माता-पिता द्वारा तिरस्कार बालक पर प्रकाश डालें ।

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प्रश्न – माता-पिता द्वारा तिरस्कार बालक पर प्रकाश डालें ।
(Throw light on the Parentally Rejected Children.)

उत्तर— बालकों के सम्पूर्ण संतुलित विकास में माता-पिता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। बहुधा माता-पिता तो अपने बच्चों की उचित देख-रेख करते हैं, किन्तु माता-पिता अपने बच्चों को पसन्द नहीं करते हैं तथा समय-समय पर उनकी निन्दा व अपमान करते हैं जिसका सीधा प्रभाव बालकों के व्यक्तित्व पर पड़ता है। ऐसी ही बालक को हम तिरस्कृत बालक कहते हैं | बॉलबे के अनुसार, “तिरस्कृत बालक संवेगात्मक रूप से अस्थिर, क्रोध को रोकने में अयोग्य और अन्य लोगों से व्यर्थ सम्बन्ध वाले होते हैं । ”

माता-पिता के तिरस्कार के कारण (Causes of Parental Rejection ) – जब माता-पिता अपने बच्चों का तिरस्कार करते हैं तो इसके पीछे कई कारण होते हैं । इन बालकों का अध्ययन करने के बाद इनके निम्न कारक पाये जाते हैं –

  1. जब माता-पिता के आपसी सम्बन्ध ठीक नहीं होते हैं, अर्थात् वह स्वयं आक्रामक व शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं तो वे अपने बच्चों को तिरस्कृत रूप में देखने लगते हैं ।
  2. जब परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती है और जहाँ बच्चों की संख्या अधिक होती है तो माता-पिता बच्चों का तिरस्कार करने लगते हैं ।
  3. बहुत से माता-पिता अपने बच्चों से बहुत उम्मीदें लगाते हैं चाहे बच्चों में योग्यता हो अथवा न हो, तब यदि बच्चे उनकी आशाओं को पूर्ण नहीं करते हैं तो भी बच्चे माता-पिता के तिरस्कार के भागी हो जाते हैं ।
  4. जब बच्चें के किसी अंग में विकार आ जाता है और वह अयोग्य व अक्षम हो जाता है तो भी माता-पिता अन्य बच्चों की अपेक्षा उस बच्चे का तिरस्कार करने लगते हैं ।
  5. जब माता-पिता और बच्चों के व्यवहार में व्यक्तिगत भिन्नता पायी जाती है तो भी माता-पिता तिरस्कार पूर्ण व्यवहार करने लगते हैं ।
  6. यदि बच्चे माता-पिता के व्यक्तिगत जीवन या व्यक्तित्व विकास आदि में बाधा पहुँचाते हैं तो माता-पिता बच्चों का तिरस्कार करने लगते हैं।
तिरस्कृत बालकों की पहचान ( Identification of Parentally Rejected Children) — यों तो विभिन्न लक्षणों के प्रकट करने के आधार पर इस प्रकार के बालकों को पहचाना जा सकता है फिर भी वैज्ञानिक ढंग से इन बलकों को समझने एवं ढूँढ़ने के लिए कुछ प्रमुख मानकीकृत परीक्षणों का प्रयोग किया जा सकता है —
  1. आर. पी. रोहनर माता-पिता स्वीकृत तिरस्कृत प्रश्नावली ( PARQ) – यह परीक्षण तीन रूपों में है— बालक, माता, प्रौढ़ आदि । इस परीक्षण के प्रश्न तीनों रूपों में एक हैं। तीनों मापनियों में 60-60 प्रश्न हैं । प्रस्तुत मापनी के उत्तर चार रूपों में से देने होते हैं । अंक भी क्रमशः 4, 3, 2, 1 दिए जाते हैं। इस परीक्षण में विश्वसनीयता और आन्तरिक सहसम्बन्ध ज्ञात किया गया है। इसमें बालक के और प्रौढ़ों के अपने माता के बारे में विचार जाने जाते हैं और एक मापनी में माँ के अपने बच्चों में विचार जाने जाते हैं । इसका हिन्दी रूपान्तरण जयप्रकाश (सागर) एवं महेश भार्गव (आगरा) ने किया ।
  2. हरीष चन्द्र शर्मा एवं नरेन्द्र सिंह चौहान माता-पिता बच्चों की सम्बन्ध सूची (PCR) — प्रस्तुत परीक्षण बच्चों के माता-पिता के लिए बनाया गया है । इसके द्वारा माता-पिता का बच्चों के प्रति व्यवहार जाना जाता है । इस परीक्षण के आठ परिस्थितियाँ हैं एवं आठों के दो पक्ष हैं। इसमें माता-पिता दोनों को उत्तर देने के लिए अलग-अलग प्रपत्र प्रयोग करते हैं । इस परीक्षण की विश्वसनीयता पुनर्परीक्षरण विधि से 200 अभिभावकों के अंगों के आधार पर ज्ञात की, जो कि 72 से 89 तक ज्ञात हुई ।
  3. जी. पी. शैरी एवं जे. पी. सिन्हा (1985) पारिवारिक सम्बन्ध सूची (FRI) – यह परीक्षण विद्यालय एवं कॉलेज के हिन्दी भाषी छात्रों के लिए बनाया गया है । इस परीक्षण के द्वारा छात्रों के पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जान सकते हैं। इस परीक्षण में 150 पद हैं जिन्हें करने के लिए कोई सीमा निश्चित नहीं है, फिर भी परीक्षार्थी इसे 40-50 मिनट में कर लेता है। यह परीक्षण पारिवारिक स्वीकारोक्ति, एकाग्रता तथा अस्वीकारोक्ति तीन पहलुओं का मापन करता है । इस परीक्षण की विश्वसनीयता पुनर्परीक्षण विधि से ज्ञात की । साथ ही विषयवस्तु वैधता ज्ञात की जो कि 0.01 स्तर पर सार्थक सिद्ध हुई । इस परीक्षण पर शताशीय और स्टेनाइन मानक ज्ञात किए गए ।
  4. एन. एस. चौहान एवं सी. पी. कोकर माता-पिता की बहु आयामी मापनी (MDP Scale) — यह परीक्षण बच्चों के माता-पिता के लिए बनाया गया है। इस परीक्षण में 56 पद हैं इसके द्वारा माता-पिता की बच्चों के प्रति अभिवृत्ति जानी जाती है। इसी विश्वसनीयता पुनर्परीक्षण विधि से ज्ञात की जो कि 52 से 65 प्राप्त हुई है । इसके बाद अर्द्धविच्छित विधि से 59 से 75 ज्ञात की। इस परीक्षण से संबंधित कोई परीक्षण नहीं है, इसलिए इस परीक्षण पर कसौटी सम्बन्धी वैधता ज्ञात की ।
  5. आर. आर. शर्मा (1988) माता-पिता उत्साहवर्द्धक मापनी (PES)—यह परीक्षण हॉयर सैकेण्ड्री के छात्रों के लिए बनाया गया है। इसके द्वारा यह देखा जाता है कि माता-पिता अपने बच्चों का कितना उत्साहवर्द्धन करते हैं। इस परीक्षण में 40 पद हैं । इसको करने की कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, फिर भी छात्र इसे 25-30 मि. में पूरा कर लेते हैं। इस परीक्षण की विश्वसनीयता दो विधियों पुनर्परीक्षण विधि और अद्धविच्छेदित विधि-से ज्ञात की, जो कि क्रमशः 76 व 83 ज्ञात हुई | विषय-वस्तु सम्बन्धी वैधता ज्ञात की। इस परीक्षण में शतांशीय मानक भी ज्ञात किए।
  6. नलिनी रॉव (1986) माता-पिता बच्चों के सम्बन्धों की मापनी (PCRS) – यह परीक्षण 12-18 वर्ष के बालकों के लिए बनाया गया है। इस परीक्षण को हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं में अलग-अलग बनाया गया है। इस परीक्षण में 100 द्वारा बच्चों को दोनों माता-पिता के बारे में अलग-अलग विचार प्रस्तुत करने होते हैं। इस परीक्षण की विश्वसनीयता पुनः परीक्षण विधि से ज्ञात की जो कि लड़कियों के समूह में .77 से . 87 तथा लड़कों के समूह पर .77 से 87 ज्ञात हुई । वैधता ज्ञात की, जो कि .05 स्तर पर सार्थक सिद्ध हुई ।
माता-पिता में अपने बालकों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति जाग्रत करना अथवा तिरस्कृत बालकों की शिक्षा (To Develop awareness in Parents for Accepting Their Children or Eeducation of Rejected Children) — बच्चे अपने माता-पिता के प्यार में अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। अतः, अक्षम बालकों के प्रति * माता-पिता को दया नहीं दिखानी चाहिए और न ही उन्हें बेइज्जत तथा घृणित रूप से देखना चाहिए तथा न ही उन्हें ऐसे बालक होने का दुःख प्रकट करना चाहिए उन्हें बालकों को वास्तव में प्यार करना चाहिए। न केवल ममता देनी चाहिए बल्कि उनके सुधार के उपाय भी करने चाहिए। बालक को इस बात का आभास देना कि वह परिवार का एक प्रिय सदस्य है, प्रत्येक व्यक्ति उसको चाहता है। माता-पिता को अपने बालक को संवेगात्मक रूप से स्वीकार करना चाहिए। उनके प्रति असंतोष की भावना नहीं रखनी चाहिए । ऐसी अभिवृत्ति माता-पिता के लिए अच्छी होती है। चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, शिक्षा शास्त्री तथा समाज-सेवक को बहुधा उन माता-पिता को शिक्षित करना पड़ता है जो अपने बालकों को स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में उन विभिन्न विधियों का प्रयोग करना चाहिए जिससे माता-पिता अपने बालकों को स्वीकार करने लगें । अनेक ऐसी विधियाँ हैं, जिनके द्वारा माता-पिता अपने बालकों को वस्तुनिष्ठ रूप से स्वीकार करने लगते हैं।
  1. सबसे पहले माता-पिता में यह भावना लानी चाहिए कि कोई भी दुनिया में एक साथ बड़ा विद्वान, खिलाड़ी, वक्ता, संगीतकार आदि नहीं होता है। हमें जो प्राप्त हो गया है उसी के साथ रहना पड़ता है । यह सत्य है कि कोई व्यक्ति लम्बा होना चाहता है तो कोई छोटा, कोई संगीतकार बनना चाहता है तो कोई सुन्दर । परन्तु, प्रौढ़ता का चिह्न है कि मनुष्य को जो कुछ प्राप्त होता है, उसे स्वीकार कर लेता है । यदि मनुष्य एक-दूसरे को सिर्फ इसलिए न स्वीकार करें कि वह पूर्ण नहीं है तो मनुष्य अकेला रह जाएगा क्योंकि कोई भी पूर्ण नहीं है । अतः, इन विचारों को ध्यान में रखकर माता-पिता को हमेशा अपने बच्चों को स्वीकार करना चाहिए ।
  2. यदि कोई बालक अक्षम भी है तो भी उसके माता-पिता को इस बात से अवगत कराना चाहिए कि उन्हीं की समस्या दुर्लभ या अनोखी नहीं है बल्कि अनेक माता-पिता के समक्ष यह समस्या है ।
  3. अध्यापक माता-पिता को जीवन का प्रजातांत्रिक विचार बताकर उन्हें अपने बालकों की ओर उन्मुख कर सकते हैं ।
  4. कुछ माता-पिता जीवन की समस्याओं के प्रति धार्मिक विचार रखते हैं, उन्हें यह बताना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान का बालक है । अतः, उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि उसका सम्मान करें और उसके विकास का प्रयत्न करें ।
  5. माता-पिता को इस बात से अवगत कराना चाहिए कि बालक की अक्षमता उसकी उन्नति नहीं रोकती बल्कि हीन भावना मार्ग रोकती है । इस हीन भावना के उत्पन्न होने में माता-पिता का बहुत बड़ा हाथ रहता है, जिससे बालक अति संवेदनशील बन जाता है और उसमें शर्म, स्व-दया आदि दुर्गुण आ सकते हैं। अधिकतर माता-पिता यह चाहेंगे कि उनका बालक अधिक अक्षम न बने । इसके लिए उन्हें बालकों को हीन भावना से बचाना चाहिए ।
  6. माता-पिता को यह भी समझना चाहिए कि वह अपने बच्चों से उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार ही आशा करें। साथ ही इस बात की ओर ध्यान देना चाहिए कि उनका बालक क्या बन सकता है ।
  7. माता-पिता को अपने बालकों के लिए यह नहीं सोचना चाहिए कि उनका बालक कभी ठीक नहीं हो पाएगा। उन्हें यह सोचना चाहिए कि यद्यपि बालक का एक अंग ठीक. नहीं है । पर उसके अन्य अंग तो ठीक हैं। उन्हें हमेशा आशवान रहना चाहिए ।
  8. जो माता-पिता अपने व्यक्तिगत तनाव का दोषारोपण बच्चों पर करते हैं, उनके माता-पिता को समझ का विकास करना चाहिए ।

अध्यापक तथा समाज-सेवक को चाहिए कि वह माता-पिता को बालक की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक और आर्थिक आवश्यकताओं से अवगत कराएँ । उन्हें यह भी बताना चाहिए कि बालक अपनी इच्छाओं के अनुसार अपना जीवन यापन करना चाहते हैं । वे दूसरों से प्रशंसा और सुरक्षा चाहते हैं। बालकों की इन विभिन्न आवश्यकताओं के प्रति जागरूक रहना माता-पिता का कर्त्तव्य है ।

यदि माता-पिता को उपर्युक्त विधियों से अवगत करा दिया जाए तो जो माता-पिता अपने बच्चों का तिरस्कार करते हैं वह काफी कम हो सकता है।

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