विद्यालय पाठ्यक्रम में हिन्दी का स्थान स्पष्ट कीजिए।
- विद्यालय प्रकट करने का सरलतम साधन- मातृभाषा विचार प्रकट करने का सरलतम साधन है। प्रत्येक बालक जन्म से स्नेहयुक्त वातावरण में अपने माँ-बाप के वार्तालाप का अनुकरण करता है। प्रारम्भ में उसके तात्कालिक जीवन से सम्बन्धित जो वस्तुएँ होती हैं (पानी, खाना, खिलौने आदि), उनका नाम लेकर पुकारता है तथा बाद में मातृभाषा से उनका सम्बन्ध इतना गहन हो जाता है कि वह जो कुछ सोचता है, वह मातृभाषा में ही सोचता है। प्रारम्भ से बालक मातृभाषा में सोचता- विचारता है, अतः जितनी सरलता तथा सुन्दरता से वह विचार मातृभाषा में अभिव्यक्त कर सकता है, उतना और किसी अन्य भाषा में नहीं।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाय तो मातृभाषा का महत्त्व और अधिक सिद्ध होता है। प्रारम्भ से ही बालक जिस भाषा को बोलते हैं, उसका प्रभाव उनके मस्तिष्क में अमिट रहता है। बड़े होने पर चाहे बालक किसी दूसरी भाषा में प्रवीणता प्राप्त कर ले, परन्तु संकट आने पर वह अपनी मातृभाषा में ही चिल्लाता है। वास्तव में, मातृभाषा की पहुँच हमारे अचेतन मन की गहराइयों तक रहती है। कोई भी व्यक्ति जितनी निपुणता से मातृभाषा में भाषण दे सकता है, उतनी निपुणता से विदेशी भाषा में नहीं ।
- सांस्कृतिक उन्नयन में सहायक – मातृभाषा के द्वारा ही बालक अपनी संस्कृति की महानता का ज्ञान प्राप्त करता है। अपने पूर्वजों की विचारधारा, रहन-सहन तथा धार्मिक परम्पराओं का ज्ञान मातृभाषा के द्वारा ही ठीक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है। हमारे देश में अंग्रेजी भाषा को अंगेजी शासन में राजकीय भाषा होने के कारण विशेष महत्त्व दिया जाता था। अधिकांश भारतीय अंग्रेजी भाषा में निपुण होना अपना पावन कर्त्तव्य समझते थे। उनके जीवन का अधिकांश भाग अंग्रेजी भाषा के सीखने में व्यय हो जाता था। परिणामस्वरूप, वे भारतीय संस्कृति में इतने परिचित नहीं हो पाते थे जितने कि अंग्रेजी संस्कृति से | किसी देश के सांस्कृतिक उन्नयन का अध्ययन करने के लिए उस देश की भाषा का अध्ययन करना आवश्यक है।
- शैक्षिक महत्त्व – मातृभाषा का शैक्षणिक महत्त्व भी है। विभिन्न विषयों का ज्ञान बालकों को जितनी सरलता से मातृभाषा द्वारा कराया जा सकता है, उतनी सरलता से किसी विदेशी भाषा द्वारा नहीं। इतिहास, भूगोल तथा अर्थशास्त्र आदि विषय तो मातृभाषा के माध्यम से ही पढ़ाकर प्रभावशाली बनाये जा सकते हैं। विज्ञान शिक्षण का भी प्रयास करने पर प्रभावशाली बनाया जा सकता है। संसार के अधिकांश देशों में समस्त विषय मातृभाषा के माध्यम से ही पढ़ाये जाते हैं। विदेशी भाषा में विभिन्न विषय पढ़ाये जाने से छात्रों का अधिकांश समय विदेशी भाषा के सीखने में ही व्यय हो जाता है और वे विषय की गहनता को नहीं समझ पाते। किसी भी व्यक्ति को भली प्रकार समझने तथा अपने विचारों को भली प्रकार प्रकट करने के लिए मातृभाषा उत्तम साधन है। डॉ. ऐनी बेसेण्ट के शब्दों में, “मातृभाषा द्वारा शिक्षा के अभाव ने, भारत को निश्चय ही, विश्व के सभ्य देशों में अत्यन्त अज्ञानी बना दिया है। ‘
- व्यक्ति के विकास में सहायक – यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि आत्म-प्रकाशन का अवसर यदि बालकों को दिया जाय तो उनका मानसिक विकास सरलता से होता है, परन्तु आत्म-प्रकाशन जितना अच्छा मातृभाषा में हो सकता है, उतना अच्छा किसी विदेशी भाषा में नहीं। एक विद्वान के शब्दों में, “मातृभाषा के अध्ययन से बच्चों के व्यक्तित्व का विकास होता है। ” पहली बात तो यह है कि भाषा ज्ञान से बच्चे दूसरों की बात समझने और अपनी बात कहने में समर्थ होते हैं। इससे उनमें आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है। वे अपने भावों को निस्संकोच व्यक्त करते हैं, जिससे उनकी जन्मजात शक्तियों का विकास होता है। अतः मातृभाषा पर अधिकार हो, इसके लिए उसकी शिक्षा अवश्य ही दी जानी चाहिए।
- नागरिकता का विकास–मातृभाषा द्वारा व्यक्ति का बौद्धिक व भावात्मक विकास होता है जिससे उसमें देश-प्रेम की भावनाएँ संचारित होती हैं। मातृभाषा द्वारा व्यक्ति की आत्मा का गठन होता है और उसके आचारण में नैतिकता आती है। नैतिकता का विकास आदर्श नागरिकता का प्रथम लक्षण है। उचित भाव – प्रकाश आदि की शिक्षा व्यक्ति मातृभाषा द्वारा ही प्राप्त करता है। इस विषय में रायबर्न लिखते हैं, “वे समस्त गुण जो कि एक अच्छे नागरिक के लिए आवश्यक हैं— स्पष्ट विचार क्षमता, स्पष्ट अभिव्यक्तिकरण, विचार, भावना, और क्रिया की सत्यता, भावात्मक तथा सृजनात्मक जीवन की पूर्णता – इन समस्त गुणों का पल्लवन तथा विकास तभी सम्भव है, यदि केवल भावात्मक तथा बौद्धिक जीवन की नींव अर्थात् मातृभाषा पर यथेष्ट ध्यान दिया जाये। “
गाँधीजी मातृभाषा के विशेष पक्ष में थे। उनके विचार में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए, क्योंकि बालक अपने विचारों को मातृभाषा में ठीक प्रकार से अभिव्यक्त कर सकता है। दूसरे, विदेशी भाषा बालक के अन्दर मानसिक दासता को जन्म देती है, वे अपने देश के सांस्कृतिक मूल्य को तनिक भी नहीं समझ पाते ।
गाँधीजी के शब्दों में- “मानव के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है, जितना कि बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध। बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता है, इसलिए उनके मानसिक विकास के लिए, उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं मातृभूमि के विरुद्ध समझता हूँ। ” महात्मा गाँधी के समान रवीन्द्रनाथ भी मातृभाषा के माध्यम द्वारा शिक्षा प्रदान करने के पक्ष में थे। उनके अनुसार अंग्रेजी भाषा का माध्यम बालकों के लिए स्वाभाविक सिद्धान्त नहीं हो सकता। वे एक स्थल पर लिखते हैं कि, “ अंग्रेजी भाषा के घूँटट में छिपी हुई विद्या स्वभाव से हमारे मन की सहवर्तनी होकर नहीं चल सकती। यही वजह है कि उनमें से अधिकांश लोगों को जितनी शिक्षा मिलती है, उतनी विद्या नहीं मिलती। ” प्रत्येक व्यक्ति के विचार उसकी मातृभाषा में जन्म लेते हैं तथा उनका विकास और समाप्ति भी मातृभाषा में ही होती है।
हर्टाग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में पाठ्यक्रम में मातृभाषा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए एक स्थल पर उल्लेख किया है कि “हमसे बहुत से मनुष्यों ने कहा है कि मातृभाषा में शिक्षा पाने वाला विद्यार्थी आरम्भ में अपनी अंग्रेजी की कमजोरी के कारण भले ही पिछड़ जाता हो, लेकिन क्योंकि मातृभाषा के द्वारा सामान्य विषयों में उसकी गति अधिक तीव्र हो जाती है, इसलिए अन्त में वह ऐंग्लोवर्नाक्यूलर स्कूल के लड़के से आगे निकल जाता है। ‘ गाँधीजी और रवीन्द्रनाथ के समय अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वान ब्रेल्स, फोर्ड मातृभाषा के विषय में इस प्रकार विचार प्रकट करते हैं-“केवल एक हो भाषा में हमारे भावों की स्पष्ट व्यंजना हो सकती है, केवल एक ही भाषा के शब्दों को सूक्ष्म संकेतों को हम अपनी माता के दूध के साथ सीखते हैं तथा जिसमें हम अपनी प्रारम्भिक प्रार्थनाओं, हर्ष तथा शोक के उद्गारों को व्यक्त करते हैं। दूसरी किसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना विद्यार्थी के श्रम को अनावश्यक रूप से बढ़ाना ही नहीं, वरन् उसके मस्तिष्क की स्वतन्त्र गति को पंगु बना देना है। ” जाकिर हुसैन समिति रिपोर्ट के अनुसार, “मातृभाषा बालकों को अपने पूर्वजों के विचारों, भावों तथा महत्त्वाकांक्षाओं की समृद्ध विरासत से परिचित कराने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है । ”
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