भाषा के प्रकार ( रूप ). और महत्त्व एवं प्रयोजन का वर्णन कीजिए।
उत्तर – भाषा के रूप – व्यावहारिक दृष्टि से भाषा के दो रूप होते हैं –(i) उच्चरित रूप तथा (ii) लिखित रूप ।
(i) उच्चरित रूप – उच्चरित भाषा को मौखिक भाषा भी कहा जाता है। यह वर्णों का केवल ध्वन्यात्मक रूप है। नित-प्रतिदिन बोलचाल में इसका प्रयोग किया जाता है। यह भाषा का अस्थायी रूप भी कहलाता है, परंतु वर्तमान युग में ग्रामोफोन, टेप रिकॉर्डरों आदि ने उच्चरित भाषा को स्थायी बना दिया है। भावों को ध्वन्यात्मक रूप में व्यक्त करने हेतु उच्चरित भाषा का अवलम्ब लिया जाता है। सर्वप्रथम उच्चरित भाषा ही प्रयोग में लायी गई। हमारे देश में वेद मंत्रों को कण्ठस्थ करने की प्रथा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है।
(ii) लिखित भाषा – जब लिपि का आविष्कार हो गया और ध्वन्यात्मक अक्षरों के लिए स्वतंत्र वर्णों का आविष्कार हुआ, तो उच्चरित भाषा को लिपिबद्ध कर स्थायी रूप प्रदान किया गया। भाषा का लिखित रूप विशेष महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी के माध्यम से मानव ने संचित ज्ञान को साहित्य, दर्शन तथा विज्ञान में समाहित किया। प्राचीन काल में ही लिखने की प्रथा का प्रचार हो गया था, पर उस समय ग्रन्थ इत्यादि तालपत्रों अथवा भोजपत्रों पर लिखे जाते थे। कालान्तर में मुद्रण का आविष्कार हुआ और उच्चरित भाषा को अधिकाधिक स्थायी स्वरूप प्रदान किया गया। लिखित भाषाओं के अनेक रूप परिलक्षित होते हैं; यथा—
- संस्कृत भाषा–प्रचीन संस्कृति तथा सभ्यता का भंडार जिस भाषा में निहित रहता है, उसे हम संस्कृति भाषा कहते हैं। भारत में संस्कृति भाषा का गौरव संस्कृत को प्राप्त है, क्योंकि संस्कृत में ही भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का अक्षय भंडार निहित है। यूरोप की संस्कृति की ज्ञान हमें ग्रीक और लैटिन का अध्ययन करने से होता है।
- मातृभाषा – मातृभाषा का अर्थ होता है, माँ से सीखी हुई भाषा | माँ के विशाल रूप में हमें जननी जन्मभूमि का स्मरण हो जाता है। इस दृष्टिकोण से जन्मभूमि में व्यवहृत होने वाली भाषा को ‘मातृभाषा’ के नाम से जाना जाता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि बालक अपने समीपवर्ती परिवेश से जिस भाषा को सीखते हैं, वही उसकी मातृभाषा कहीं जाती है। प्रादेशिक भाषाओं को भी इसी के अन्तर्गत समझना चाहिए। गुजरात के निवासियों की भाषा गुजराती, बंगाल के निवासियों की भाषा बंगाली तथा असम के निवासियों की मातृभाषा असमी है। विशाल क्षेत्र में फैली हिन्दी हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा बिहार की मातृभाषा है, यद्यपि इन क्षेत्रों में अनेक प्रादेशिक भाषाएँ तथा बोलियाँ प्रचलित है |
- राष्ट्रभाषा-राष्ट्रभाषा का अभिप्राय उस भाषा से होता है, जिसे राष्ट्र के अधिकांश निवासी प्रयोग में लाते हैं। जिस भाषा में किसी राष्ट्र का शासनकार्य चलता है, वह उस राष्ट्र की ‘राष्ट्रभाषा’ कहलाती है। जिस राष्ट्र में विभिन्न भाषाएँ प्रचलित हैं, वहाँ राष्ट्रभाषा की समस्या अत्यधिक दुरुह तथा जटिल हो जाती है। यही समस्या भारतवर्ष में जोर पकड़े हुए है। यहाँ पर विभिन्न भाषाएँ प्रचलित हैं और विभिन्न राज्यों में विभिन्न भाषाएँ प्रयोग में लायी जाती है। अतः किस भाषा को राष्ट्र की गरिमा से सुशोभित किया जाए; यह एक टेढ़ी समस्या हो गई है। सन् 1950 में मान्यता प्राप्त करने वाले भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा का गौरव ‘हिन्दी’ को प्रदान किया गया। यद्यपि उस लक्ष्य तक अभी भी नहीं पहुँच पाए हैं।
- राजभाषा – राजभाषा से तात्पर्य उस भाषा से होता है, जिसका प्रयोग राज्य के शासन-कार्य में किया जाता है। किसी राज्य के शासन कार्य में जो भाषा प्रयुक्त की जाती है, वही वहाँ की राजभाषा मानी जाती है। सामान्यतः राजभाषा, मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में कोई अन्तर नहीं है, परन्तु भारत जैसे विशाल देश में जहाँ अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं, राजभाषा, मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में पर्याप्त अन्तर है। व्यापक प्रयोग की दृष्टि से हमारे देश की सम्प्रति राजभाषा ‘अंग्रेजी’ ही है। हिन्दी तीव्र गति से उस दिशा की ओर बढ़ है। राष्ट्रीय शिक्षा-नीति, 1986 के प्रतिवेदन में भी राजभाषा के रूप में हिन्दी की महत्ता पर गम्भीरता से विचार नहीं किया गया है।
- अन्तर्राष्ट्रीय भाषा— अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का अभिप्राय उस भाषा से होता है जो कि लगभग समस्त विश्व में प्रचलित होती है। सम्प्रति यह गौरव ‘अंग्रेजी’ भाषा को प्राप्त है।
- विदेशी भाषा– मूलभाषा या मातृभाषा के अतिरिक्त देश में प्रचलित अन्य भाषाएँ ‘विदेशी भाषाएँ’ कहलाती है; जैसे— भारत के लिए चीनी, जर्मनी, फ्रेंच आदि विदेशी भाषाएँ हैं। इसके अतिरिक्त भारत में बहुप्रचलित अंग्रेजी तथा उर्दू भाषाएँ भी विदेशी भाषाएँ हैं, क्योंकि इन भाषाओं का सम्बन्ध संस्कृत तथा मातृभाषाओं से नहीं हैं। संसार के विज्ञान तथा ज्ञान से परिचित होने के लिए इन भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु विदेशी भाषाओं को अनिवार्य रूप में पढ़ाना आवश्यक नहीं है।
भाषा का महत्त्व एवं प्रयोजन – भाषा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए सीताराम चतुर्वेदी ने लिखा है—“ भाषा के आविर्भाव से सारा नानव संसार गूँगों की विराट बस्ती होनेसे बच गया। ” संसार में विभिन्न प्राणियों में मनुष्य भाषा के ज्ञान के कारण सबसे अधिक भाग्यवान है। यदि आज तक भाषा का अभाव बना रहता तो मानव और पशु में कोई अन्तर नहीं मिलता। भाषा ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने परम्परागत अनुभवों, विचारों तथा भावों को सम्यक रूप से अभिव्यंजित कर सकता है। यदि मनुष्य के पास भाषा नहीं होती तो उसमें सामाजिकता नहीं होती तथा सभ्यता की दौर में वह पीछे ही रहता। आज मानव संस्कृति जिस अवस्था को पहुँच गई है, उसका प्रमुख कारण भाषा ही है।
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