वर्तमान भारतीय समाज व्यवस्था एवं पाठ्यक्रम स्वरूप एवं निर्धारण पर प्रकाश डालें ।
- पाठ्यक्रम में शारीरिक श्रम को महत्त्वपूर्ण स्थान – शारीरिक श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करना वर्तमान समय की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है । शारीरिक श्रम के अभाव में हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा राष्ट्रीय विकास सम्भव नहीं हो सकता है। इसीलिए गाँधीजी ने बुनियादी शिक्षा में श्रम की प्रतिष्ठा को सबसे अधिक महत्त्व प्रदान किया था । कोठारी आयोग ने भी कार्यानुभव (Work Experience) को अनिवार्य विषय के रूप में रखने की सिफारिश की थी तथा बाद में ईश्वर भाई पटेल समिति ने इसे समाजोपयोगी उत्पादक कार्य (Society Useful Productive Work) की संज्ञा प्रदान कर अनिवार्यता प्रदान की। तात्पर्य यह है कि वर्तमान भारतीय समाज-व्यवस्था के लिए शारीरिक श्रम को शिक्षा से जोड़ना, एक अनिवार्यता है। अतः पाठ्यक्रम में इसे अनिवार्य स्थान प्रदान किया जाना चाहिए ।
- पाठ्यक्रम में कृषि प्राथमिकता- हमारे देश में लगभग तीन-चौथाई जनसंख्या का जीवन निर्वाह कृषि तथा कृषि आधारित उद्योगों पर निर्भर है। अतः हमारे पाठ्यक्रम में कृषि शिक्षा तथा कृषि पर आधारित उद्योगों की शिक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।
- व्यवसायोन्मुख पाठ्यक्रम- जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। देश की आधी से अधिक जनसंख्या की सही ढंग से मूलभूत आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पाती हैं। व्यवसायोन्मुख पाठ्यक्रम के द्वारा स्वरोजगार विकसित करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। महात्मा गाँधीजी, मुदालियर आयोग, कोठारी आयोग, आदिशेषैया समिति आदि सभी ने इस आवश्यकता को स्वीकार किया है |
- विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा को अनिवार्य स्थानवर्तमान युग में विज्ञान एवं तकनीकी के ज्ञान के बिना दैनिक जीवन निर्वाह कर पाना मानव के लिए सम्भव नहीं है । इसलिए इस युग को विज्ञान युग कहा जा रहा है। आज प्रत्येक नागरिक को विज्ञान का सामान्य ज्ञान अति आवश्यक है। अतः प्रथम दस वर्ष की सामान्य शिक्षा में विज्ञान एवं तकनीकी को अनिवार्य स्थान प्रदान किया जाना चाहिए ।
- शारीरिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य शिक्षा की अनिवार्यता – स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है तथा स्वस्थ व्यक्ति ही सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं शारीरिक शिक्षा एवं स्वस्थ्य विज्ञान की शिक्षा के द्वारा स्वस्थ शरीर एवं मन वाले नागरिकों का निर्माण किया जा सकता है । अतः पाठ्यक्रम में सभी स्तरों पर शारीरिक एवं स्वास्थ्य विज्ञान शिक्षा को अनिवार्य रूप से स्थान दिया जाना चाहिए ।
- भारतीय संस्कृतिक एवं इतिहास के अध्ययन की अनिवार्यता – नागरिकों में राष्ट्रीय चेतना में वृद्धि करने की दृष्टि से उन्हें भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं एवं इतिहास का ज्ञान अति आवश्यक है । अतः भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के सैद्धान्तिक ज्ञान एवं क्रियात्मक पक्षों को अनिवार्य रूप से सामान्य शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए ।
- कम से कम दो आधुनिक भारतीय भाषाओं की अनिवार्य शिक्षा – भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है, किन्तु संविधान में 15 भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है। इसका कारण कई प्रान्तों की अपनी अलग-अलग मातृभाषा का होना है। चूँकि हमारा देश बहुभाषी है, अतः पारस्परिक विचार-विनिमय हेतु विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक है। इसके लिए मातृभाषा के साथ-साथ क्षेत्रीय तथा सम्पर्क भाषा के रूप में राष्ट्रभाषा का अध्ययन माध्यमिक स्तर तक आवश्यक होना चाहिए । कोठारी आयोग ने भी त्रि-भाषा सूत्र की सिफारिश की हैं, किन्तु अभी तक हम राष्ट्रभाषा का सम्पर्क भाषा के रूप में नहीं अपना सके हैं जिसके कारण हमें काम चलाने के लिए अंग्रेजी भाषा पर निर्भर रहना पड़ रहा है । अतः राष्ट्रीय एकता की भावना के विकास हेतु माध्यमिक स्तर तक कम-से-कम दो आधुनिक भारतीय भाषाओं (क्षेत्रीय भाषा तथा सम्पर्क भाषा) का अध्ययन अनिवार्य रखना होगा ।
- धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा-भारतीय संविधान में भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। इसके अनुसार विद्यालयों में किसी धर्म विशेष की शिक्षा नहीं दी जा सकती, किन्तु इसने धर्म के महत्त्व को कम नहीं किया है। भारत सदैव से ही धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का समर्थक रहा है, क्योंकि धर्म एवं नैतिकता का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है । एक धर्म-निरपेक्ष समाज में धार्मिक शिक्षा किस प्रकार दी जाये, यह प्रश्न विचारणीय है । महात्मा गाँधी ने इस समस्या का समाधान पहले ही प्रस्तुत कर दिया था। उन्होंने कहा था, “मेरे लिए धर्म, सदाचार एवं नैतिकता पर्यायवाची शब्द हैं। नैतिकता के आधारभूत सिद्धांत सभी धर्मों में समान हैं। इन्हें बालकों को पढ़ाना चाहिए तथा इनकी शिक्षा ही धार्मिक शिक्षा समझी जानी चाहिए । ”
भारतीय धर्म-निरपेक्ष राज्य में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का स्वरूप कैसा हो ? इस सम्बन्ध में विभिन्न आयोगों एवं समितियों ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। डॉ. राधाकृष्णन्, आयोग, श्री प्रकाश समिति तथा कोठारी आयोग ने धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा, शिक्षा के सभी स्तरों पर प्रदान करने का सुझाव दिया है। इन सुझावों के अनुसार सभी धर्मों के आधारभूत के सिद्धांतों के आधार पर नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा दी जाये तथा सत्यता, ईमानदारी, दया, प्रेम, सहानुभूति, दूसरों के प्रति सम्मान आदि मूल्यों के विकास की दृष्टि से पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाये । इस प्रकार विभिन्न आयोगों एवं समितियों के सुझावों को पाठ्यक्रम निदर्शन के रूप में अपनाकर विभिन्न स्तरों पर सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक रूप में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए ।
- राष्ट्रीय एवं समाज सेवा कार्यक्रमों की अनिवार्यता – लोकतांत्रिक नागरिकता एवं राष्ट्रीय भावना के विकास की दृष्टि से शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय एवं समाज सेवा के कार्यक्रमों को अनिवार्य रूप से सम्मिलित करना होगा। इन कार्यक्रमों में सफलतापूर्वक भाग लिए बिना विद्यार्थियों को सर्टीफिकेट एवं डिग्रियाँ नहीं प्रदान की जानी चाहिए । इस दृष्टि से विश्वविद्यालयी शिक्षा स्तर पर राष्ट्रीय सेवा योजना लागू की गई है, लेकिन अभी तक यह ऐच्छिक है, जिसके अनिवार्य करने की आवयश्कता है ।
- क्रियात्मकता पर बल (Emphasis on Activity) – वर्तमान शिक्षा में सभी स्तरों पर सैद्धान्तिक ज्ञान पर अधिक बल दिया जाता है, जिससे बालकों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन नहीं हो पाता है। क्रिया द्वारा अधिगम अधिक स्थायी होता है तथा व्यवहार भी रूपान्तरित होता है। अतः पाठ्यक्रम में क्रियात्मकता को प्रधानता दी जानी चाहिए । गाँधीजी ने भी बुनियादी शिक्षा में क्रियात्मकता पर ही अधिक बल दिया था ।
- बहुमुखी पाठ्यक्रम (Diversified Curriculum) – सभी व्यक्ति एक जैसे नहीं होते तथा उनमें व्यक्तिगत भिन्नताएँ पाई जाती हैं । अतः प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से पाठ्यक्रम बहुमुखी होना चाहिए जिससे विभिन्न रुचियों, क्षमताओं एवं अभिवृत्तियों की पूर्ति की जा सके। इसके लिए पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों एवं क्रियाओं का समावेश किया जाना चाहिए जो सभी बालकों को कुशल नागरिक बनाने एवं सफल जीवन बिताने की योग्यता प्रदान कर सकें ।
- पाठ्यक्रम में लचीलापन (Elasticity in Curriculum)- लोकतान्त्रिक मूल्यों के अनुसार पाठ्यक्रम में लचीलापन होना आवश्यक है। कुछ आधारभूत विषयों को अनिवार्य तथा शेष विषय ऐच्छिक होने चाहिए, जिससे प्रत्येक बालक अपनी-अपनी रुचि, बुद्धि, योग्यता एवं आवश्यकतानुसार विषयों एवं क्रियाओं को चुन सकें ।
- पाठ्यक्रम में स्थानीय साधनों एवं आवश्यकताओं का समावेश ( Inclusion of Local Resources and Needs in Curriculum)- पाठ्यक्रम स्थानीय साधनों एवं आवश्यकताओं के आधार पर निर्मित किया जाना चाहिए। शिक्षकों को इतनी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे स्थान, समय, प्रगति एवं आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन कर सकें ।
- सामान्य शिक्षा का अनिवार्य पाठ्क्रम (Compulsory Curriculum for General Basic Education)- भारतीय संविधान के अनुसार 6 से 14 वर्ष तक के बालकों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान है अर्थात् प्रारम्भिक आठ वर्षीय अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है । सामान्य शिक्षा के इस पाठ्यक्रम में दो भारतीय भाषाएँ भारतीय संस्कृति एवं इतिहास, विज्ञान, गणित, शारीरिक शिक्षा, शारीरिक श्रम, स्वास्थ्य विज्ञान, धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा तथा समाज सेवा कार्यक्रम अनिवार्य रूप से सम्मिलित किये जाने चाहिए ।
उपर्युक्त विशेषताओं के साथ-साथ लोकतान्त्रिक समाज हेतु पाठ्यक्रम समाज की व्यावसायिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला होना चाहिए तथा पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो बालकों को उत्तम ढंग से अवकाश बिताने की शिक्षा दे सकें ।
लोकतान्त्रिक समाज-व्यवस्था एवं शिक्षा संस्थाओं का वातावरण (Democratic Society and Eivironment of educational institutions) – विद्यालय बालक के समाजीकरण का विस्तृत स्थल होता है तथा शिक्षा संस्थाओं का वातावरण बालक के व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अतः शिक्षा संस्थाओं का वातावरण लोकतन्त्रीय आदर्शों पर आधारित होना चाहिए । लोकतन्त्रीय आदर्शों को प्रतिपादित करने तथा उनके लिए उचित वातावरण प्रस्तुत करने के लिए अग्रलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है –
- शिक्षा संस्थाओं के संचालन में शिक्षकों, छात्रों एवं कर्मचारियों का सक्रिय एवं समान योगदान हो ।
- विद्यालय की नीति-निर्धारण में शिक्षकों को अधिक-से-अधिक अवसर दिये जाने चाहिए | उन्हें पाठ्यक्रम निर्धारण, पुस्तकों एवं शिक्षण पद्धतियों के चयन की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए ।
- कक्षा व्यवस्था, अनुशासन तथा अन्य क्रिया-कलापों में शिक्षकों का पर्याप्त सहयोग होना चाहिए ।
- शिक्षालय के सभी कार्यों में स्वतन्त्रता एवं समानता का महत्त्वपूर्ण स्थान हो तथा जाति, वर्ण, धर्म आदि के आधार पर किसी तरह का भेद-भाव परिलक्षित न हो ।
- शिक्षकों, अभिभावकों तथा विद्यालय प्रशासकों के पारस्परिक सम्बन्ध, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति एवं मित्रता तथा समानता की भावना पर आधारित हों ।
- शिक्षा संस्थाओं में व्यक्तित्व के सभी पक्षों- शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक आदि से सम्बन्धित क्रिया-कलापों का आयोजन किया जाना चाहिए ।
- स्थानीय संसाधनों का समुचित सदुपयोग किया जाना चाहिए ।
- पहल एवं स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए ।
- शिक्षकों द्वारा प्रतिपादित नवीन विचारधाराओं, प्रयोगों एवं शिक्षण विधियों को यथासम्भव मान्यता दी जानी चाहिए ।
- शैक्षिक प्रशासकों को शिक्षकों को सहयोगी की भावना से देखना चाहिए तथा उनके कार्यों की रचनात्मक ढंग से समालोचना करनी चाहिए ।
- शिक्षकों की लोकतान्त्रिक आदर्शों में आस्था होनी चाहिए। उन्हें बालकों के समक्ष अपने आचरण एवं व्यवहार के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए जिनका वे अनुकरण कर सकें तथा उनके मन में लोकतन्त्रीय आदर्शों के प्रति निष्ठा उत्पन्न कर सकें ।
उपर्युक्त वातावरण वाली शिक्षा संस्थाएँ हमारी वर्तमान लोकतन्त्रीय समाज व्यवस्था को सुदृढ़ करने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं ।
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