लगी । 1882 में कुल मिलाकर कॉलेजों की संख्या 72 थी । इन कॉलेजों के माध्यम से अंग्रेजी शिक्षा का तेजी से प्रचार-प्रसार होता गया ।
हण्टर कमीशन : भारतीय शिक्षा आयोग – भारतीय शिक्षा के इतिहास में रिपन का नाम महत्त्वपूर्ण है । 1882 में उसने विलियम विल्सन हण्टर की अध्यक्षता में पहला भारतीय शिक्षा आयोग नियुक्त किया । एम. एस. जैन के अनुसार, इस कमीशन का मुख्य लक्ष्य ऐसे उपाय सुझाना था जिससे प्रारम्भिक शिक्षा का प्रसार अधिक हो सके । इस कमीशन ने विभिन्न प्रान्तों का दौरा करके एक विस्तृत रिपोर्ट -1883 में प्रस्तुत की । इसकी उच्च शिक्षा सम्बन्धी कुछ मुख्य सिफारिशें इस प्रकार थीं—
- सरकार को उच्च शिक्षा संस्थाओं के सीधे संचालन तथा प्रबन्ध से अपना हाथ धीरे-धीरे हटा लेना चाहिए । इसके स्थान पर सरकार द्वारा कॉलेजों के लिए सामान्य वित्तीय सहायता तथा विशेष अनुदान निर्धारित कर दिया जाना चाहिए ।
- विभिन्न कॉलेजों में एक ही प्रकार का पाठ्यक्रम निर्धारित न किया जाये, बल्कि विश्वविद्यालय को कई प्रकार के पाठ्यक्रम निर्धारित करने चाहिए ।
- नैतिक शिक्षा की एक पुस्तक, जिसमें धर्म के आवश्यक तथा मौलिक सिद्धान्तों का उल्लेख हो, तैयार करवायी जाये, और उसे सरकारी तथा गैर-सरकारी स्कूलों में अनिवार्य कर दिया जाये ।
- कॉलेजों के छात्रों से ली जाने वाली फीस तथा उनकी उपस्थिति के सम्बन्ध में कुछ सामान्य नियमों का पालन किया जाना चाहिए। छात्रवृत्ति से सम्बन्धित नियमों को भी नये सिरे से बनाया जाना चाहिए ।
माध्यमिक और प्राइमरी शिक्षा से सम्बन्धित मुख्य सिफारिशें इस प्रकार थीं—
- हाई स्कूलों में दो प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए । एक प्रवेश परीक्षा के लिए हो, दूसरी विद्यार्थियों को व्यापारिक तथा अन्य व्यवसायों के लिए हो ।
- स्कूलों में पुस्तकालयों और फर्नीचर आदि के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए ।
- राज्यों को प्रारम्भिक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना के लिए स्थानीय सहयोग की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए जबकि माध्यमिक शिक्षा के लिए स्थानीय सहयोग के बिना प्रयत्न करना व्यर्थ था ।
- प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी या उर्दू रखा जाये तथा उसका नियन्त्रण स्थानीय प्रशासन संस्थाओं को सौंप दिया जाये। इन स्थानीय संस्थाओं को शिक्षा खर्च का 1/3 अनुदान के रूप में दिया जाना निश्चित किया गया। इसका परिणाम प्रारम्भिक शिक्षा के प्रसार को अवरुद्ध करना ही हुआ ।
रैले कमीशन – 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो गयी थी । इस संस्था ने देश के अन्दर नवीन चेतना का संचार कर दिया था । ऐसे राष्ट्रीय जागरण के समय कर्जन भारत का गवर्नर जनरल होकर आया । उसका काल भी शिक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । वह शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहता था । उसने मैकाले की योजना की आलोचना की एवं प्रचलित शिक्षा पद्धति की खिल्ली उड़ायी । कामेश्वर प्रसाद के अनुसार, शिक्षा में परिवर्तन लाने के पीछे उसके मुख्य उद्देश्य राजनीतिक थे, केवल आंशिक रूप से ही शैक्षणिक थे | राष्ट्रवाद की बढ़ती हुई भावना अंकुश लगाने के लिए कर्जन ने शैक्षणिक संस्थाओं पर सरकारी नियन्त्रण बढ़ा दिया ।
अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसने सितम्बर 1901 के भारत के उच्चतम शिक्षा और विश्वविद्यालय अधिकारिकों का एक सम्मेलन शिमला में बुलाया । इस सम्मेलन में 150 प्रस्ताव प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के सुधार के निमित्त पास किये गये । उच्च शिक्षा पर सरकारी नियन्त्रण बढ़ाने की भी बात कही गयी । समाचार पत्रों में कर्जन की इस नीति की तीखी आलोचना हुई । विवश होकर कर्जन ने टामस रैलेने की अध्यक्षता में एक इंडियन यूनिवर्सिटी कमीशन (भारतीय विश्वविद्यालय आयोग) नियुक्त किया। रैले ने जून 1902 में अपनी रिपोर्ट पेश की । इसमें भविष्य में उच्च शिक्षा से सम्बन्धित कॉलेजों को आसानी से मान्यता नहीं देने, विश्वविद्यालयों की संस्थाओं में सरकारी प्रतिनिधित्व को बढ़ाने तथा विधि शिक्षा को केन्द्रित नहीं करने के सुझाव दिये गये । भारतीय नेताओं और कांग्रेस ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, परन्तु कर्जन ने रैले कमीशन की सिफारिशों के आधार पर भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर दिया ।
1913 ई. का सरकारी प्रस्ताव – 21 फरवरी, 1913 को नवीन शिक्षा नीति सम्बन्धी सरकारी प्रस्ताव पारित किया गया। इसमें प्रत्येक विश्वविद्यालय के क्षेत्र निर्धारण पर बल दिया गया | प्रत्येक प्रान्त में एक विद्यालय स्थापित करने की भी बात की गयी । साथ ही शिक्षण विश्वविद्यालयों, प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के अध्यापकों के प्रशिक्षण और माध्यमिक शिक्षा के विकास के लिए निजी प्रयत्नों के महत्त्व पर बल देने की भी बात कही गयी, परन्तु 1904 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने के कारण इस प्रस्ताव पर कार्य नहीं हो सका ।
सैडलर आयोग : कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग- 1917 में सरकार ने माइकेल सैडलर की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया । इसके जिम्मे कलकत्ता विश्वविद्यालय की शिक्षा की जाँच करने का कार्य सौंपा गया। सैडलर ने अपना प्रतिवेदन 1919 में प्रस्तुत किया । उसने कलकत्ता विश्वविद्यालय के अतिरिक्त माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा, स्त्री – शिक्षा अध्यापकों के प्रशिक्षण औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा के सम्बन्ध में भी अपने विचार रखे ।
हार्टिंग समिति — 1919 के पश्चात् राष्ट्रीय जागृति के फलस्वरूप भी शिक्षण संस्थाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि आयी । शिक्षित व्यक्तियों की संख्या में तो वृद्धि हुई परन्तु इससे शिक्षा के स्तर में गिरावट भी आयी । अन्य कारणों से भी शैणिक पद्धति के प्रति असंतोष व्याप्त था । अतः सरकार ने 1929 में सर फिलिप हार्टिंग की अध्यक्षता में एक कमीशन बहाल किया जिसे शिक्षा के विकास पर अपना प्रतिवेदन देना था। इस आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये –
- प्राथमिक शिक्षा पर बल दिया जाये तथा सुधार एवं एकीकरण की नीति अपनायी जाये !
- ग्रामीण प्रवृत्ति के विद्यार्थियों को मिडिल स्कूल तक की ही शिक्षा दी जाये । बाद में उन्हें औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा दी जाये। कॉलेजों में प्रवेश प्रतिबन्धित हों ।
- विश्वविद्यालयों को सुधारने के प्रयास हों तथा उच्च शिक्षा प्राप्त करने योग्य विद्यार्थियों को उत्तम शिक्षा दी जाये ।
वर्धा योजना : बेसिक या बुनियादी शिक्षा योजना — राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रणेता महात्मा गाँधी तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था से असन्तुष्ट थे। उन्होंने ‘हरिजन’ में एक लेख लिख कर शिक्षा की खमियों को दर्शाया एवं वर्धा में अक्टूबर 1937 में एक अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया । इस सम्मेलन ने शिक्षा की एक विस्तृत योजना तैयार की जिसे बेसिक या बुनियादी या वर्धा शिक्षा योजना कहा जाता है । यह योजना निम्नलिखित थी—
- सात से चौदह वर्ष के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा व्यवस्था हो ।
- शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए जिससे विद्यार्थी स्वावलम्बी बन सकें ।
- विद्यार्थियों को उनकी अभिरुचि के अनुसार व्यावसायिक शिक्षा दी जाये । यद्यपि यह योजना बहुत अच्छी थी, परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण इस योजना पर भी अमल नहीं हो सका ।
सार्जेण्ट योजना-1944 में भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार जान सार्जेण्ट ने शिक्षा की एक महत्त्वपूर्ण योजना प्रस्तुत कर निम्न सुझाव पेश किये—
- देश में प्रारम्भिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय स्थापित किये जायें ।
- छ: से ग्यारह वर्ष तक के बालक-बालिकाओं के लिए व्यापक, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था हो ।
- ग्यारह वर्ष से लेकर सतरह वर्ष की उम्र तक के लिए 6 वर्ष की शिक्षा की व्यवस्था हो ।
- इण्टरमीडिएट कक्षाओं की पढ़ाई हाई स्कूलों में हो और स्नातक स्तर पर तीन वर्षों का पाठ्यक्रम हो ।
- कॉलिजों में प्रवेश सम्बन्धी नियम निर्धारित किये जायें तथा देश में एक राष्ट्रीय नवयुवक आन्दोलन प्रारम्भ किया जाये जिसका उद्देश्य अपने शरीर का निर्माण एवं देश- सेवा की भावना की शिक्षा ही देना हो ।
इस योजना के अनुसार देश में 40 वर्षों के अन्तर्गत शिक्षा के पुनर्निर्माण का कार्य पूरा करना था, लेकिन बाद में इसकी अवधि घटा कर 16 वर्ष कर दी गयी । इसकी भी नौबत नहीं आयी, क्योंकि शीघ्र ही भारत स्वतन्त्र हो गया तथा स्वाधीन भारतीय सरकार ने नयी शिक्षा नीति अपनायी ।
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