हिन्दी की प्रमुख शिक्षण विधियाँ एवं उपागमों का वर्णन कीजिए।
1. पर्यवेक्षित अध्ययन2. वाद-विवाद3. समूह कार्य4. विवेचन5. नाटकीकरण6. संगोष्ठी7. विचारगोष्ठी8. कार्यगोष्ठी9. समस्या समाधान विधि10. प्रायोजना विधि11. व्याख्यान या भाषण विधि12. पाठ्य पुस्तक विधि13. प्रश्नोत्तर विधि14. कहानी कथन विधि15. माण्टेसरी शिक्षण विधि16. डाल्टन शिक्षण विधि17. बुनियादी शिक्षण विधि18. इकाई विधि19. आगमन विधि20. निगमन विधि
यहाँ कुछ शिक्षण विधियों का विवेचन किया जा रहा है |
पर्यवेक्षित अध्ययन ( सुपरवाइज्ड स्टडी )
हिन्दी – शिक्षण में पर्यवेक्षित अध्ययन विशेष उपयोगी है । इसके अन्तर्गत छात्र हिन्दी शिक्षक के निर्देशन में किसी समस्या या प्रकरण पर कार्य करते हैं। 19वीं शदी के अन्तिम चरण में अमेरिका में इसे अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। बाद में पर्यवेक्षित अध्ययन को अन्य देशों ने भी अपने यहाँ शिक्षण में क्रियान्वित किया। वर्तमान समय में हिन्दी – शिक्षण में भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। पर्यवेक्षित अध्ययन शिक्षक द्वारा छात्रों की एक कक्षा अथवा समूह का निरीक्षण है, जिसमें छात्र अपनी मेज या डेस्क पर पूर्व निर्धारित कर्य करते हैं, अपनी समस्याओं का निराकरण अपने हिन्दी शिक्षक से कराते हैं और उचित निर्देशन भी प्राप्त करते हैं। जैसाकि शिक्षा – शब्दकोश में इसके सम्बन्ध में लिखा है- “पर्यवेक्षित अध्ययन एक प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक से बिना सहायता के छात्रों द्वारा स्वतंत्र अध्ययन के अपेक्षित अभ्यास में व्यतिरेक उत्पन्न होने पर शिक्षक प्रश्नों के उत्तर देने और सुझाव प्रदान करने के लिए उपलब्ध रहता है । ”
अध्ययन की प्रक्रिया – इसमें छात्र किसी समस्या या प्रकरण का स्वतंत्र अध्ययन करते हैं और हिन्दी – शिक्षक उनका निरीक्षण करता है। जब छात्र को कोई कठिनाई होती है या वह अपने अध्ययन में कोई त्रुटि करता है या किसी अनुचित या दोषपूर्ण विधि का अनुसरण करता है, तब शिक्षक उस कठिनाई या त्रुटि का निराकरण करता है या उचित विधि के प्रयोग हेतु सुझाव देता है । इससे छात्र उक्त समस्या या प्रकरण से सम्बन्धित समुचित जानकारी प्राप्त कर लेते हैं ।
गुण- इसके गुण निम्नलिखित हैं –
- इसमें छात्र शिक्षक के पर्यवेक्षण में हिन्दी की विषयवस्तु को स्वयं के प्रयत्न द्वारा समझने का प्रयास करते हैं। इससे उनके ज्ञान में वृद्धि होती है ।
- इसमें शिक्षक छात्रों के कृत कार्य को निकटता से देखने का अवसर पाता है । इसके अलावा एक की अपेक्षा अधिक छात्रों को एक ही समय में एक साथ पथ प्रदर्शित करने में सफल हो सकता है और यथायोग्य सहायता भी प्रदान कर सकता है ।
- इसके उपयोग से शिक्षण में अनुशासन की समस्या नहीं रहती है क्योंकि इससे छात्र अपने कार्य में मनोयोग से संलग्न रहते हैं ।
- इसमें शिक्षक द्वारा व्यक्तिगत रूप से ध्यान देने से छात्रों को विशेष लाभ होता है क्योंकि शिक्षक इसमें छात्रों की वैयक्तिक विभिन्नताओं के प्रति जागरूक रहता है ।
- इसमें पिछड़े छात्रों की शिक्षा की उचित व्यवस्था की जा सकती है ।
- इसमें शिक्षक छात्रों की अध्ययन की आदतों, अध्ययन-कौशलों में दक्षता और प्रगति की मात्रा का भी मूल्यांकन कर सकता है और छात्रों को तुरन्त ही यथास्थान परामर्श दे सकता है ।
- इसमें छात्र- शिक्षक सम्बन्धों में मधुरता आती है ।
- इसके उपयोग में प्रशिक्षित एवं कुशल शिक्षकों की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में पर्यवेक्षित अध्ययन की सफलता संदिग्ध रहती है ।
- इसमें सभी छात्र समान रूप से लाभान्वित नहीं हो पाते हैं ।
- यह मितव्ययी नहीं है क्योंकि इसमें समय अधिक व्यय होता है ।
- इसके अन्तर्गत शिक्षण में अधिकांश छात्र शिक्षक पर आश्रित हो जाते हैं। इससे उनमें स्वतंत्र, चिन्तन एवं स्वाध्याय की आदत नहीं रहती हैं ।
नाटकीकरण–नाटकीकरण हिन्दी – शिक्षण की अत्यन्त उपयोगी प्रविधि है | हिन्दी – शिक्षण में अतीत काल से इसका उपयोग होता आ रहा है । नाटकीकरण की मूल प्रवृत्ति है अनुकरण। अनुकरण बालक के आरम्भिक ज्ञान का स्रोत है। बालक आरम्भ से ही अनुकरण द्वारा सीखना प्रारम्भ करता है । अनुकरण की इस प्रवृत्ति के कारण ही वह दूसरों का अनुकरण करता है और तदनुरूप कार्य एवं व्यवहार करने का प्रयास करता है । जब इस अनुकरण को कथोपकथन या वार्तालाप, संगीत, नृत्य, वेशभूषा एवं भाव-भंगिमा आदि से सम्बन्धित कर दिया जाता है, तब उसे नाटकीकरण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में जब किसी कहानी या घटना को उसके जीवन्त के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तब वह नाटकीकरण कहलाता है । शिक्षा – शब्दकोश में नाटकीकरण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है–“नाटकीकरण एक कहानी या अभिनय या नाटक या अन्य सामग्री के रूप में जो पहले से नाटकीय रूप में नहीं है, को नया स्वरूप देना है । ”
नाटकीकरण की प्रक्रिया – इसमें सर्वप्रथम किसी कक्षा के हिन्दी के शिक्षक एवं छात्र मिलकर किसी घटना या प्रसंग का चुनाव करते हैं। तत्पश्चात् शिक्षक और छात्र मिलकर नाटक के स्वरूप के अनुरूप तैयारी करते हैं। शिक्षक छात्रों को उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुरूप पात्रों का वितरण करता है । प्रत्येक पात्र को उसका अभिनेय अंश निध : रित कर दिया जाता है और तदनुरूप उसे संवाद समझा दिये जाते हैं कि उसे क्या-क्या बोलना है और क्या करना है ? (लिखित रूप में भी दिया जा सकता है।) छात्र अपने अभिनेय अंश एवं संवादों को कंठस्थ कर लेते हैं। निर्धारित समय पर सहभागी छात्र अपने पात्रानुकूल अभिनय अंश को अभिनीत करते हैं और पदोचित संवाद बोलते हैं। इस प्रकार नाटकीकरण सम्पन्न हो जाता है । अन्त में इसकी समीक्षा भी की जाती है। शिक्षक इसमें छात्रों का पथ-प्रदर्शन करता है और छात्रों पर नियंत्रण भी रखता है ।
शिक्षण पद
1. घटना या प्रसंग का चयन ।2 नटकीकरण के स्वरूप का निर्धारण ।3. पात्रों का वितरण ।4. पात्रानुकूल अभिनेय अंश एवं संवादों का वितरण ।5. क्रियान्वयन ।6. समीक्षा ।7. शिक्षक का दायित्व ।
- यह निम्न कक्षाओं के छात्रों के लिए विशेष उपयोगी है ।
- इसमें छात्रों को अनुकरण एवं क्रिया द्वारा सीखने का अवसर प्राप्त होता है। इसमें उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है ।
- यह विषय-ज्ञान की वृद्धि में सहायक है क्योंकि जब छात्र श्रुत कहानी का स्वयं अभिनय करते हैं अथवा दूसरे छात्रों को अभिनय करते हुए देखते हैं तो नाटक के अन्तर्गत वर्णित कठिन पदों एवं सूक्तियों को सुनकर उनके अर्थ स्वतः समझ लेते हैं । इससे छात्रों के शब्द एवं सूक्ति भण्डार में वृद्धि होती है ।
- इससे छात्रों में भावी एवं विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता विकसित होती है।
- इससे छात्रों में सम्भाषण की योग्यता का विकास होता है ।
- इससे हिन्दी की जटिल घटनाओं एवं प्रसंगों को रोचक एवं प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है । इसमें छात्र रुचि लेते हैं। इस प्रकार उनका अर्जित ज्ञान स्थायी होता है |
- इसमें छात्र अतीत की घटनाओं, आदर्श चरित्रों एवं नैतिक मूल्यों को घटित होता हुआ देखते हैं। इससे उनमें नैतिक मूल्यों का संवर्द्धन होता है और वे आदर्श चरित्रों का अनुकरण करके आदर्श नागरिक बनने के लिए प्रेरित होते हैं ।
- यह समय एवं धन की दृष्टि से मितव्ययी नहीं है क्योंकि इसमें समय और धन अधिक व्यय होता है ।
- हिन्दी के सभी प्रकरणों का नाटकीकरण सम्भव न होने के कारण यदा-कदा ही इसका उपयोग किया जा सकता है ।
- इसके उपयोग में हिन्दी – शिक्षक को अधिक परिश्रम करना पड़ता है। अतः अधिकांश शिक्षक इसके उपयोग में उदासीन रहते हैं।
- समय और संसाधनों का अभाव भी इसके कम उपयोग का मुख्य कारण है ।
- इसके उपयोग में अनुशासन की समस्या सदैव बनी रहती है –
- हिन्दी में नाटकीकरण कपोल कल्पना या दिखावा मात्र नहीं होना चाहिए वरन् यथार्थ प्रसंग या घटना पर आधारित और उद्देश्यपरक होना चाहिए ।
- इसमें कला – पक्ष की अपेक्षा भाव – पक्ष पर अधिक बल देना चाहिए ।
- हिन्दी के नाटकीकरण में प्रयुक्त भाषा-शैली पात्रानुकूल होनी चाहिए। भाषा का स्तर छात्रों के बौद्धिक स्तर पर अनुरूप होना चाहिए ताकि छात्र संवाद समझ सकें और उनका अनुकरण कर सकें ।
- नाटकीकरण के उपरान्त छात्रों से प्रश्न अवश्य पूछने चाहिए। इससे छात्र नाटक को मात्र मनोरंजन की दृष्टि से नहीं देखेंगे वरन् उसके ज्ञानार्जन करने का प्रयास करेंगे ।
- नाटक में भाग लेने वाले छात्रों को पुरस्कार भी दिये जाने चाहिए । इससे अन्य छात्रों को नाटकों में सहभागी होने की प्रेरणा मिलेगी ।
व्याख्यान या भाषण विधि
यह विधि भी प्राचीन विधि है । इस विधि में केन्द्र बिन्दु अधापक होता है। अध्यापक विषय-सामग्री को विद्यार्थियों के समक्ष भाषण के माध्यम से रखता है और विद्यार्थी उसके सामने बैठकर सुनते रहते हैं। इस विधि में अध्यापक विषय-सामग्री को पहले घर पर तैयार करता है और फिर ज्यों-का-त्यों कक्षा में जाकर उड़ेल देता है, अतः अध्यापक को मुख्यतः दो कार्य करने होते हैं –
(1) विषय-वस्तु का चयन कर तैयारी करना ।(2) कक्षा में विषय-वस्तु का भाषण के रूप में प्रस्तुतीकरण ।
इस विधि में अध्यापक जहाँ एक अच्छा वक्त होना चाहिए, वहीं विद्यार्थी में भी अच्छे श्रोता का गुण होना चाहिए तथा विद्यार्थी को भाषण या व्याख्यान नोट करते रहना चाहिए एवं आवश्यक हो तो प्रश्न भी पूछने चाहिए ।
व्याख्यान विधि के गुण – इस विधि के निम्नांकित लाभ हैं—
- इस विधि द्वारा ज्ञान तीव्र गति से दिया जा सकता है ।
- यह विधि अध्यापक के लिए सुविधाजनक है क्योंकि कक्षा में आते ही अध्यापक भाषण देने लगता है और भाषण पूरा कर कक्षा से चला जाता है। वह विद्यार्थियों की विभिन्न समस्याओं का हल करने से बच जाता है |
- इस विधि के द्वारा हिन्दी भाषा का पाठ्यक्रम आसानी से पूर्ण किया जा सकता है।
- भारतीय परिवेश में कक्षाएँ बड़ी होती हैं तथा शिक्षण सामग्री का अभाव-सा रहता है, यहाँ तक कि कई स्थानों पर श्यामपट्ट भी उपलब्ध नहीं होते, अतः यह विधि अनुकूल रहती है ।
- विद्यार्थियों को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता । वह आराम से भाषण सुनता रहता है ।
- भाषण विधि से विषय – सामग्री के साथ-साथ विद्यार्थी में भाषण (वाचन) सम्बन्धो योग्यता का भी विकास होता है ।
- यह विधि व्यवकारी नहीं है ।
- विद्यार्थी अपने कानों का सही उपयोग करना सीख जाते हैं अर्थात् श्रवण-कौशल का विकास होता है
- इस विधि का प्रयोग केवल उच्च कक्षाओं में ही किया जा सकता है निम्न स्तर पर नहीं ।
- इस विधि में विद्यार्थी के स्तर का ध्यान नहीं रखा जाता है । वह सुनना चाहता हो या सुनना न चाहता हो, उसे भाषण सुनना ही पड़ता है ।
- यह विधि ‘बाल केन्द्रित’ नहीं है, अतः छात्र की रुचि, क्षमता आदि का ध्यान नहीं रखा जाता है ।
- यह विधि बालक को श्रोता बनाती है, अतः यह निष्क्रिय होता जाता है ।
- इसके प्रयोग से कक्षा का वातावरण सजीव नहीं बन पाता है ।
- यह विधि ‘रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है।
- सभी अध्यापक इस विधि का अनुसरण नहीं कर सकते, क्योंकि सभी अध्यापकों को न तो विषय-वस्तु का अच्छा ज्ञान ही होता है और न वे भाषण देने में निपुण ही होते हैं।
इस विधि के गुण-दोषों को देखने के बाद यह कहा जा सकता है कि यदि हिन्दी का अध्यापक अपने विषय की जानकारी रखता है तथा साथ ही साथ आवश्यक शिक्षण सामग्री का भी प्रयोग करना जानता है तो व्याख्यान विधि द्वारा भी प्रभावपूर्ण तरीके से अध्यापन कार्य कर सकता है ।
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