समावेशी शिक्षा की आवश्यकताओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें ।
उत्तर – एन. सी. एफ., 2005, पृष्ठ 96 के अनुसार– “समावेशन शब्द का अपने आप में कोई खास अर्थ नहीं होता है । समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढाँचा होता है, वही समावेशन को परिभाषित करता है । समावेशन की प्रक्रिया में बच्चे को न केवल लोकतन्त्र की भागीदारी के लिए सक्षम बनाया जा सकता है, बल्कि यह सीखने एवं विश्वास करने के लिए भी सक्षम बनाता है जो कि लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है । ”
वर्तमान में विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों के लिए शिक्षा की दो प्रकार की व्यवस्थायें हैं । एक, वह जिन्हें हम विशेष विद्यालय कहते हैं जो ज्यादातर शहरों में स्थित आवासीय हैं, जिनका उद्देश्य केवल एक प्रकार के विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है और दूसरा तरीका है कि उन्हें अन्य सभी बालकों के साथ आस-पड़ोस के सामान्य विद्यालयों में भेजा जाये और वही उनकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था की जाये । इस प्रकार के विद्यालयों में सभी बालक एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर एक-दूसरे से सीख सकते हैं, परन्तु बालक को बाद में उसी समाज में रहना है जिसका वह हिस्सा है इसलिए क्यों न बालक को प्रारम्भ से ही उसी माहौल में रखा जये जहाँ उसे विद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् रहना है । इसलिए अच्छा होगा कि यदि आरम्भ से बालक को मुख्य धारा वाले ऐसे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा जाये जहाँ अन्य सामान्य बालक भी जाते हैं । इसी अवधारणा के साथ समावेशित शिक्षा व्यवस्था का आरम्भ हुआ ।
समावेशी शिक्षा से तात्पर्य ऐसी शिक्षा प्रणाली से है जिसमें प्रत्येक बालक को चाहे वह विशिष्ट हो या सामान्य, बिना किसी भेदभाव के, एक साथ, एक ही विद्यालय में, सभी आवश्यक तकनीकों व सामग्रियों के साथ, उनकी सीखने-सिखाने की जरूरतों को पूरा किया जाये । समावेशी शिक्षा कक्षा में विविधताओं को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति है जिसके अन्तर्गत विविध क्षमताओं वाले बालक सामान्य शिक्षा प्रणाली में एक साथ अध्ययन करते हैं । इसके अनुसार प्रत्येक बालक अद्वितीय है और उसे अपने सहपाठियों की तरह कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता हो सकती है। बालक के पीछे रह जाने पर उसे दोषी नहीं ठहराया जाता है, बल्कि उसे कक्षा में भली-भाँति समाहित न कर पाने पर शिक्षक की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है ।
जिस प्रकार हमारा संविधान किसी भी आधार पर किये जाने वाले भेदभाव का निषेध करता है, उसी प्रकार समावेशित शिक्षा विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक आदि कारणों से उत्पन्न किसी बालक की, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं के बावजूद उस बालक को अन्य बालकों से भिन्न न देखकर उसे एक स्वतन्त्र अधिवासकर्त्ता के रूप में देखती है ।
समावेशी शिक्षा का महत्त्व व आवश्यकता (Need and Importance of nclusive education) :
- समावेशी शिक्षा प्रत्येक बालक के लिए उच्च आकांक्षाओं के साथ उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है ।
- समावेशी शिक्षा अन्य बालकों, अपने स्वयं की व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं में सामंजस्य बैठाने में मदद करती है ।
- समावेशी शिक्षा सम्मान और अपनेपन की भावना के साथ-साथ विद्यालय में व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के अवसर प्रदन करती है ।
- समावेशी शिक्षा बालक को अन्य बालकों के समान कक्षा की गतिविधियों में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है ।
- समावेशित शिक्षा बालकों की शिक्षा की गतिविधियों में उनके माता-पित को भी पम्मिलित करने की वकालत करती है।
इस प्रकार समावेशी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना है । यह शिक्षा समाज के सभी बालकों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने का समर्थन करती है ।
शिक्षक की भूमिका (Role of a Teacher ) – समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसे सभी बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना होता है और तदनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करनी होती है, परन्तु साथ ही साथ उन्हें उनकी विशिष्टता का अहसास न करते हुए अन्य सामान्य बच्चों की तरह ही समझना होता है | यदि शिक्षक बच्चे के नजरिये का सम्मान नहीं करता है, वह बच्चे के परिवेश के प्रति संवेदनशील नहीं है तो बच्चे का अपने समाज, संस्कृत, परिवेश के प्रति नजरिया बदल जाता है और वह बहुधा स्वयं को दीन-हीन समझने लगता है, जिसका परिणाम विद्यालय से पलायन के रूप में नजर आता है । अतः शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह विद्यालय के वातावरण को बोझिल न बनने दे क्योंकि यदि विद्यालय का वातावरण बच्चे के लिए असहज, असुरक्षित, अपमानित करने वाला या हीनता की भावना उत्पन्न करने वाला होगा तो बच्चे शिक्षा से विरत हो सकते हैं । यह एक कड़वी सच्चाई है जो कि वंचित वर्ग के बच्चों व विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के साथ अक्सर देखने को मिलती है । यद्यपि यह भी सत्य है कि विद्यालय भवन, पाठ्यक्रम, पाठ्य-सहगामी क्रियायें, सहायक शिक्षण सामग्री आदि सभी वस्तुयें व क्रियाकलापों का भी शैक्षिक प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, परन्तु शिक्षक ही वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सबसे अधिक प्रभावित करता है । यही कारण है कि समावेशी शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षकों की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि समावेशी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक केवल अपने आपको शिक्षण कार्य तक ही सीमित नहीं रखता है, अपितु विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों का कक्षा में उचित ढंग से समायोजन करना, उनके लिए विशिष्ट प्रकार की शैक्षिक सामग्री का निर्माण करना, विद्यालय के अन्य कर्मचारियों, अध्यापकों तथा विशिष्ट अध्यापकों से बालक की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग व सहकारपूर्ण व्यवहार करना बालक के मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं का वितरण करना आदि कार्य भी करने होते हैं । इसलिए शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्णतः निपुण हो, उसे विशिष्ट सामग्री की जानकारी हो, वह बालकों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक अभिवृत्तियाँ रखता हो, उनके मनोविज्ञान को भी समझता हो । समावेशी शिक्षा में शिक्षक को निरन्तर बच्चों से संवाद करते हुए उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश करनी चाहिए कि उनकी विकलांगता या विशिष्टता उनके मार्ग में बाधक नहीं बन सकती यदि वे अपना इरादा मजबूत रखें । शिक्षक को इन बालकों के अभिभावकों को भी इन बालकों हेतु चलाई जा रही सरकारी योजनाओं की जानकारी देनी चाहिए ताकि वे इसका लाभ उठा सकें । अतः समावेशी शिक्षा हेतु एक ठोस शुरुआत की आवश्यकता है तथा इसे एक सम्मत परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तथा विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बच्चों के साथ-साथ उनके अभिभावकों, उनके आस-पास और उन्हें पढ़ाने वाले लोगों के सरोकारों का भी पूरी शिद्दत के साथ ध्यान रखा जाये । इसके लिए शिक्षक को प्राथमिक स्तर के विशिष्ट प्रशिक्षण की भी आवश्यकता होती है ।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि समावेशन की नीति को हर स्कूल व सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किये जाने की जरूरत है। बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र में चाहे स्कूल में हो या बाहर, सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किये जाने की जरूरत है । यह सुनिश्चित किया जाये कि सभी बच्चों, खासकर शारीरिक या मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों को समाज के हाशिये पर जीने वाले बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को शिक्षा के इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में सबसे ज्यादा लाभ मिल सके । इस सन्दर्भ में शिक्षकों को अपनी महती भूमिका निभाने की आवश्यकता है।
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