श्रव्य-दृश्य सामग्री के प्रकार का वर्णन करें ।

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प्रश्न – श्रव्य-दृश्य सामग्री के प्रकार का वर्णन करें ।
उत्तर – शिक्षा के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले श्रव्य दृश्य साधनों को निम्नांकित ढंग से वर्गीकृत किया जा सकता है-
  1. श्रव्य साधन ( Audio Aids) – रेडियो, टेपरिकॉर्डर, ग्रामोफोन आदि ।
  2. दृश्ये साधन (Visual-Aids) – श्यामपट, सूचनापट, वास्तविक पदार्थ, चित्र, मानचित्र, चार्ट, पोस्टर, ग्राफ, मॉडल, प्रोजेक्टर, ध्वनि रहित फिल्म (चलचित्र) आदि ।
  3. श्रव्य-दृश्य साधन (Audio Visual Aids) – ध्वनि युक्त चलचित्र, दूरदर्शन, वीडियो टेपरिकॉर्डर एवं प्लेयर आदि ।
  4. विविध साधन (Differents Types of Aids) – भ्रमण, प्रदर्शनी, संग्रहालय, नाटकीय क्रियाएँ आदि ।

इनमें से कुछ प्रमुख साधनों का विस्तृत विवेचन यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा हैवास्तविक पदार्थ (Real Objects) – वास्तविक वस्तु को देखने पर ही उसके सम्बन्ध में प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है। अनदेखी वस्तुओं के बारे में बार-बार बतलाने एवं समझाने पर भी छात्रों में उसकी स्पष्ट अवधारणा नहीं बन पाती है। अतः वास्तविक पदार्थों को देखने पर व्यर्थ का भ्रम दूर हो जाता है तथा तत्सम्बन्धी ज्ञान में स्थायित्व एवं दृढ़ता आ जाती है । वास्तविक वस्तुओं के प्रदर्शन से शिक्षण में भी रोचकता एवं प्रभावशीलता आ जाती है तथा छात्र उस ज्ञान को सरलता से ग्रहण कर लेते हैं । विज्ञान विषयों के शिक्षण में तो इसका बहुत ही महत्त्व है। उदाहरणार्थ, मेढक की शरीरे की रचना के बारे में विद्यार्थी वास्तविके मेढक की चीर-फाड़ करके जो ज्ञान प्राप्त कर सकता है वह पुस्तकों के अध्ययन से उतने स्पष्ट ढंग से नहीं प्राप्त कर सकता है। अतः अधिक-से-अधिक वास्तविक वस्तुओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने का प्रयास किया जाना चाहिए ।

चित्र (Pictures)—चित्रों की सहायता से विषय-वस्तु को रोचक बनाया जा सकता है तथा उसकी ओर छात्रों का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। चित्रों के माध्यम से प्रदान किया गया तथा प्राप्ते किया गयो ज्ञान अधिक स्थायी होता है । इनके प्रयोग से विद्यार्थियों की कल्पना शक्ति का भी विकास होता है। सभी प्रकार के शैक्षणिक साधनों में चित्रों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। चित्रों के प्रयोग के प्रमुख लाभ इस प्रकार है –

  1. इनके प्रयोग से छात्र पाठ में रुचि लेते हैं ।
  2. इनके प्रयोग से शिक्षण में सजीवता आ जाती है ।
  3. मौखिक व्याख्या की अपेक्षा छात्र चित्रों के द्वारा अधिक शीघ्रता से सीखते हैं ।
  4. इनके माध्यम से छात्रों में कल्पना शक्ति तथा कलात्मक प्रवृत्ति का विकास होता है।
  5. इनके प्रयोग से छात्रों में निरीक्षण एवं विश्लेषण क्षमता का विकास होता है ।
  6. इनके प्रयोग से कक्षा में यथार्थ वातावरण का निर्माण होता है ।
  7. विभिन्न विषयों के शिक्षण में नवीन पाठ की प्रस्तावना निकलवाने, मुख्य बिन्दु अथवा तथ्य को स्पष्ट करने तथा पाठ को विकसित करने हेतु चित्रों का प्रयोग उपयोगी होता है ।

शिक्षण सहायक सामग्री के रूप में चित्रों का सही लाभ उसी स्थिति में मिलता है, जब इनका उचित ढंग से प्रयोग किया जाये। अतः शिक्षक को इनका प्रयोग करते समय निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए-

  1. चित्र कक्षा-कक्ष में ऐसे स्थान पर टाँगे अथवा रखे जाने चाहिए, जहाँ पर सभी छात्र उसे आसानी से देख सकें ।
  2. चित्रों का प्रयोग उपयुक्त स्थान एवं समय पर ही किया जाना चाहिए ।
  3. इनके प्रदर्शन के समय छात्रों से सम्बन्धित प्रश्न अवश्य पूछे जाने चाहिए ।
  4. चित्रों की रचना कक्षा-स्तर के अनुकूल होनी चाहिए तथा उनका आकार न तो बहुत छोटा और न ही बहुते बड़ा होना चाहिए ।
  5. चित्र प्रकरण से ही सम्बन्धित होना चाहिए।
  6. चित्र उद्देश्यपूर्ण होने चाहिए।
  7. जहाँ तक सम्भव हो चित्रों को शिक्षक के मार्गदर्शन में छात्रों के द्वारा ही निर्मित किया जाना चाहिए ।
  8. चित्र की आवश्यकता समाप्त हो जाने पैर उसे छात्रों के सामने से हटा लेना चाहिए ।

मानचित्र, रेखाचित्र, चार्ट आदि के प्रयोग में भी शिक्षक को इन्हीं प्रकार की सावधानियाँ बरतनी चाहिए ।

मॉडल या प्रतिमान या नमूना (Model) – मॉडल किसी वास्तविक वस्तु का कृत्रिम अथवा छोटे स्तर पर क्रियात्मके प्रतिरूप (प्रतिमा) होता है, जिसके माध्यम से छात्रों को वास्तविक वस्तु के सम्बन्ध में ज्ञान कराया जाता है। कुछ वस्तुएँ ऐसी होती है, जो बड़े आकार की होने के कारण कक्षा में नहीं लायी जा सकती है, कुछे ऐसी होती हैं, जो शिक्षक को उपलब्ध भी नहीं हो सकती हैं तथा कुछ ऐसी होती हैं, जिनका एक निश्चित स्थान होता है | इसके अतिरिक्त कुछ वस्तुओं को चित्रों के द्वारा अच्छी तरह स्पष्टे भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि चित्र द्वि-आयासी (Two-dimensional) होते हैं। मॉडल त्रि-आयामी (Three-dimensional) होते हैं । अतः इनके माध्यम से किसी वस्तु के बाहरी एवं भीतरी दोनों आकारों एवं अंगों को स्पष्ट किया जा सकता है । इस प्रकार वास्तविकता का बोध कराने की दृष्टि से मॉडल अनूठे दृश्य साधन होते हैं। रेल का इंजन, वायुयान, जलयान, ताजमहल आदि के बारे में उनके छोटे मॉडल द्वारा उनकी बनावट को प्रदर्शित किया जा सकता है ।

इस प्रकार मॉडल का प्रयोग उस स्थिति में उपयोगी होता है, जब वास्तविक पदार्थ अनुपलब्धे हों, उनका आकार बहुत बड़ा हो तथा उन्हें चित्रों के द्वारा स्पष्ट न किया जा सकता हो | चूँकि शिक्षक के सामने शिक्षण के समय ऐसी स्थितियाँ अनेक बार आती हैं। अत: इनके लिए मॉडल का प्रयोग बहुत ही उपयोगी होता है । इनके प्रयोग से छात्र पाठ में अधिक रुचि लेते हैं तथा उनकी अनेक जिज्ञासाओं का समाधान हो जाता है । इनके प्रयोग से छात्रों में रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास होता है ।

रेडियो (Radio)–सामान्य रूप से रेडियो का प्रयोग आमोद-प्रमोद तथा देश-विदेश की घटनाओं की जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है, किन्तु इसकी उपयोगिता को देखते हुए अब इसकी गणना हमारी दिन-प्रतिदिन की आवश्यकता की वस्तुओं में की जाने लगी है । इसका अधिकाधिक प्रचार भी इस बात को सिद्ध करता है। उपयोगिता की दृष्टि से ही अब इसका प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में भी होने लगा है। वर्तमान समय में रेडियो शिक्षा प्रदान करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है । रेडियो पर विद्वानों, शिक्षाविदों एवं विषय-विशेषज्ञों के भाषण एवं परिचर्चाएँ आदि प्रसारित की जाती हैं। आकाशवाणी द्वारा अब कक्षा- विशेष के लिए पूर्व-घोषित कार्यक्रमानुसार किसी विषय विशेष के पाठ प्रसारित किये जाते हैं। चूँकि ये पाठ प्रभावशाली शिक्षकों द्वारा तैयार किये हुए होते हैं । अतः इनका लाभ देश या राज्य के सभी छात्र उठा सकते हैं। रेडियो के महत्त्व के बारे में जॉर्ज वाटसन का कथन बहुते ही उपयुक्ते लगता है कि “रेडियो शिक्षा का नवीन अंग नहीं है। रेडियो शिक्षा से श्रेष्ठ मानी जाने वाली वस्तु नहीं है । रेडियो स्वयं शिक्षा है।” अब सभी शिक्षकों द्वारा शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में इसके महत्त्वपूर्ण योगदान को स्वीकार किया जाने लगा है। अनेक देशों में अब रेडियो एवं दूरदर्शन की गणना शैक्षिक उपकरण के रूप में की जाती है ।

टेप रिकॉर्डर (Tape Recorder)- टेप रिकॉर्डर एक महत्त्वपूर्ण शैक्षिक उपकरण है । इसकी सहायता से रेडियो की सीमाओं को भी दूर किया जा सकता है । चूँकि रेडियो के कार्यक्रम एक निश्चित समय पर ही आते हैं तथा एक ही बार आते हैं । अतः उन्हें टेप करके सुविधानुसार पुनः उनको सुन एवं सुनाकर लाभान्वित हुआ जा सकता है । इसके अतिरिक्त कभी-कभी कुछ प्रमुख शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों एवं विशिष्ट व्यक्तियों के किसी प्रकरण पर भाषण रात में या किसी अन्य समय प्रसारित होते हैं । टेप रिकार्डर की सहायता से उन्हें टेप करके छात्रों को सुनाया जा सकता है। कभी-कभी कुछ विशिष्टे व्यक्तियों एवं विषय-विशेषज्ञों को अन्यत्र दिये हुए भाषणों को भी टेप रिकॉर्डर के प्रयोग से संकलित करके उसका लाभ छात्रों तक पहुँचाया जा सकता है। इस प्रकार टेप रिकॉर्डर रेडियो के पूरक उपकरण के रूप में कार्य करता है । शैक्षिक अनुसन्धानों में विभिन्न व्यक्तियों के साक्षात्कार तथा शिक्षक व्यवहार के अध्ययन आदि में भी टेप रिकॉर्डर का प्रयोग बहुत उपयोगी होता है ।

प्रोजेक्टर अथवा चित्र प्रदर्शक यन्त्र (Projector or Magic Lantern)-प्रोजेक्टर के द्वारा छोटी आकृति की स्लाइड (काँच की छोटी पट्टिका पर बनाया गया चित्र) को बड़े आकार के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । इसे जादू की लालटेन (Magic Lantern) भी कहा जाता है । शिक्षा के क्षेत्र में इसका प्रयोग बहुत पहले से किया जा रहा है । इसके प्रयोग के लिए शिक्षक विभिन्न विषयों एवं प्रकरणों से सम्बन्धित स्लाइड एकत्रित करता है । इन स्लाइड्स को प्रोजेक्टर (प्रक्षेपक यन्त्र) द्वारा प्रक्षेपित किया जाता है । इस प्रकार छोटे चित्र बड़े आकार में पर्दे पर दिखाई पड़ते हैं। इसके प्रयोग से विषय-वस्तु को रोचक बनाया जा सकता है । इसमें छात्र भी अधिक रुचि लेते हैं । विज्ञान विषयों के शिक्षण में इसका बहुत ही महत्त्व है । सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में भी स्लाइड का निर्माण करके इसका उपयोग किया जाता है । इसके प्रयोग में शिक्षकों को निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए –

  1. शिक्षक को स्वयं प्रोजेक्टर का उपयोग करना आना चाहिए ।
  2. स्लाइड्स को बहुते सँभालकर सुरक्षित ढंग से रखना चाहिए, क्यांकि शीशे के होने के कारण इनके टूटने का डर रहता है ।
  3. पाठ्य-वस्तु से सम्बन्धित स्लाइंड को ही प्रक्षेपित करना चाहिए तथा दिखाने से पहले उनका अध्ययन कर लेना चाहिए ।
  4. एक समय में बहुते अधिक स्लाइड नहीं दिखानी चाहिए, अन्यथा छात्र उनका लाभे नहीं उठा सकेंगे ।
  5. प्रदर्शन के समय शिक्षक को चित्र के बारे में जानकारी भी देते रहना चाहिए, जिससे छात्र उन्हें ठीक ढंग से समझ सकें ।

चलचित्र (Films) – चलचित्र में प्रोजेक्टर द्वारा स्लाइड़ चित्रों को प्रक्षेपित किया जाता है है, किन्तु इसमें चित्रों को एक निश्चित क्रम में ऐसी गति के साथ प्रक्षेपिते किया जाता कि वे अलग-अलग चित्रों के स्थान पर एक पूर्ण घटना अथवा कहानी के रूप में दिखाई पड़ते हैं । आधुनिक वैज्ञानिक युग में चलचित्रों की बहुते अधिक उपयोगिता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है । चलचित्र को ध्वनि के साथ प्रस्तुत करने के परिणामस्वरूप इसकी उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है। इसके माध्यमे से छात्र घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखने के साथ-साथ सुनता भी जाता है । अतः इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान का छात्रों पर स्थायी प्रभाव रहता है। इसके प्रयोग से पाठ को अधिके रोचक एवं स्पष्ट बनाया जा सकता है। इसकी सहायतो से शिक्षक को अधिक सजीव एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है। इसके माध्यम से योग्य अध्यापकों द्वारा प्रस्तुत किये गये पाठों की फिल्म बनाकर दूसरे स्थान एवं विद्यालयों के छात्रों को लाभान्वित किया जा सकता है । चलचित्र द्वारा शिक्षण से छात्रों की कल्पना, निरीक्षण एवं विवेचन शक्ति का विकास किया जा सकता है। इसके प्रयोग से छात्र बहुत शीघ्रता एवं सरलता से विषय-वस्तु पर ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं ।

चलचित्र के शैक्षिक महत्त्व के बारे में अनेक शिक्षाविदों एवं विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं।

क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, “चलचित्रों का शैक्षिक महत्त्व इसलिए है क्योंकि वे गति को व्यक्त करते हैं, विचार एवं कार्य की निरन्तरता का विकास करते हैं, मानक क्षेत्र की सीमाओं की पूर्ति करते हैं तथा अपने प्रस्तुतीकरण में प्रारम्भ से अन्त तक एकसमान होते हैं।”

जारोलीमेक ने चलचित्र के शैक्षिक महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया है-‘‘चलचित्र के द्वारा बालक सुदूर अतीत का सदियों से सम्बन्धित ज्ञान सहज ही प्राप्त कर सकता है, स्थान विशेष, व्यक्तियों तथा प्रक्रियाओं का चित्र प्रस्तुत करने से वह जो ज्ञान प्राप्त करता है, उसको किसी दूसरे तरीके से प्राप्त करना उसके लिए असम्भव है। ”

चलचित्रों का चयन एवं प्रयोग ( Selection and uses of Films) – शिक्षक को चलचित्रों का चयन एवं उनका कक्षा में प्रयोग करते समय कुछ विशेष बातों पर ध्यान रखना आवश्यक होता है । ये विशेष बातें इस प्रकार की हैं –

  1. चलचित्र (फिल्म) का पाठ्य-वस्तु से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध होना चाहिए तथा वह पाठ के विकास में पूर्ण रूप से सहायक हो ।
  2. फिल्म बालकों की आयु, योग्यता स्तर एवं रुचि के अनुरूप हो ।
  3. फिल्म प्रामाणिक होनी चाहिए अर्थात् उसमें किसी प्रकार की गलत सूचनाएँ समाविष्ट न की गई हो ।
  4. उन्हीं फिल्मों का चयन किया जाये, जो शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तैयार की गई हो ।
  5. पिल्म में प्रयुक्त भाषा एवं संवाद छात्रों के लिए ग्राह्य होने चाहिए ।
  6. फिल्म शिक्षाप्रद होने के साथ-साथ मनोरंजक भी हो ।
  7. फिल्म योग्य व्यक्तियों द्वारा तैयार की गई हो तथा उसका शैक्षिक महत्त्व हो ।
  8. फिल्म के साथ उसका पूर्ण विवरण भी उपलब्ध होना चाहिए, जिससे उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध हो ।

दूरदर्शन (Television ) – बीसवीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शैक्षिक उपकरण दूरदर्शन है। जिस प्रकार रेडियो के माध्यम से श्रव्य सामग्री प्रसारित की जाती है, उसी प्रकार दूरदर्शन पर दृश्य एवं श्रव्य दोनों प्रकार की सामग्रियों का मिला-जुला रूप प्रसारित किया • जाता है । इस प्रकार इसमें बोलने वाले को बोलते या अभिनय करते हुए देखा भी जा सकता है। अतः दूरदर्शन, रेडियो और चलचित्र का एक साथ मिश्रित रूप है। इसका मनोरंजनात्मक, सूचनात्मक एवं शैक्षिक महत्त्व है। वर्तमान समय में इसका सर्वाधिक प्रचलन ही इसकी उपयोगिता का द्योतक है। महँगा होने तथा अपने आकार एवं विद्युतचालित होने के कारण अभी यह रेडियो का स्थान नहीं ले सका है, किन्तु कार्यक्रमों की व्यापकता एवं उपयोगिता की दृष्टि से यह उससे ऊपर है। शिक्षा के क्षेत्र में अब इसका अधिकाधिक प्रयोग किया जाने लगा है। उपग्रह (Satelite) के द्वारा अब दूर-दराज के क्षेत्रों में भी दूरदर्शन पर राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रसारित किये जा रहे हैं। अनेक विद्यालयों में सरकार द्वारा शैक्षिक कार्यक्रम छात्रों तक पहुँचाने के लिए दूरदर्शन उपकरणों (Television Sets) की व्यवस्था की गई है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् के राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा अपने-अपने स्तर पर शैक्षिक कार्यक्रम दूरदर्शन पर प्रसारित किये जाते हैं।

वीडियो टेप (Video Tape or Audio – Video Cassette) – जिस प्रकार टेप रिकॉर्डर के द्वारा बोली हुई आवाज को टेप के ऊपर रिकॉर्ड करके उसे पुनः सुना जा सकता है, उसी प्रकार वीडियो टेप के माध्यम से बोलने का अभिनय करने वाले की आवाज के साथ-साथ उसका चित्र भी रिकॉर्ड कर लिया जाता है । इस प्रकार तैयार किये हुए वीडियो कैसेट को वीडियो कैसेट प्लेयर (V.C.P.) के द्वारा दूरदर्शन (Television Set) के पर्दे पर पुनः देखा जा सकता है | अतः दूरदर्शन के प्रचार के साथ-साथ अब मनोरंजन एवं शिक्षा के क्षेत्र में वीडियो टेप (कैसेट) का प्रचलन भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । दूरदर्शन और वीडियो कैसेट में केवल यही अन्तर है कि दूरदर्शन में किसी रिले केन्द्र (Rely Centre) से कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं, जबकि वीडियो टेप (कैसेट) के प्रयोग से मन वांछित कार्यक्रम का कैसेट घर पर ही लगाकर देखा जा सकता है । अतः शैक्षिक कार्यक्रमों पर तैयार किये गये वीडियो कैसेट के माध्यम से अब छात्र घर पर ही शिक्षा ग्रहण कर सकता है । इसमें अपनी इच्छा एवं आवश्यकतानुसार किसी घटना, भाषण या पाठ को बार-बार रोक कर पुनः सुना एवं देखा जा सकता है । इसके माध्यम से विद्वान एवं योग्य शिक्षकों द्वारा प्रस्तुत किये पाठों का वीडियो कैसेट तैयार करके उससे देश-विदेश के सभी छात्रों को लाभ पहुँचाया जा सकता है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT), केन्द्रीय शैक्षिक, प्रौद्योगिकी संस्थान, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) तथा इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) द्वारा विभिन्न शिक्षण विषयों पर वीडियो कैसेट्स तैयार कराये गये हैं। ये कार्यक्रम दूरदर्शन पर भी प्रसारित किये जाते हैं, किन्तु वीडियो कैसेट्स प्राप्त करके इन्हें अपनी सुविधानुसार घर पर भी देखा जा सकता है । इस प्रकार वीडियो टेप शिक्षा प्रदान करने की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी शैक्षिक उपकरण सिद्ध हुआ ।

वीडियो टेप की उपयोगिता (Utility of Video Tape) –

  1. इसके माध्यम से छात्रों में विषय-वस्तु के प्रति सहजता से ध्यान केन्द्रित हो जाता है तथा वे ज्ञान की प्राप्ति के लिए उत्साहित रहते हैं ।
  2. इसके द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान अधिक स्थायी होता है ।
  3. इसके प्रयोग से छात्रों की कल्पना एवं निरीक्षण शक्ति का विकास होता है ।
  4. मन्द बुद्धि बालकों को इसके माध्यम से आसानी से सिखलाया जा सकता है ।
  5. दूरदर्शन एवं वीडियो कैसेट्स के द्वारा औद्योगिक प्रगति, ऐतिहासिक घटनाओं एवं वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में नवीनतम जानकारी प्राप्त होती है ।
  6. इनके माध्यम से देश-विदेश की शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थितियों का घर बैठे ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ।
  7. विद्वान एवं योग्य शिक्षकों द्वारा प्रस्तुत पाठों को वीडियो टेप के माध्यम से शताब्दियों तक संरक्षित किया जा सकता है तथा इस प्रकार भावी पीढ़ी को भी इन्हें सुनने एवं देखने का अवसर प्राप्त हो सकता है ।
  8. विद्यालयों में इसके प्रयोग से शिक्षण को तो प्रभावशाली एवं रोचक बनाया जाता है, साथ में इससे अनेक प्रकार की विद्यालयी समस्याओं का समाधान स्वयमेव हो जाता है ।

शैक्षिक यात्राएँ अथवा भ्रमण ( Educational Excursion) – किसी वस्तु, घटना, स्थिति, स्थल एवं परियोजना आदि के बारे में पढ़ने, सुनने की अपेक्षा उसका वास्तविक दर्शन एवं निरीक्षण करके अधिक स्पष्ट रूप से जानकारी प्राप्त होती है। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में भी भ्रमण अथवा पर्यटन का बहुत अधिक महत्त्व है । शिक्षण को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक होता है कि छात्रों को यथार्थ जगत् अर्थात् वास्तविक स्थितियों के निरीक्षण एवं विश्लेषण के अवसर प्रदान किये जायें । अतः छात्रों को शैक्षिक भ्रमण के द्वारा इस प्रकार के अवसर प्रदान किये जा सकते हैं । शैक्षिक भ्रमणों के अनेक लाभ हैं, जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं –

  1. भ्रमण से छात्रों को वास्तविक जगत से परिचय प्राप्त होता है ।
  2. इससे छात्रों के सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है ।
  3. इससे छात्रों में शिक्षा की विषय-वस्तुओं के प्रति रुचि विकसित होती है।
  4. इससे छात्रों की मानसिक शक्तियों का विकास होता है ।
  5. भ्रमण के माध्यम से छात्र मानवीय सम्बन्धों की अनुभूति प्राप्त करते हैं ।
  6. इससे छात्रों में प्रकृति एवं कला के प्रति प्रेम तथा सौन्दर्यानुभूति क्षमता का विकास होता है ।
  7. इसके माध्यम से छात्र सामाजिक समस्याओं तथा उनके समाधान में स्वयं रुचि लेने लगते हैं ।
  8. इससे कक्षागत शिक्षण की कमियों को दूर किया जा सकता है ।

शैक्षिक भ्रमणों का आयोजन (Organization of Educational Excursions ) – भ्रमण की सूचना मात्र से ही छात्रों में अद्भुत उत्साह का संचार हो जाता है । गति उत्साह में भ्रमण के शैक्षिक उद्देश्यों से विचलित भी हुआ जा सकता है । अतः शिक्षकों भ्रमण को आयोजित करते समय तथा उसके क्रियान्यवन के समय कुछ आवश्यक बातों पर विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए –

  1. सर्वप्रथम शिक्षक का भ्रमण के उद्देश्यों को सुनिश्चित कर लेना चाहिए ।
  2. भ्रमण के उद्देश्यों के अनुकूल ही भ्रमण स्थल का चयन करना चाहिए तथा उसके सम्बन्ध में विभिन्न विभागों से सूचना प्राप्त कर लेनी चाहिए ।
  3. भ्रमण की तिथि, समय तथा साधन निश्चित करके छात्रा तथा उनके अभिभावकों को इसकी सूचना दे दी जाये तथा इसमें बार-बार अनावश्यक रूप से परिवर्तन न किया जाये ।
  4. भ्रमण स्थल पर रुकने, भोजन या जलपान तथा अन्य आवश्यक सुविधाओं की पहले से निश्चित व्यवस्था कर लेनी चाहिए।
  5. छात्रों को पहले से ही निर्देश दे दिया जाये कि वे भ्रमण के दौरान विशेष बातों को अपनी डायरी अथवा नोट-बुक में लिखते जायें।
  6. भ्रमण के समय छात्रों की जिज्ञासाओं एवं समस्याओं का शिक्षक द्वारा सहानुभूति पूर्ण ढंग से समाधान करते रहना चाहिए।
  7. भ्रमण की प्रमुख बातों एवं अनुभवों का पूर्ण विवरण छात्रों से लेख के रूप में लिखवाया जाना चाहिए ।
  8. भ्रमण से सम्बन्धित चित्र, चार्ट, ग्राफ आदि का निर्माण भी छात्रों से करवाया जाना चाहिए ।
  9. छात्रों द्वारा भ्रमण से अर्जित ज्ञान एवं अनुभवों का विभिन्न विषयों के साथ समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।
  10. छात्रों द्वारा इस दौरान प्राप्त अनुभवों एवं ज्ञान का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए तथा शिक्षक द्वारा आवश्यक सुझाव भी दिये जाने चाहिए।

शैक्षिक प्रदर्शनी (Educational Exhibition)- शैक्षिक महत्त्व की वस्तुओं का एक स्थान पर एक साथ प्रदर्शन शैक्षिक प्रदर्शनी कहलाता है। विद्यालयों में दो स्तरों-कक्षा स्तर तथा विद्यालय स्तर पर इसका आयोजन किया जाता है। कक्षा स्तर पर उसी कक्षा के छात्रों द्वारा निर्मित वस्तुओं का प्रदर्शन किया जाता है, जबकि विद्यालय स्तर पर पूरे विद्यालय के छात्रों द्वारा निर्मित शैक्षिक वस्तुओं को प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार की प्रदर्शनियों से बालकों को स्वयं करके सीखने का अनुभव होता है, उनमें कलात्मक प्रवृत्ति एवं सृजनात्मक क्षमता का विकास होता है तथा स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा की भावना जागृत होती है।

शैक्षिक प्रदर्शनी की सफलता हेतु इसकी व्यवस्था करते समय शिक्षक को कुछ बातों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए –

  1. प्रदर्शनी किसी निश्चित उद्देश्य से सम्बन्धित होनी चाहिए ।
  2. प्रदर्शनी में छात्रों द्वारा निर्मित वस्तुओं को ही प्राथमिकता देनी चाहिए ।
  3. प्रदर्शित की जाने वाली वस्तुएँ निर्धारित विषय से ही सम्बन्धित होनी चाहिए।
  4. प्रदर्शनी की व्यवस्था का दायित्व अधिक से अधिक छात्रों को सौंपकर शिक्षक को मार्ग-दर्शन एवं निरीक्षण करते रहना चाहिए।
  5. प्रदर्शित वस्तुओं के बारे में जानकारी देने तथा समझाने का कार्य भी छात्रों को ही सौंपा जाना चाहिए, जिससे उनमें आत्म-विश्वास का विकास हो सके।
  6. प्रदर्शनी में प्रदर्शित वस्तुओं का शिक्षक मण्डल द्वारा मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए तथा अच्छी वस्तुओं के निर्माण के लिए छात्रों को पुरस्कृत भी किया जाना चाहिए ।
  7. प्रदर्शनी में अभिभावकों एवं अन्य विशिष्ट नागरिकों को भी आमन्त्रित किया जाना चाहिए, जिससे छात्रों को प्रोत्साहन मिल सके।
  8. विद्यालय स्तर की प्रदर्शनियों से सर्वोत्कृष्ट वस्तुओं को जिला अथवा राज्य स्तर की प्रदर्शनियों में भेजने का प्रयास करना चाहिए ।

संग्रहालय (Museum) – संग्रहालय भी ज्ञान एवं अनुभव प्राप्त करने का एक अच्छा साधन है । इसके शैक्षिक महत्त्व को देखते हुए ही अब विद्यालयों में अपना केन्द्रीय संग्रहालय तथा विभिन्न विषयों का अलग-अलग संग्रहालय स्थापित किया जाने लगा है। इन संग्रहालयों के लिए छात्र और शिक्षक दोनों महत्त्वपूर्ण शैक्षिक सामग्रियों का एकत्रित करने का प्रयास करते हैं। विद्यालय के केन्द्रीय संग्रहालय में राष्ट्रीय जीवन के विविध पक्षों से सम्बन्धित चित्र, मानचित्र, चार्ट, प्राचीन पत्र, महान् व्यक्तियों के पत्र एवं पाण्डुलिपियों के नमूने, विद्यालय सम्बन्धी आवश्यक जानकारियाँ, महापुरुषों के चित्र, मॉडल, पोस्टर, रिकॉर्ड, नमूने (Specimens), विद्यालय सम्बन्धी उपलब्धियाँ आदि सम्बन्धी वस्तुएँ रखी जानी चाहिए। विषय-सम्बन्धी संग्रहालयों में विषय से जुड़ी हुई वस्तुओं को एकत्रित करके रखा जाना चाहिए । इस प्रकार संग्रहालय की वस्तुओं को देखने से छात्रों को स्वयमेव कई प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त होती है । विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान के विषयों के शिक्षण में संग्रहालय बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं।

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