शुरूआती लेखन की संकल्पना और उसकी विकास प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए ।
श्रीमती मॉटेसरी ने लिखने की क्रिया को सरल कहा है । परन्तु वह पढ़ने की क्रिया से कठिन है। पढ़ने में बालकों को अक्षर की आकृति का ज्ञान होना चाहिए, परन्तु लिखने में अक्षरों की आकृति के ज्ञान के साथ-साथ, उन अक्षरों को वैसा का वैसा लिख सकने की क्षमता भी होनी चाहिए और इसके लिए आवश्यक है— हाथ की अंगुलियों की माँसपेशियों का यथोचित सन्तुलन। यदि शब्दों का ध्वन्यात्मक परिचय बालकों को पहले से ही प्राप्त होगा तो उनके लिए वाचन के सहारे लिखना सीखना अधिक सुविधाजनक होगा। दूसरे, इस बात का अनुभव बहुतों ने किया होगा कि यदि किसी नई भाषा को सीखने में छः सप्ताह लगते हैं तो उस भाषा में लिखना सीखने में कहीं अधिक समय लगेगा। कई बार ऐसा होता है कि हम किसी भाषा को पढ़कर समझ तो सकते हैं, परन्तु उसमें लिख नहीं सकते। लेखक का अनुभव है कि वह मराठी, पंजाबी और गुजराती भाषा को पढ़कर समझ तो सकता है, किन्त इन भाषाओं को लिखने में उसे बड़ी कठिनाई होती है। इन सब बातों से यह स्पष्ट हो गया कि वाचन क्रिया के विकास के पश्चात् ही लिखना सिखाना चाहिए। वही बालक अच्छा लिख सकेगा, जिसमें ठीक-ठीक पढ़ने की क्षमता होगी। हम बालक की पढ़ी हुई वस्तु से उसके लेखन का समन्वय करवा सकते हैं। जो बात बालक ने पढ़ी अथवा बातचीत द्वारा सुनी होगी, उस पर वह अच्छी प्रकार से लिख सकेगा ।
भाषा पर अधिकार प्राप्ति के लिए, जिस प्रकार किसी भाषा का सुनना, बोलना और पढ़ना महत्त्व रखता है, उसी प्रकार लिखने का भी महत्त्व है । अतः इसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते ।
प्राचीन समय से ही भारतवर्ष में सुन्दर लेखन पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। अक्षर सुडौल हों, सुन्दर हों, इस पर विशेष बल दिया जाता था। न केवल प्राचीन काल में, अपितु मध्यकाल में भी सुन्दर लेख का बड़ा महत्त्व था । मध्यकाल में मुस्लिम राज्यों की एक विशेषता यह भी थी कि उसमें ऐसे व्यक्ति होते थे, जो सुन्दर लेखन की कला में पारंगत थे। फारसी भाषा में सुन्दर और सुडौल अक्षरों को नस्तालीक कहते थे। कोई जमाना था, जब कि हर जगह इस ‘नस्तालीक’ का बोलबाला था। शिकस्ता (घसीट) लिखावट तो फारसी लिपि में बहुत बाद में आई । यह केवल ‘शिकस्ता’ लिखावट की कृपा है कि हम उर्दू भाषा में ‘बाबाजी अजमेर गये’, को ‘बाबाजी अज (आज) मर गये’ पढ़ लेते हैं ।
अंग्रेजों के भारतवर्ष में आने के पश्चात्, जब से मुद्रण और टंकन यन्त्रों का अधिक व्यवहार होने लगा, तब से लेखन कला का ह्रास ही हुआ है । इसका स्पष्ट परिणाम हम आज के विद्यार्थियों के गन्दे लेख में पाते हैं। विद्यार्थियों का बुरा लेख होने का एक कारण और भी है। अंग्रेजी और फारसी के समान ही हम नागरी लिपि में भी शिकस्त (घसीट) लिखावट लाना चाहते हैं। यदि हम चाहते हैं कि विद्यार्थियों का लेख सुन्दर बने, तो हमें इस दूषित प्रवृत्ति को दूर करना होगा ।
लेखन के विकास की प्रक्रिया
बालकों को लिखना सिखाने से पहले उनमें लेखन सम्बन्धी जिज्ञासा उत्पन्न करना आवश्यक तभी वे लेखन कार्य में रुचि लेंगे । बालक क्रियाशील होते हैं। हमें उनकी इस क्रियाशीलता को प्रोत्साहित करना होगा। बालकों को रंगीन चित्र अच्छे लगते हैं । हम बालकों को भिन्न-भिन्न चित्रों की रूपरेखा देकर रंग भरने को कह सकते हैं। बालक इस कार्य में बड़ी रुचि लेंगे । इस प्रकार हम बालकों को देखी हुई वस्तुएँ पेन्सिल आदि द्वारा बनाने को कह सकते हैं। बालकों की इस रचनात्मक वृत्ति का उपयोग एक कुशल अध्यापक द्वारा अक्षर लेखन में कराया जा सकता है । ”
भाषा के जो भिन्न-भिन्न अंग हैं; जैसे—बोलना और पढ़ना, उनकी अपेक्षा लेखन का कार्य कठिन है, क्योंकि लिखते समय हाथ की माँसपेशियों के सन्तुलन की आवश्यकता पड़ती है। जिस बालक ने केवल पढ़ना ही सीखा है, उसमें अभी इस सन्तुलन का अभाव होता है ठीक – ठीक लिखने के लिए यह आवश्यक है कि बालक अक्षरों की आकृति का भली प्रकार से निरीक्षण करें और फिर वैसे ही अक्षर लिख सकने में समर्थ हों। बालकों की पाठशालाओं में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियाएँ होती हैं, उनका एक प्रयोजन यह भी होता है कि बालकों के भिन्न-भिन्न अंगों की माँसपेशियों में सन्तुलन स्थापित किया जाए ।
माँसपेशियों में सन्तुलन स्थापित होने के पश्चात् ही बालकों को लिखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है । इसके अनुसार प्रत्येक बालक अपने विचार के आधार पर ही लिखना प्रारम्भ करेगा, न कि आयु के आधार पर। हमने प्रायः देखा है कि यदि किसी शिशु के हाथ में चॉक या पेन्सिल आदि पड़ पाए तो वह दीवार पर या फर्श पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचकर लिखने का प्रयास करता है। छोटे बालक की इस प्रवृत्ति का लाभ, लिखना सिखाने में भी लिया जा सकता है ।
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