राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व की विवेचना करें ।
प्रश्न – राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व की विवेचना करें ।
(Discuss the directive Principles of state Policy.)
उत्तर – राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्त वे सिद्धान्त हैं जिनको केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारें ध्यान में रखकर अपनी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक तथा राजनीतिक नीतियाँ बनाएँ। ये एक प्रकार से उनके लिए दिशा-निर्देश हैं ।
(1) डॉ. बी. आर. अम्बेडकर (Dr. B. R. Ambedkar) के अनुसार, “ अन्य बातों के साथ-साथ निदेशक सिद्धान्त विशेष रूप से सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र स्थापित करने के उद्देश्य से बनाए गए हैं ।
(2) डॉ. एम. सी. चागला (Dr. M. C. Chagla) के विचार में, “इन सिद्धान्तों का क्रियान्वयन करने से भारत पृथ्वी पर स्वर्ग बन जाएगा।”
(3) प्रो. बी. के. गोखले (B. K. Gokhale) के शब्दों में, “वे ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना चाहते हैं जिसमें न्याय, स्वतन्त्रता और समानता विद्यमान हो तथा लोग सुखी और सम्पन्न हों।”
संविधान का भाग चार-राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्त (Part IV of the Constitution and Directive Principles of State Policy) — धारा 36 से 51 (articles 36 to 51)– संविधान की धाराएँ 36 से लेकर 51 तक राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्तों से सम्बन्धित हैं ।
धारा 36 और 37 में सामान्य जानकारी दी गई है। धारा 38 से लेकर 51 तक का विवरण नीचे दिया जा रहा है ।
1. धारा 38 – राज्य लोककल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा (State to Secure a Social Order for the Promotion of Welfare of the People)—(1) राज्य, ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोककल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा । (2) राज्य, विशिष्टतया, आज की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।
2. धारा 39 – राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्त्व (Certain Principles of Policy to be Followed by the State) — राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप
से—
(क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो;
(ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बँटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो;
(ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो;
(घ) पुरुषों और स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो;
(ङ) पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हो;
(च) बालकों के स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दी जाएँ और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए ।
3. धारा 39 ( क ) – समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता (Equal Justice and Free Legal Aid) — राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तन्त्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह विशिष्टतया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा ।
4. धारा 40 – ग्राम पंचायतों का संगठन (Organisation of Village Panchayats) — राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बताने के लिए आवश्यक हों ।
5. धारा 41 – कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार (Right to work to Education and to Public Assistance in Certain Cases ) — राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ाप, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबन्ध करेगा ।
6. धारा 42 – काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबन्ध (Provision for Justic and Human Conditions of Work)— राज्य काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए और प्रसूति सहायता के लिए उपबन्ध करेगा ।
7. धारा 43 – कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि (Living Wage etc. for Workers)—राज्य, उपयुक्त विधान या आर्थिक संगठन द्वारा या किसी अन्य रीति से कृषि के, उद्योग के तथा अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन-स्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपयोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएँ तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेगा ।
8. धारा 43 ( क ) – उद्योगों के प्रबन्ध में कर्मकारों का भाग लेना (Participation of Workers in Management of Industries) — राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठनों के प्रबन्ध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा।
9. धारा 44 – नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता (Uniform Civil Code for the Citizens) राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।
10. धारा 45 – बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध (Provision for free and CompulsoryEducation for Children) राज्य, इस संविधान के प्रारम्भ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का प्रयास करेगा ।
नोट – संविधान में संशोधन करके वर्ष 2002 में इस धारा को निम्नलिखित रूप दिया गया ।
धारा 45 – छः वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए शिशु देखभाल का उपबन्ध (Provision for Early Childhood Care and Education to Children Below the Age of Six Years) — राज्य सभी बच्चों के लिए छः वर्ष की आयु पूरी करने तक, शिशु देखभाल तथा शिक्षा के लिए उपबन्ध करने का प्रयास करेगा ।
11. धारा 46 – अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि (Promotion of Educational and Economic Interests of Scheduled Tribes and other Weaker Sections)राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करेगा ।
12. धारा 47 – पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्त्तव्य (Duty of the State to Raise the Level of Nutrition and the Standard of Living and to Improve Public Health) — राज्य अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्त्तव्यों में मानेगा और राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्त्तव्यों में मानेगा और राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के हानिकर औषिधियों के, औषधीय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिरोध करने का प्रयास करेगा ।
13. धारा 48 – कृषि और पशुपालन का संगठन (Organisation of Animal and Husbandry)—राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परीक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा ।
14. धारा 48 ( क ) – पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्द्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा (Protection and Improvement of Environment and Safeguard of Forest and Wild Life) — राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षक तथा संवर्द्धन का और वन तथा जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा ।
15. धारा 49– राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण (Protection of Monuments and Places and Objects of National Importance) — संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्त्व वाले घोषित किए गए कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले प्रत्येक संस्मारक या स्थान या वस्तु का, यथास्थिति, लुंठन, विरूपण, विनाश, अपसारण, व्ययन या निर्यात से संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी ।
16. धारा 50 – कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण (Separation of Judiciary and Executive) — राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने के लिए राज्य कदम उठाएगा ।
17. धारा 51 – अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि (Promotions Peace and Security ) — राज्य
(क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का,
(ख) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखने का,
(ग) संगठित लोगों के एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि – बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने को, और
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के माध्यस्थम द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा ।
राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्तों / तत्त्वों की प्रकृति (Nature of Directive Principles of State Policy) — राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्तों की निम्नलिखित विशेषताएँ –
1. कानूनी मान्यता का न होना (Non-Justiciable) — राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्त कोई कानूनी अधिकार नागरिकों को नहीं प्रदान करते हैं। इन्हें किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता ।
2. आधारभूत (Fundamental) — न्यायालय द्वारा लागू किए जाने पर भी निदेशक सिद्धान्त देश के सिद्धान्त में मूलभूत स्थान रखते हैं।
3. कानून बनाने में मार्गदर्शन ( Guidelines in Framing Laws) — कानून तथा नीतियाँ बनाते समय केन्द्रीय सरकारें इन्हें ध्यान में रखती हैं ।
एम. जी. पायली (M.V. Pylee) के शब्दों में, “राज्य के निदेशक सिद्धान्त आने वाली पीढ़ियों के मन में स्थिर राजनीतिक व्यवस्था और गतिशील आर्थिक पद्धति के मूल आदर्शों को भरते हैं अथवा बैठाते हैं । “
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