हिन्दी कहानी के तत्त्वों का विस्तारपूर्वक उल्लेख कीजिए।
1. कथानक,2. पात्र एवं चरित्र चित्रण,3. कथोपकथन (संवाद)4. वातावरण (देश-काल),5. भाषा-शैली,6. उद्देश्य।
कथानक
कहानी में कथानक सबसे प्रधान तत्त्व है। कहानी में कथानक का निबन्धन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है। घटना – प्रधान कहानियों में तो कथानक का ही विशेष महत्त्व है। कहानी का कथानक प्रभावोत्पादक, विचारोत्तेजक एवं जीवन के यथार्थ से सम्बद्ध होना चाहिए।
कथानक में आदि, मध्य और अन्त – तीन महत्त्वपूर्ण स्थल हैं। आदि से अन्त तक कहानी की एकोन्मुखता बनी रहती है। अन्त के अनुरूप ही कहानी के कथानक की योजना बनानी पड़ती है। आदि में ऐसी भूमिका तैयार करनी पड़ती है, जिस पर कहानी का अन्त प्रतिष्ठित होता है। मध्य- बिन्दु पर कहानी अपनी चरमसीमा पर पहुँचकर पाठक की उत्सुकता को विशेष तीव्र एवं संवेदनशील बनाती है। अन्त में समापन स्थल पर पहुँचकर कहानी अपनी सम्पूर्ण संवेदनशीलता, प्रभावोत्पादकता एवं पूर्णता का परिचय देती है।
पात्र एवं चरित्र चित्रण
कहानी का केन्द्रीय भाव पात्रों द्वारा व्यक्त होता है। कहानी के मूल भाव के अनुसार ही पात्रों के व्यक्तित्व, चरित्र एवं प्रवृत्तियों का निर्धारण होता है। मानव-चरित्र की प्रतिष्ठा ही कहानी का प्रधान विषय है। कहीं मनुष्य मूलभाव से सीधे सम्बद्ध होता है और कहीं एकारान्तर से। कहानी में पात्र और कथावस्तु का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध कहानी के केन्द्रीय भाव को व्यक्त करते हैं। कुछ पात्र सामान्य होते हैं और कुछ प्रतीकात्मक । सामान्य पात्रो के भी दो वर्ग होते हैं- कुछ वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और कुछ व्यक्ति का। लघु प्रसारवाली होने के कारण कहानी में नायक के चरित्र को ही अधिक उभारकर प्रस्तुत किया जाता है। दूसरे पात्रों के चरित्र को प्रमुखता देने पर कहानी का मूल भाव आच्छन्न हो सकता है। किसी एक विशेष परिस्थिति में रखकर नायक की किसी एक प्रवृत्ति का उद्घाटन करना ही कहानीकार का अभीष्ट लक्ष्य होता है। चरित्रांकन की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि चरित्र गतिशील हो और यथार्थ जीवन से सम्बद्ध हो ।
कथोपकथन
कथोपकथन के मुख्यतः दो कार्य होते हैं— पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घटित करना और कथा-प्रवाह को आगे बढ़ाना। कहानी में कथोपकथन को पूर्ण नियन्त्रित, चमत्कारयुक्त एवं लघु प्रसारी होना चाहिए। कहानी के आरम्भ में जिज्ञासा और कुतूहल को जगाने के लिए बहुधा नाटकीय संवादों की योजना करनी पड़ती है। परिस्थति एवं पात्रों को जोड़ने के लिए और आन्तरिक भावों एवं मनोवृत्तियों के उद्घाटन के लिए संवाद- तत्त्व (कथोपकथन) की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
कथोपकथन के प्रायः दो रूप मिलते हैं – विशुद्ध नाटकीय और विश्लेषणात्मक | विशुद्ध नाटकीय ढंग से लेखक अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ता। दो पात्र परस्पर वार्तालाप करते हैं। विश्लेषणात्मक ढंग से लेखक अपनी ओर से पात्रों के सम्बन्ध में उनकी मुद्राओं और भाव-भंगिमाओं का उद्घाटन करने के लिए कथोपकथन की योजना करता है।
वातावरण– वातावरण के अन्तर्गत देश-काल और परिस्थिति आती है । लेखक घटना और पात्रों से सम्बन्धित परिस्थितियों का चित्रण सजीव रूप में करता है। सम्पूर्ण परिस्थितियों की योजना साभिप्राय और क्रमिक ढंग से की जाती है। प्रकृति, ऋतु, दृश्य आदि का अत्यन्त संक्षिप्त और सांकेतिक रूप से वर्णन करके किसी घटना अथवा परिणाम को रोचक, सजीव एवं यथार्थ बनाने का प्रयास किया जाता है ।
भाषा-शैली—भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम भाषा है और अभिव्यक्ति का ढंग शैली है । सरल एवं बोधगम्य भाषा के द्वारा ही कहानी को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। काल और पात्र की यथार्थ अभिव्यक्ति के लिए भाषा में स्वाभाविकता अपरिहार्य है। है। भाषा जितनी ही सरल और भावाभिव्यंजक होगी, उतनी ही प्रभावशाली होगी ।
शैली–शैली कहानी का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है । साधारण से साधारण कथानक में कुशल लेखक अपनी सुन्दर शैली से प्राण-प्रतिष्ठा कर देता है । शब्दों की सम्मोहन शक्ति के द्वारा वह पाठकों को मन्त्रमुग्ध कर देता है ।
उद्देश्य – कहानी में उद्देश्य अन्तर्निहित रहता है। प्राचीन कहानियों का उद्देश्य आध्यात्मिक विवेचन अथवा नैतिक उपदेश प्रदान करना था । कालान्तर में मनोरंजन करना अथवा किसी महान् चरित्र के शौर्य आदि गुणों का प्रदर्शन करना कहानी का उद्देश्य बन गया | मनोरंजन अथवा उपदेश के साथ ही शाश्वत सत्य का उद्घाटन करना भी कथा का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है ।
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