भाषा और शिक्षा पर राज्य नीति की समीक्षा कीजिए ।

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प्रश्न – भाषा और शिक्षा पर राज्य नीति की समीक्षा कीजिए । 

उत्तर – स्वतन्त्रता से पूर्व भाषा-नीति- प्राचीन काल में हमारी भाषा-नीति स्पष्ट थी । बोलियाँ अनेक थीं, किन्तु शिक्षा एवं सरकारी कामकाज के माध्यम के रूप में संस्कृत स्वीकृत थी। संस्कृत विद्वानों, शिक्षितों और जनता के उच्च वर्ग की भाषा, अर्थात् देववाणी थी। पाणिनि एवं पतंजलि जैसे भाषा – वैज्ञानिकों के हाथों में आकर यह इतनी परिमार्जित हो गयी थी कि उच्चतम एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को अभिव्यक्त करने में यह सर्वथा समर्थ थी। कामकाज की भाषा होने के कारण यह अत्यन्त सम्माननीय मानी जाती थी। कुछ समय पश्चात् अर्थात् बौद्धकाल में अशोक जैसे महान् सम्राट के शासन काल में, भारत की राजभाषा का पद पालि व प्राकृत को मिला। पालि व प्राकृत की भी खूब उन्नति हुई। इसमें ग्रन्थ रचे गये, घोषणाएँ की गयीं, शिलाओं एवं स्तम्भों पर लेख लिखे गये एवं भारत के प्रमुख विद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा आश्रमों में पालि व प्राकृत का पठन-पाठन होने लगा।

भारत पर मुसलमानों का शासन हुआ। मुगलों के शासन काल में कुछ स्थिरता आई। कामकाज की भाषा फारसी हुई। अदालतों, कचहरियों एवं दरबारों में फारसी का बोलवाला प्रारम्भ हुआ, जिसके अवशेष अभी भी कचहारियों में देवनागरी लिपि में लिखे देखे गये कुछ ठेठ फारसी के शब्दों के रूप में देखे जा सकते हैं। साधारण जनता ने बाजारों में एक अन्य भाषा उर्दू या हिन्दी का विकास कर लिया था, किन्तु राजभाषा का पद फारसी को प्राप्त था, अतः शिक्षालयों में भी फारसी का पठन-पाठन प्रारम्भ हुआ। मकतब व मदरसे खुले । फारसी का विद्वान चारों और सम्मानित होने लगा।

एक समय आया, जब समूचा भारत ब्रिटिश राष्ट्रध्वज के नीचे आ गया। अंग्रेज पहले व्यापार पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए थे, किन्तु जब बाद में उन्हें राज्य करने का भी चस्का लगा तो भाषा का प्रश्न भी उनके सामने आया । व्यापारी जहाँ जाता है, पहले वहाँ की भाषा से परिचय प्राप्त करता है । अंग्रेजों ने भी पहले ऐसा ही किया, किन्तु बाद में उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। राजकाल की भाषा अंग्रेजी थी ही, उधर अंग्रेजी के सौभाग्य से मैकॉले की शिक्षा नीति स्वीकृत हो गई ।

ब्रिटिश शासन-काल में मैकॉले के प्रयासों के पश्चात् हमारी भाषा-नीति स्पष्ट थी। अंग्रेजी राजभाषा थी । विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी था। उस समय हम अपने शिक्षालयों में अंग्रेजी की वर्तनी रटवाने में ही छात्रों का समय नष्ट करते रहे; फिर भी हम दो प्रतिशत से अधिक भारतीयों को अंग्रेजी न सिखा सके, परन्तु हमारी शिक्षा का आदर्श अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करना अवश्य रहा। इसलिए भारत में कुछ विद्वान् अंग्रेजी के इतने उच्च कोटि के जानकार हुए कि उनका लोहा अंग्रेज भी मानने लगे। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं पर अंग्रेज भी मुग्ध हो गये और श्रीमती सरोजनी नायडू को उन्होंने ‘भारत कोकिला’ की उपाधि ही दे डाली।

स्वतन्त्र भारत की भाषा – नीति– समय बदला । हमारी परतन्त्रता की बेड़ियाँ कट गईं। हम स्वतन्त्र हुए। स्वतन्त्र भारत में सरकार की भाषा सम्बन्धी नीति की दिशा राजाजी ने पहले ही निश्चित कर दी थी। द्वितीय महायुद्ध के पूर्व जब चक्रवर्ती राजगोपालाचार्या जी के हाथों में मद्रास प्रदेश की बागडोर आई, तो उन्होंने उसी दिशा में तमिलनाडु का मार्गदर्शन किया। मद्रास की दोनों व्यवस्थापिका सभाओं में हिन्दी – विरोध का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए राजाजी ने हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने का प्रस्ताव पास कराया और कहा – “सरकार की नीति इस सम्बन्ध में यही है कि हिन्दी का, जो भारत के अधिकांश भागों में बोली जाती है – कामचलाऊ ज्ञान हो जाए, ताकि इस (मद्रास) प्रदेश के विद्यार्थी इस योग्य हो जाएँ कि दक्षिण तथा उत्तर में सुधापूर्वक विचार-विनिमय कर सकें ।” उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य का सन्दर्भ देते हुए आगे कहा, “निष्कर्ष यह है कि हिन्दी का गम्भीर ज्ञान प्राप्त करना भारत के सभी लोगों के लिए शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए । ” स्वतन्त्रता भारत की सरकारी भाषा-नीति और शिक्षा की दिशा का स्पष्ट चित्र उस समय राजाजी के मस्किष्क में था। बाद में वे अपने निश्चय से डिग गये और भाषा – नीति को उन्होंने अस्पष्ट बना डाला ।

बंगाली विद्वान् श्री बंकिमचन्द्र चटर्जी का कथन – “हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में जो लोग ऐक्य स्थापित कर सकेंगे वे ही प्रकृत बन्धु कहलाने योग्य हैं। चेष्टा कीज़िये, यत्न कीजिये, कितने ही बाद क्यों न हो, मनोरथ पूर्ण होगा। हिन्दी भाषा के द्वारा भारत के अधिकांश स्थानों का मंगल-साधन कीजिये–केवल बंगाल और अंग्रेजी की चर्चा से काम न चलेगा।”

आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि “मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता ।”

प्रसिद्ध भाषा-शास्त्री डॉ० सुनीतकुमार चटर्जी का कहना था, “राष्ट्रीयता के प्रतीक स्वरूप एक भाषा के माने बिना काम नहीं चल सकता और यह भाषा देश की या राष्ट्र की कोई भाषा होनी चाहिए। हिन्दी की प्रतिष्ठा सर्वत्र दीख पड़ती है। हमारा सब अन्तः प्रान्तीय कामकाज राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही हो सकता है । ” बाद में डॉक्टर साहब भ्रम के शिकार हो गये।

महात्मा गाँधी ने भाषा नीति के सम्बन्ध बड़े सुलझे हुए विचार स्वतन्त्रता से पूर्व ही जनता के सामने रख दिये थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था, “समूचे हिन्दुस्तान के साथ व्यवहार करने के लिए हमको भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भज्ञषा या जबान की जरूरत है, जिसे आज ज्यादा तादाद में लोग जानते और समझते हों और बाकी लोग जिसे झट सीख सकें । उत्तर के हिन्दू और मुसलमान दोनों इस भाषा को बोलते और समझते हैं। ”

स्वतन्त्रता से पहले हिन्दी का पठन-पाठन राष्ट्र सेवा का एक अंग समझा जाता था। अनेक वर्षों के स्वतन्त्र शासन में हमने हिन्दी की इतनी उन्नति कर ली है और हिन्दी के प्रति देश में सम्मान बढ़ गया । नागालैण्ड ने अपनी क्षेत्रीय भाषा अंग्रेजी घोषित की है । भारतीय संविधान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि का तो नागालैण्ड के अन्तर्गत में कितना सम्मान है, यह इसी बात से पता लगाया जा सकता है कि अलगाव की प्रवृत्ति अभी भी वहाँ पर है। तमिलनाडु में हिन्दी का अत्यधिक विरोध हुआ। वहाँ पर द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम का किसी समय आदर्श था कि भारत से अलग ‘द्रविड़स्तान’ बनाया जाए। राष्ट्रीय ध्वज व संविधान की होली जिस प्रकार तमिलनाडु में जलाई गई, उसे तमिलनाडु के ही देशभक्त अभी तक नहीं भूल सके हैं ।

अहिन्दी भाषा राज्यों में ही नहीं, हिन्दी भाषी राज्यों में भी हिन्दी के प्रति उदासीनता दिखाई पड़ती है । सरकारें तो प्रयास करती ही हैं, किन्तु सामान्य नागरिक भी हिन्दी के प्रति उदासीन – सा दिखाई पड़ता है। शिक्षण संस्थाएँ भी अपना कर्त्तव्य ठीक से नहीं निभा रही है ।

स्वतन्त्रता प्राप्त के पश्चात् लगभग दो वर्ष तक हमने खूब शोर मचाया कि भारत की राजभाषा हिन्दी होगी । इसका परिणाम यह हुआ कि सारे देश में हिन्दी पठन-पाठन की ओर लोगों की रुचि बढ़ी, किन्तु संविधान लागू होते-होते यह निश्चिय होने लगा कि तुरन्त हिन्दी सिखाने की आवश्यकता नहीं है । पन्द्रह वर्ष की लम्बी अवधि इस कार्य के लिए रखी गयी और बाद में भी निश्चिय की स्थिति का दर्शन नहीं मिलता था। कुछ अहिन्दी-भाषी राज्यों में हिन्दी – शिक्षा को गम्भीरता से देखा ही नहीं गया । राजकाज की भाषा शिक्षा-भाषा की प्रेरण-स्रोत होती है । राजभाषा ‘अंग्रेजी’ चल रही थी, अतः तमिलनाडु में हिन्दी – शिक्षण के नाम पर कोई विशेष कार्य नहीं हुआ। अन्य राज्यों में हिन्दी – शिक्षा पर ध्यान दिया गया, किन्तु कुछ में उसकी उपेक्षा की गयी। तमिलनाडु में हिन्दी को स्कूलों में अनिवार्य नहीं बनाया गया। हिन्दी में परीक्षा ली जाती थी, फिर भी उससे अग्रिम कक्षा मिलने या न मिलने पर प्रभाव नहीं पड़ता था ।

हिन्दी – भाषी राज्यों में भी सरकार की लचर भाषा-नीति का प्रभाव पड़ा । जाद भारत में साँस लेने वाले छात्र के मन में अंग्रेजी के प्रति निष्ठा कम होती गयी और उसने अंग्रेजी-शिक्षण को भार- स्वयप समझा, किन्तु इस स्थिति से हिन्दी – शिक्षण के स्तर में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। मातृभाषा समझकर और कुछ ढुलमुल सरकारी भाषा-नीति के कारण छात्र हिन्दी की शिक्षा को गम्भीरता से नहीं देख सके ।

शिक्षा की दृष्टि से यह स्थिति भयावह है। पिछले अनेक वर्षों से हम छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं । कभी तो हम अंग्रेजी को कक्षा छः से प्रारम्भ करते हैं, कभी कक्षा एक से अनिवार्य करने का उपदेश दे डालते हैं। कभी हाईस्कूल में अंग्रेजी को अनिवार्य विषय बनाते हैं तो कभी उसे वैकल्पिक कर देते हैं। कभी हिन्दी – साहित्य को इण्टर के लिए अनिवार्य घोषित करते हैं तो कभी किसी वर्ग के लिए सामान्य हिन्दी अनिवार्य करके साहित्य को वैकल्पिक कर देते हैं। कभी इण्टर में विज्ञान के छात्रों के लिए अंग्रेजी को अनिवार्य करते हैं, कभी वैकल्पिक । सन् 1967 में उत्तर प्रदेश में संविद सरकार ने हाईस्कूल एवं इण्टरमीडिएट परीक्षा के लिए भाषा-नीति सम्बन्धी तीन-चार परस्पर विरोधी आदेश निकाले थे।

कोई भी राजनीतिक दल भाषा-नीति के सम्बन्ध में स्पष्ट बात नहीं करता। सरकार ने तो शिथिल नीति अपनाने का परिचय प्रारम्भ से ही दे दिया है। शिक्षा में भाषा के अध्ययन का प्रश्न राजभाषा के प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ है । यह नौकरी का प्रश्न बन जाता है । राजभाषा के सम्बन्ध में अस्थिर नीति शिक्षा अस्थिर भाषा-नीति को जन्म देती है। हमारी सरकार ने सन् 1956 तक द्विभाषा – सूत्र की ओर अपना झुकाव प्रदर्शित किया। सन् 1956 से सन् 1967 तक हम त्रिभाषा – सूत्र का जप करते रहे । वर्ष 1967-68 में केन्द्रीय सरकार पुनः द्विभाषा-सूत्र की ओर झुकी और अब पुनः त्रिभाषा – सूत्र की चर्चा गरम है ।

भाषाई नीति ( त्रिभाषा फार्मूला ) इसका मूल उद्देश्य राष्ट्रीय एकता, अन्तर्राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहज संवाद एवं संचार स्थापित करना है। इसके लिए केन्द्र सरकार और राज्य / केन्द्र शासित राज्यों की सरकारों द्वारा विद्यालयों में त्रिभाषा सूत्र का पालन सुनिश्चित करना है । भाषाई सन्दर्भ में यदि राज्य सरकार चाहे तो इसमें मामूली संशोधन भी कर सकती है, जैसे – उत्तर-पूर्वी राज्यों को उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने विवेक के अनुसार इसकी मूल भावनाओं को समझते हुए लागू करने की आजादी है। प्राथमिक विद्यालयों के प्रथम वर्षों में शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का प्रयोग बच्चों को सुनने, बोलने, पढ़ने, लिखने और सोचने इत्यादि में समझ विकसित करने में मदद करता है । जिससे बच्चे सुवाच्य, शुद्ध ारण एवं सही वर्तनी सीखने तथा लेखन की गललियों से बच सकेंगे । साथ ही साथ सृजनात्मकता, आत्मभिव्यक्ति में विश्वास एवं मौलिक चिन्तन कर सकेंगे । इसके पश्चात् विद्यालयी शिक्षा की कक्षाओं में सहज रूप से क्षेत्रीय भाषाओं और अन्य दूसरी भाषाओं के माध्यम से ज्ञान अर्जित कर सकने में भी समर्थ हो सकेंगे ।

शिक्षा भाषा व भारतीय संविधान-हमारे उच्चतम न्यायालय ने शिक्षा सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए हैं। (रवि पी. भाटिया, 2009) इनमें से एक प्रमुख फैसला 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार के सम्बन्ध में था । इसके चलते भारत गणराज्य ने सन् 2009 में ‘बच्चों का निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ (The Right of Children to Free and Compulsory Education Act, 2009) पारित कर दिया जिसका उद्देश्य इस मौलिक अधि कार को लागू करना है ।

इस प्रावधान के अतिरिक्त संविधान की धारा 350 ए में साफ अक्षरों में लिखा गया है कि राज्यों के प्राथमिक स्तर तक मातृभाषा में पढ़ाने की सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए। इस प्रावधान का उद्देश्य स्पष्ट था- बच्चों का मानसिक विकास अपनी मातृभाषा में अच्छे ढंग से होता है । क्योंकि कई राज्यों में अनेक मातृभाषाएँ हैं (झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तरपूर्वी राज्य आदि) सब मातृभाषाओं में पढ़ना-पढ़ाना सम्भव नहीं होता ऐसी स्थिति में वहाँ की प्रचलित मुख्य भाषा में पढ़ाई उपलब्ध कराई जाती है। बच्चे आसानी से अपनी मातृभाषा के साथ-साथ एक या दो अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ भी सीख लेते हैं। इस कारणवश क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाना ही उचित समझा जाता है |

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