सिन्धु सभ्यता : सैंधव सभ्यता से महाजनपद काल तक

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सिन्धु सभ्यता : सैंधव सभ्यता से महाजनपद काल तक

सिन्धु सभ्यता
हड़प्पा संस्कृति के विभिन्न स्थलों की सामान्य एक- एरूपताएँ
⇒ एक ही प्रकार की सामान्य लिपि का प्रयोग, नाप-तौल के एक ही प्रकार के बात एवं मापदण्ड.
⇒ ताम्र-कांस्य निर्मित औजार एवं वस्तुएँ.
⇒ ईंटों का सामान्य अनुपात.
⇒ गाढ़ी लाल चिकनी मिट्टी के मृद्भाण्ड जिन पर काले रंग के ज्यॉमितीय चित्र, पेड़-पौधे एवं पशु-पक्षी अंकित हैं.
⇒ मोहरें, शंख से बनी चूड़ियाँ, लाल पत्थर के मनके, सेलखड़ी से बने गोल, चपटे मनके आदि.
सिन्धु सभ्यता के निर्माता
विभिन्न सैंधव स्थलों से प्राप्त नर कंकालों के परीक्षण से ज्ञात होता है कि यहाँ मुख्यतः चार प्रजातियों के लोगों-
(1) प्रोटो आस्ट्रेलॉयड (Proto-Australoid), (2) भूमध्य- सागरीय (Mediterranean) (3) अल्पाइन (Alpine) व (4) मंगोलाभ (Mangoloid) का अस्तित्व था. अतः अधिक उपयुक्त सम्भावना यही है कि इस सभ्यता के निर्माण में इन विभिन्न प्रजातियों का योगदान था. यद्यपि बलूचिस्तान में द्राविड़ परिवार से सम्बन्धित भाषाओं ‘ब्राहुई’ के प्रचलन के आधार पर द्राविड़ों को भी इसके निर्माता के रूप में अभिहित किया गया है, लेकिन दक्षिण भारत से प्राप्त अंत्येष्टि क्रिया के प्रमाणों (मंगोलियन) एवं सिन्धु सभ्यता से इसकी विभिन्नता उस पर प्रश्नचिह्न लगाती है
 सिन्धु सभ्यता का विस्तार
उत्खनित विभिन्न सैंधव स्थलों के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट है कि यह सभ्यता उत्तर में कश्मीर के मांदा से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र के दयमाबाद तक, पश्चिम में मकरान समुद्रतट पर स्थित सुत्केगेंडोर से लेकर पूर्व में आलमगीरपुर [ मेरठ, ( उत्तर प्रदेश) ] तक विस्तृत थी. इसमें पाकिस्तान के पंजाब, ब्लूचिस्तान, सिन्ध, बहावलपुर के भू-क्षेत्र और भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं गुजरात के कई क्षेत्र सम्मिलित थे. पश्चिम से पूर्व में यह 1600 किमी और उत्तर से दक्षिण में 1100 किमी तक विस्तृत थी, जो समकालीन अन्य किसी भी सभ्यता की अपेक्षा अधिक भू-क्षेत्र में फैली हुई थी. इसकी आकृति त्रिभुजाकार और क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किमी था.
सिन्धु सभ्यता के ज्ञान में मोहरों का महत्व
विभिन्न सैंधवस्थलों से पर्याप्त मात्रा में सेलखड़ी पत्थर पर तथा पक्की मिट्टी से निर्मित चौकोर मोहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर मुख्यतः पशु-पक्षी, वृक्ष, योगी, मातृदेवी आदि के चित्र उत्कीर्ण हैं, जो सिन्धुवासियों के धार्मिक विश्वास और परम्परा के साथ-साथ अन्य विभिन्न क्षेत्रों में उनकी जानकारी के प्रमाण हैं, यद्यपि इन पर लेख भी उत्कीर्ण हैं, लेकिन लिपि की अपठनीयता के कारण तथ्यात्मक जानकारी तो ज्ञात नहीं है, लेकिन इससे उनकी लेखन-कला का संकेत प्राप्त होता है. मोहरों से समकालीन सभ्यताओं के साथ व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों की पुष्टि होती है.
हड़प्पाकालीन मुहरें
⇒ विशिष्ट आकार की हल्की और चमकदार सतह वाली उत्कृष्ट मुहरें थीं.
⇒ सेलखड़ी से निर्मित मुहरों का आकार 1 से 5 सेन्टीमीटर तक था.
⇒ मुहरें दो प्रकार की थीं – पहली वर्गाकार मुहरें जिन पर किसी पशु की आकृति उत्कीर्ण और मुद्रालेख अभिलिखित हैं; दूसरे प्रकार का आयताकार मुहरों पर केवल मुद्रालेख अभिलिखत हैं.
⇒ मुहरों पर नक्काशी करने के बाद कोई क्षारीय पदार्थ लगाकर पकाया जाता था.
⇒ हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से दोनों प्रकार की मोहरें एवं चन्हुदड़ो से केवल वर्गाकार मोहरें मिली हैं.
⇒ एक मुहर पर कूबड़ वाले बैल और एक अन्य मोहर पर दहाड़ता हुआ चीता, हाथी, एक सींग वाला बैल और गैंडे की आकृति दर्शाई गई हैं.
⇒ मोहनजोदड़ो से 1200 मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिनमें ‘पशुपति मुहर’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है.
⇒ ‘पशुपति मुहर’ में पशुपति को हाथी, चीता, गैंडा और भैंसे से घिरा हुआ दर्शाया गया है.
⇒ एक अन्य मुहर पर पीपल की शाखाओं के बीच एक नग्न देवी खड़ी है, जिसके सम्मुख आराधक घुटनों के बल झुका हुआ है.
⇒ मुहरों पर कूबड़विहीन बैल की आकृति सर्वाधिक उत्कीर्ण की गई हैं.
मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार
मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार विभिन्न सैंधव स्मारकों में एक विशिष्ट रचना है, जो इसके पश्चिमी टीलों में स्थित है. यह स्नानागार 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा तथा 8 फुट गहरा है, जिसमें पक्की ईंटों की तह लगाकर बिटुमिन का लेप कर दिया गया है, ताकि पानी का रिसाव न हो. स्नानकुण्ड में उतरने के लिए उत्तर एवं दक्षिण की ओर ईंट निर्मित सीढ़ियाँ हैं. इसमें चतुर्दिक गलियारे एवं कमरों की व्यवस्था भी दृष्टिगत होती है. कुएँ का अवशेष भी प्राप्त हैं. जिससे इस कुण्ड को भरा जाता था. जल के निकास की व्यवस्था भी दृष्टिगत होती हैं. यह ‘स्नानागार’ सैंधववासियों के ‘समष्टिवादी’ दृष्टिकोण के साथ-साथ ‘जलीय अनुष्ठापन’ का भी परिचायक है. इससे विदित होता है कि हड़प्पावासियों में स्नान का धार्मिक या कर्मकाण्डीय महत्त्व था, अतः सम्भवतः इस विशाल स्नानागार का उपयोग धार्मिक उत्सवों एवं समारोहों के अवसर पर ही किया जाता होगा.
समकालीन सभ्यताओं के साथ सम्बन्ध
अनेक पश्चिमी एशियाई देशों से प्राप्त हड़प्पा सभ्यता की छोटी-बड़ी मुहरों से ज्ञात होता है कि हड़प्पावासी पश्चिम एशियाई देशों से व्यापार करते थे. मेसोपोटामिया के साहित्यिक साक्ष्यों में इसका ‘मेलूहा’ या सिन्धु के साथ व्यापार का उल्लेख हुआ है. इसी प्रकार सैंधव मोहरों तथा मेसोपोटामिया के विविध स्थलों से प्राप्त मोहरों पर अंकित चित्रों में पर्याप्त समानता दृष्टिगत होती है. मोहनजोदड़ो से प्राप्त पाँच मेसोपोटामिया की बेलनाकार मोहरें तथा लोथल से प्राप्त फारस की संगमरमर की मोहरें और यहाँ की मुहरों का उर, सुमेर, तेल अश्भार, उमा, फेलका, बहरीन आदि से मिलना भी इन सम्बन्धों की पुष्टि करता है. उर की शाही कब्रों से हड़प्पा में निर्मित ताँबे के शृंगारदान मिले हैं. मिस्र तथा सिन्धु के अवशेषों में भी साम्यता है. गोदीबाड़ा के अवशेष तथा जहाज के नमूने जलीय व्यापार और समकालीन सभ्यताओं के साथ सम्बन्धों की पुष्टि करते हैं.
वे साक्ष्य जो सिन्धु सभ्यता के जलीय व्यापार को दर्शाते हैं
जलीय व्यापार की दृष्टि से सिन्धु सभ्यता से प्राप्त अवशेषों में उल्लेखनीय है कि लोथल स्थित गोदीबाड़ा, मकरान समुद्रतट पर सुतकागेन्डोर एक अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र था, जिसका उपयोग जलीय व्यापार के लिए किया जाता था.लोथल से प्राप्त 5 मिट्टी से निर्मित नावों के साक्ष्य तथा मोहर पर अंकित जहाज का चित्र भी उनकी जलीय यात्राओं के परिचायक हैं. समकालीन सभ्यताओं के साथ उनका सम्बन्ध भी इस सम्भावना की पुष्टि करता है कि जलीय मार्ग की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका रही होगी. हड़प्पा सभ्यता के लगभग सभी नगर नदियों के किनारे बसे हुए हैं. इससे विदित होता है कि वे जल यातायात के महत्त्व को समझते थे और इसका उन्होंने भरपूर उपयोग किया.
सिन्धु सभ्यता के विभिन्न औद्योगिक शिल्प एवं उद्योग
सिन्धु सभ्यता के निवासी विविध औद्योगिक शिल्पों एवं व्यवसायों से परिचित थे. उत्खनन से प्राप्त विभिन्न अवशेष इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं. मिट्टी के बर्तन, मोहरें, मनके, ताम्र-कांस्य निर्मित औजार एवं वस्तुएँ, दन्त, आभूषण तथा मूर्तियाँ इत्यादि. यहाँ के विभिन्न शिल्पों एवं उद्योगों के अस्तित्व को पुष्ट करती हैं. चन्हुदड़ो, लोथल, मोहनजोदड़ो इस दृष्टि से उल्लेखनीय केन्द्र थे. इनकी मुख्य बात यह है कि एक ही प्रकार के औद्योगिक शिल्प सामान्यतः एक ही क्षेत्र विशेष में केन्द्रित थे.
हड़प्पाकालीन प्रस्तर, कांस्य और मृण-मूर्तियाँ
प्रस्तर मूर्तियाँ
⇒ अब तक एक दर्जन से अधिक प्रस्तर मूर्तियाँ पाई जा चुकी हैं.
⇒ एक 14 सेमी ऊँचा चूना पत्थर से निर्मित मूर्ति का क्षत-विक्षत सिर मिला है.
⇒ हड़प्पा से चूना पत्थर से निर्मित 18 सेमी ऊँचा घुँघराले बालों वाला सिर प्राप्त हुआ है.
⇒ मोहनजोदड़ो से सिरविहीन 28 सेमी ऊँची मूर्ति प्राप्त हुई है, जो बाएँ कन्धे से बारीक शाल ओढ़े है.
⇒ मोहनजोदड़ो से सेलखड़ी से निर्मित 42 सेमी ऊँची पद्मासन अवस्थान में बैठे युवक की मूर्ति मिली.
कांस्य-मूर्तियाँ
⇒ कांस्य-मूर्तियाँ केवल मोहनजोदड़ो से ही प्राप्त हुई हैं.
⇒ कांस्य-मूर्तियों में एक नर्तकी की मूर्ति उल्लेखनीय है.
⇒ चन्हुदड़ो और हड़प्पा से बैलगाड़ियाँ और इक्कों की प्रतिकृतियाँ मिली हैं.
⇒ कांस्य-मूर्तियों से कांस्य कला की जानकारी मिलती है.
मृण-मूर्तियाँ
⇒ मृण-मूर्तियाँ एवं खिलौने भारी मात्रा में मिले हैं, जिनमें पशुओं एवं पक्षियों की मूर्तियाँ सर्वाधिक हैं.
⇒ हड़प्पा से प्राप्त मृण-मूर्तियों में सर्वाधिक मातृदेवी की मूर्तियाँ हैं.
⇒ पलंग पर लेटी हुई, आटा गूंथती हुई एवं अन्य घरेलू काम करती हुई स्त्रियों की मृण-मूर्तियाँ हैं.
सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन
हालांकि सिन्धु सभ्यता नगरीय सभ्यता थी, लेकिन पूर्णतः ग्रामीण जीवन पर आधारित थी. ग्रामों ने नगरों के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में अहम् भूमिका निभाई. नगरों की योजना बनाते समय सामाजिक नियोजन का पूर्ण ध्यान रखा गया था. नगर नियोजन से विदित होता है कि सामुदायिक जीवन एवं जन स्वास्थ्य की आवश्यकताओं का पूर्ण ध्यान रखा गया था. ऐसा प्रतीत होता है कि नगर के प्रशासन एवं व्यवस्था के लिए नगरपालिका जैसी कोई संस्था अस्तित्व में होगी. नगर व्यवस्था को देखकर ऐसा विदित होता है कि यहाँ सर्वाधिकारवादी शासनतन्त्र नहीं था. शासन व्यवस्था का पुरोहित वर्ग के हाथों में होने का अनुमान है. सिन्धु सभ्यता का समाज अनुशासित और प्रतिभा सम्पन्न था.
सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समाज प्रशासकों, अधिकारियों, पुरोहितों, व्यापारियों, सौदागरों, दस्तकारों, श्रमिकों आदि में विभाजित था. धनाढ्य लोग विशाल भवनों में रहते थे, जबकि श्रमिक लोग छोटे-छोटे मकानों में रहते थे.
सिन्धु सभ्यता के लोग मांसाहारी एवं शाकाहारी दोनों थे. गेहूँ, चावल, जौ, दूध एवं फलों के साथ-साथ भेड़, बकरी, सूअर, मुर्गे और मछलियाँ उनका प्रिय व्यंजन थे.
मूर्तियों एवं मुहरों से विदित होता है कि स्त्रियाँ काफी कम वस्त्र पहनती थीं. आभूषणों में मनकों की माला, करधनी, चूड़ियाँ आदि प्रमुख थे. सूती वस्त्र के तो प्रमाण मिले हैं, लेकिन रेशमी या ऊनी वस्त्रों के कोई चिह्न नहीं मिले. केश सज्जा पर स्त्रियाँ विशेष ध्यान देती थीं और पुरुष लम्बी दाढ़ी-मूँछ नहीं रखते थे. कांस्य से निर्मित दर्पण काफी प्रचलित थे. आभूषण, सोना, चाँदी, ताँबा, चीनी मिट्टी और हड्डियों से निर्मित होते थे. नाक में आभूषण पहना जाता था या नहीं इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है. गोलाकार मनकों से बना छः लड़ियों वाला कंगन कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना है.
कुछ विशेष सामाजिक तथ्य
⇒ हाथी दाँत, धातु, पत्थर और मिट्टी के पक्के शृंगारदान मिले हैं.
⇒ चन्हुदड़ो से लिपिस्टिक जैसी सामग्री मिली है.
⇒ हाथीदाँत से विभिन्न प्रकार के कंघे मिले हैं.
⇒ पुरुष काँसे से बने उस्तरों का उपयोग करते थे.
⇒ नृत्य एवं संगीत मनोरंजन के प्रमुख साधन थे.
⇒ एक मुहर पर मुहरों की लड़ाई का चित्रण है.
⇒ हाथीदाँत से निर्मित मछली पकड़ने के काँटे मिले हैं.
⇒ चन्हुदड़ो से लेखन सामग्री मिली है.
हड़प्पावासियों को सीसे (Lead) का ज्ञान था, परन्तु इस धातु का केवल एक छोटा-सा प्याला मिला है. आटा पीसने की चक्की काठी के आकार की कँकरीले पत्थर की थी. मसाला पीसने के लिए सिल गोल पत्थर की बनी होती थी.
बाँट सिलखड़ी, चूना पत्थर, स्लेट, जेस्पर आदि पत्थरों से निर्मित होते थे, जो पॉलिशयुक्त होते थे. सर्वाधिक सिलखड़ी के मिले हैं. हैमी के अनुसार छोटे बाँटों को द्विआधारी पद्धति और बड़े बाँटों को दशमलव व्यवस्था के आधार पर प्रयुक्त किया जाता था. काँसे और ताँबे के बने हुए तराजू मिले हैं. लम्बाई नापने के लिए सीपी पर बना केवल एक पैमाना मिला है.
प्रकाश के लिए हड़प्पावासी पीपों का प्रयोग करते थे जिनमें वनस्पति तेल प्रयोग में लाया जाता था. यह उल्लेखनीय है कि उस समय मोमबत्ती प्रयोग में लाई जाती थी.
औजार एवं अस्त्र-शस्त्र
⇒ मोहनजोदड़ो से काँसे की आरी और 45 सेमी लम्बी दो तलवारें मिली हैं.
⇒ बड़े भाले का फलक 38 सेमी लम्बा और 13 सेमी चौड़ा था, इससे छोटे फलक भी मिले हैं.
⇒ कटार, चाकू, वाणाग्र उस्तरे, छेनियाँ आदि भी विभिन्न स्थानों से मिले हैं.
आर्थिक जीवन
हड़प्पाकालीन आर्थिक जीवन कृषि, पशुपालन, विभिन्न हस्तकलाओं और व्यापारिक सम्बन्धों पर आधारित था. हड़प्पावासियों को कृषि और पशुपालन की पर्याप्त जानकारी थी. भेड़, बकरियाँ, कूबड़वाला बैल, कूबड़विहीन साँड़, हाथी, ऊँट और हिरन पालतू पशु थे. विभिन्न नस्ल के कछुओं के भी प्रमाण मिले हैं. घोड़े का एकमात्र प्रमाण सुरकोटड़ा की ऊँची सतह से मिला है. ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है, जिससे कहा जा सके कि हड़प्पावासी घोड़े से परिचित थे.
जितने भी हड़प्पा सभ्यता के नगर मिले हैं, सभी नदियों के किनारे ऊँचाई पर बसे हुए हैं. इससे विदित होता है कि कृषि उन नगरों के आर्थिक जीवन का मुख्य आधार रही होगी. हड़प्पावासियों को अनेक प्रकार की फसलों का ज्ञान था. गेहूँ की दो किस्में उगाई जाती थीं. हड़प्पा और मोहन-जोदड़ो से जौ प्राप्त हुआ है. कालीबंगा से गेहूँ एवं जौ दोनों के प्रमाण मिले हैं. खजूर, मटर, तिल और सरसों किए जाते थे. लोथल और रंगपुर से चावल की भूसी एक मृद्भाण्ड में रखी हुई मिली हैं. मोहनजोदड़ो से सूती कपड़े के प्रमाण मिले हैं. मेहरगढ़ से लगभग 4000 ई. पू. के कपास के कपड़े के प्रमाण मिले हैं. कालीबंगा में खेत की सतह पर हल चलाने के अनेक निशान मिले हैं. इससे स्पष्ट है कि हड़प्पा सभ्यता में खेत जोतने की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी.
प्रमाणों से विदित होता है कि हड़प्पा सभ्यता में व्यापारिक गतिविधियों में काफी अभिवृद्धि हुई थी. रोहड़ी और सक्खर से चकमक पत्थर से निर्मित ब्लेड मँगाए जाते थे. लासबेला के निकट बालाकोट और चन्हुदड़ो से विभिन्न वस्तुओं को बनाने एवं चूड़ी बनाने के केन्द्रों के चिह्न मिले हैं.
अनेक पश्चिम एशियाई देशों से प्राप्त हड़प्पाई मुहरों से ज्ञात होता है कि भारत और पश्चिम एशियाई देशों के बीच हड़प्पाकाल में व्यापारिक एवं वाणिज्यिक सम्बन्ध थे. स्वर्ण का आयात सम्भवतः कर्नाटक के पास की सोने की खानों से किया जाता होगा. चाँदी के अफगानिस्तान एवं ईरान से आयात के संकेत मिलते हैं. ताँबा राजस्थान, दक्षिण भारत, ब्लूचिस्तान और अरब देशों से आयात किया जाता था. सीसा दक्षिण भारत से और नीलम बदख्शाँ से लाया जाता था. अधिकतर व्यापारिक गतिविधियाँ जलमार्ग से ही होती थीं. नाव, जहाज, बैलगाड़ियाँ और इक्कों की प्रतिकृतियों से विदित होता है कि ये यातायात के साधन थे.
सिन्धु सभ्यता : अन्त्येष्टि क्रिया
उत्खनन से प्राप्त विभिन्न शवों के परीक्षण के आधार पर पुरातत्वविदों एवं इतिहासकारों ने वहाँ प्रचलित अन्त्येष्टि क्रिया को मुख्यतः तीन प्रकारों में अभिव्यक्त किया है-
(1) पूर्ण शवाधान – (गाड़ना).
(2) आंशिक शवाधान – जिसमें शव को पशु-पक्षियों द्वारा खाने के बाद अवशिष्ट अवशेषों को अन्य वस्तुओं के साथ दफनाने की प्रक्रिया ज्ञातव्य है.
(3) शव के दाह के बाद बची हुई अस्थियों को एक छोटी मंजूषा में रखकर बाद में बड़ी मंजूषा में रखकर दफनाने की प्रक्रिया.
विभिन्न कब्रों के अवशेष इस तथ्य को पुष्ट करते हैं कि पूर्ण शवाधान की प्रथा अधिक प्रचलित थी. लोथल से शवाधान के दो प्रकार के साक्ष्य मिले हैं, एक कब्र में शव के साथ रोजमर्रा की वस्तुएँ मिली हैं, जबकि दूसरी कब्र में दो शवों को एक साथ दफनाया गया है. हड़प्पा सभ्यता के अन्य नगरों से भी शवाधान के प्रमाण मिले हैं, जो इस बात के द्योतक हैं कि शवाधान की प्रथा हड़प्पा सभ्यता में प्रचलित थी.
सिन्धु सभ्यता का परवर्ती सभ्यता पर प्रभाव
सिन्धु सभ्यता भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रथम महत्वपूर्ण चरण है जिसके कई तत्व परवर्ती भारतीय संस्कृति में स्पष्ट परिलक्षित हैं. हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय देवता का उद्गम स्रोत सिन्धु सभ्यता ही है, तो लिंग पूजा की परम्परा भी इसी की देन है. परवर्ती सभ्यता में नारी देवियों की परिकल्पना के प्रारम्भ को भी सिन्धु सभ्यता से समीकृत किया जा सकता है. पीपल एवं नाग पूजा जो आज भारतीय धार्मिक विश्वास का महत्वपूर्ण आधार है, जिस पर सिन्धु सभ्यता का प्रभाव सुस्पष्ट है.
भारतीय परम्परा एवं विचारों में योग को विशेष महत्व दिया गया है. उसका प्रारम्भ भी सिन्धु सभ्यता से ज्ञात होता है.
 सिन्धु सभ्यता की उत्पत्ति
पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में सिन्धु सभ्यता की उत्पत्ति का प्रश्न अत्यन्त विवादास्पद है. व्हीलर जैसे पाश्चात्य पुरातत्वविदों ने इसके उद्गम को मेसोपोटामिया से समीकृत किया है. इनकी मान्यता है कि मेसोपोटामिया से सभ्यता के विभिन्न तत्वों को ग्रहण कर यहाँ नवीन और परिवर्तित रूप में प्रस्तुत किया गया. ऑल्चिन जैसे इतिहासकारों ने भारतीय उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्त स्वीकार करते हुए यह संकल्पना प्रस्तुत की है कि यह आकस्मिक एवं प्रखर रूप से उद्भूत हुई.
अमलानन्द घोष जैसे भारतीय पुरातत्वविदों ने यह विश्वास प्रकट किया है कि सिन्धु सभ्यता न केवल यहीं उद्भूत हुई बल्कि क्रमिक विकास का परिणाम भी है.
विगत कुछ वर्षों में सैंधव सभ्यता से सम्बन्धित विभिन्न स्थलों पर किये गये विस्तृत उत्खनन के फलस्वरूप सिन्धु-पूर्व की कई ग्रामीण बस्तियों के अवशेष मिले हैं जिनमें ब्लूचिस्तान (मेहरगढ़, किली गुलमुहम्मद, दम्ब सादात, जाहदम्स अंजीरा, रानाघुण्डई, कुली नाल, गोमलघाटी इत्यादि.
प. पंजाब – सराय खोला, जलीलपुर.
सिन्ध – आमरी एवं कोटदीजी.
भारत – कालीबंगा, बनवाली, आदि उल्लेखनीय हैं. इन विभिन्न बस्तियों की मुख्य बात यह है कि यह न केवल सिन्धु सभ्यता के पूर्व भी जीवनयापन और मानव सभ्यता के अस्तित्व का संकेत देती है, बल्कि क्रमशः सिन्धु के नगरीय सभ्यता के रूप में विकसित हुई. इस दृष्टि से कालीबंगा सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल है, जहाँ सिन्धु-पूर्व की बस्ती भी किलेबन्दी से आवृत्त है.
अतः सिन्धुपूर्व के इन स्थलों की प्राप्ति तथा सिन्धु सभ्यता के साथ इनकी तारतम्यता इस सम्भावना को पुष्ट करती है कि सिन्धु सभ्यता न तो विदेशी उत्पत्ति का परिणाम है और न ही आकस्मिक रूप से उद्भूत हुई बल्कि भारतीय उत्पत्ति और क्रमिक विकास सम्बन्धी मान्यता को पुष्ट करती है.
धार्मिक विश्वास और परम्परा
विभिन्न सैंधव क्षेत्रों से उत्खनन से प्राप्त अवशेषों में स्पष्टतः किसी मन्दिर अथवा पूजागृह के अवशेष नहीं मिले हैं (मोहनजोदड़ो के एक अस्पष्ट जो उनकी धार्मिक मान्यताओं के साक्ष्य को छोड़कर) और विश्वास के प्रतीक हों. लिपि की अपठनीयता के कारण भी धार्मिक परम्पराओं का निश्चित ज्ञान सम्भव नहीं है, फिर भी उत्खनन से प्राप्त मूर्तियों एवं मुहरों पर उत्कीर्ण चित्रों का अध्ययन कर इतिहासविदों ने सिन्धुवासियों के धर्म सम्बन्धी विश्वासों का साक्ष्य रूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.
सभ्यता के विभिन्न स्थलों से प्राप्त मोहरों पर प्रभूत मात्रा में नारी चित्रों का अंकन सुविज्ञ है. कहीं-कहीं पर यह धूम्र से परिवेष्ठित जान पड़ती है, तो किसी मुहर पर उसके गर्भ से निकलते वृक्ष का चित्रांकन है. पीपल की शाखाओं के बीच उसका चित्र अंकित है. इस प्रकार विभिन्न रूपों एवं पर्याप्त मात्रा में नारी चित्रों का अंकन समकालीन सभ्यताओं में मातृदेवी सम्बन्धी साक्ष्य तथा परवर्ती भारतीय संस्कृति में नारी की मातृदेवी की उपासना उनके धार्मिक विश्वास का महत्वपूर्ण आधार था.
मुहरों पर योगी का चित्रांकन तथा योगी की मूर्तियों की प्राप्ति उनके ‘परम पुरुष की उपासना’ सम्बन्धी विश्वास को पुष्ट करती है. इस दृष्टि से मार्शल को मोहनजोदड़ो से प्राप्त वह विशेष मुहर उल्लेखनीय है जिस पर तीन मुख वाले, विभिन्न पशुओं से घिरे निर्वस्त्र योगी का अंकन है तथा मार्शल ने उसका समीकरण ‘पशुपति शिव’ के साथ किया है. शिव को योगीश्वर भी कहा गया है. अतः पशुपति शिव की आराधना एवं पूजा भी इनके धार्मिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग थी.
धार्मिक जीवन
⇒ हड़प्पा सभ्यता का कोई मन्दिर या कोई धार्मिक स्थल प्राप्त नहीं किए हुआ है.
⇒ हड़प्पावासी मातृदेवी, पशुपति, पशु, वृक्ष, लिंग, सूर्य आदि की पूजा करते थे.
⇒ पद्मासन की मुद्रा में बैठे पशुपति की मोहर में ऊपर सात अक्षरों वाला अभिलेख मिला है.
⇒ पूजा योग्य पशुओं को तीन श्रेणियों में रखा गया-(i) काल्पनिक पशु; जैसे-अर्द्ध-मानव, (ii) अस्पष्ट स्वरूप वाले पशु, (iii) वास्तविक पशु; जैसे-कूबड़वाला बैल आदि,
⇒ गाय की पूजा हड़प्पा सभ्यता में नहीं होती थी.
⇒ वृक्षों में पीपल के वृक्ष की पूजा सर्वाधिक की जाती थी.
⇒ मिट्टी और ताँबे से बने ताबीज प्रयोग में लाए जाते थे.
⇒ स्वास्तिक के चिह्न मिले हैं, जो सूर्योपासना का प्रमाण हैं.
⇒ नर्तकी की मूर्ति की खोज दयाराम साहनी ने की और उसकी तुलना मन्दिरों की देवदासियों से की.
⇒ कालीबंगा से कच्ची मिट्टी के चबूतरों पर स्थापित अनेक अग्निवेदियाँ मिली हैं.
⇒ कुछ अग्निवेदियों में पशुबलि भी दी जाती थी.
⇒ मार्टिमर व्हीलर ने हड़प्पा से एक कब्रिस्तान की खोज की है.
⇒ मोहनजोदड़ो से तीन प्रकार के शवाधान के प्रमाण मिले हैं—पूर्ण शवाधान, आंशिक शवाधान और दाह संस्कारोपरान्त शवाधान.
⇒ लोथल में दो प्रकार की कब्रें मिली हैं-एक में कंकाल के साथ वस्तुएँ रखी हैं और दूसरी में दो शवों को एक साथ दफनाया गया है,
उत्खनन से प्राप्त विभिन्न प्रस्तर लिंग एक ओर जहाँ लिंग पूजा की ओर संकेत देते हैं वहीं शिव के अस्तित्व की भी पुष्टि करते हैं.
सैंधव मुहरों पर उत्कीर्ण विभिन्न पशु-पक्षियों एवं वृक्षों अंकन यह सिद्ध करता है कि वे इन्हें पवित्र समझते थे. मुख्यतः पीपल, नाग, वृषभ पूजा के प्रचलन को स्वीकार किया गया है. कालीबंगा और लोथल से प्राप्त अग्निकुण्ड जिनमें राख और हड्डियाँ भी मिली हैं, उनकी यज्ञीय परम्परा और पशुबलि सम्बन्धी विश्वासों को इंगित करती है, तो हड़प्पा से प्राप्त ताबीज तन्त्रमन्त्रीय एवं अन्धविश्वासीय परम्पराओं को योगी की मूर्तियाँ यदि एक ओर योग की परम्परा एवं प्रचलन का परिचायक हैं, तो दूसरी ओर निवृत्ति मार्गी परम्परा के उद्गम की पुष्टि करती है.
नगर नियोजन
विभिन्न सैंधव स्थलों के उत्खनन से प्राप्त अवशेषों के सम्यक् परीक्षण से ज्ञात होता है कि नगर नियोजन सिन्धु सभ्यता की विशिष्ट एवं उल्लेखनीय विशेषता है. खुदाई में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ी, कालीबंगा, बनवाली, लोथल एवं धौलावीरा जैसे कई महत्त्वपूर्ण नगरों के अवशेष मिले हैं. धौलावीरा (3 खण्डों में विभक्त) लोथल एवं चन्हुदड़ो (एक ही टीले में उपस्थित) को छोड़कर अधिकांश नगर दो खण्डों में विभक्त है. मोहनजोदड़ो को हड़प्पा सभ्यता का आदर्श नगर माना जा सकता है. इसका पश्चिमी भाग दुर्गीकरण [(गढ़ी) citadel] की योजना पर आधारित है, जिसमें पुरोहित आवास, अन्नागार, विशाल स्नानागार तथा सभा भवन जैसे कई सार्वजनिक महत्त्व के भवन स्थित हैं. ये भाग ऊँची पीठिका पर निर्मित होने के कारण पूर्वी खण्ड की अपेक्षा अधिक ऊँचा है और फलस्वरूप इसे ऊपरी टीले या नगर के रूप में अभिहित किया गया है. पूर्वी भाग जनसामान्य के आवास के लिए प्रयुक्त किया जाता था, जो निचले स्तर पर आवासित था.
सैंधव नगर नियोजन का उल्लेखनीय पक्ष है—एक-दूसरे को समकोण पर काटती सीधी सड़कें जिससे सम्पूर्ण नगर कई आयताकार एवं वर्गाकार खण्डों में विभक्त हो गया है. इस पद्धति को ऑक्सफोर्ड, सर्कस या जाल (ग्रीड) पद्धति नाम दिया है. इनकी चौड़ाई 9 से 34 फीट है और सड़क के दोनों ओर आवास गृह स्थित हैं.
भवन निर्माण में अधिकांश पक्की ईंटों का प्रयोग ज्ञातव्य है जो नगर नियोजन का एक अन्य विशिष्ट पक्ष है. उल्लेखनीय है कि मिस्र में धूप में सुखाई ईंटों का प्रयोग होता था, तो मेसोपोटामिया में यह आंशिक रूप से ज्ञात है.
मकानों की योजना आँगन पर आधारित है, जिसमें स्नानागार, रसोईघर के अतिरिक्त अन्य कमरों के अवशेष मिले हैं. प्रवेश द्वार मुख्य मार्ग की अपेक्षा पीछे की ओर (लोथल को छोड़कर) खुलते थे. दो मंजिले भवनों के अवशेष भी मिले हैं.
कुल मिलाकर भवन निर्माण में सौन्दर्य एवं कलात्मक अभिक्रमित के स्थान पर व्यावहारिक और उपयोगितावादी दृष्टिकोण परिलक्षित होता है.
सैंधव नगरीय संरचना का अन्य मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण पक्ष है-जल निकास प्रणाली, जो समकालीन सभ्यताओं में सामान्यतः दृष्टिगोचर (क्रीट को छोड़कर) नहीं होती. व्यक्तिगत आवासों से निकली नालियाँ मुख्य प्रणाली के साथ सम्बद्ध थीं, इनके ईंट एवं पत्थरों से ढके होने का भी साक्ष्य है. इनके बीच में गहए (Soack pits) बने हैं, ताकि पानी के प्रवाह में अवरोध न आ सके. इस प्रकार सिन्धु सभ्यता के नगर नियोजन में व्यवस्था, कुशलता, पूर्व योजना एवं यथार्थता का सुन्दर समन्वय दृष्टिगत होता है.
धातु प्रौद्योगिकी
प्राप्त साक्ष्यों से स्पष्ट है कि हड़प्पा सभ्यता में विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न धातुओं एवं मिश्र धातुओं का प्रयोग किया जाता था. रोजमर्रा की वस्तुओं के निर्माण के लिए ताँबे का प्रयोग सर्वाधिक होता था. मिश्र धातुओं में कांस्य सर्वाधिक उपयोग में लाया जाता था. धातुओं में जो मूर्तियाँ बनाई गई हैं, वे अधिकांश कांस्य की हैं. आभूषणों के लिए सोना और चाँदी भी उपयोग में लाए जाते थे. सीसे का आयात सिल्लियों के रूप में होता था और इससे फूलदान, साहुल आदि बनए जाते थे. संखिया, एंटीमनी और निकल का प्रयोग विभिन्न कार्यों के लिए किया जाता था.
ताँबे को कठोर बनाने के लिए इसमें संखिया मिलाया जाता था. ढली हुई वस्तुओं को कठोर बनाने के लिए भी संखिया प्रयोग में लाया जाता था. हड़प्पाकालीन लोग संखिया और सीसे का प्रयोग मिश्र धातु के बनाने में करते थे. हड़प्पावासी हथौड़े से पीट-पीटकर सुन्दर एवं उत्कर्ष ताँबे एवं कांस्य के बर्तनों का निर्माण करते थे. परवर्ती हड़प्पाकाल में धातु के बर्तन बनाने की एक नई कला का विकास हुआ, जिसमें धातु के टुकड़ों को जोड़कर बर्तन बनाया जाता था. मानव एवं पशु कांस्य मूर्तियाँ एवं इक्के, बैलगाड़ी आदि की प्रतिकृतियाँ ढालकर बनाई गई विधि का उत्कृष्ट नमूना हैं. इससे स्पष्ट है कि हड़प्पाकाल में ढलाई की प्रक्रिया काफी प्रचलित थी.
 कताई-बुनाई का प्रचलन
हड़प्पा सभ्यता के अनेक घरों से तकुवे और तकलियाँ मिली हैं, इस बात की द्योतक हैं कि हड़प्पा सभ्यता में कताई-बुनाई की प्रथा प्रचलित थी. तकलियाँ चीनी मिट्टी और सीपियों के साथ-साथ मिट्टी की भी बनी हुई मिली हैं. विभिन्न ताँबे की वस्तुओं के साथ कपड़े के कुछ नमूने भी मिले हैं, जो सम्भवतः कपास के रेशों से ही निर्मित हैं. एक रंगीन कपड़ा भी मिला है. इससे प्रतीत होता है कि हड़प्पावासी रंगाई की विधि से अपरिचित नहीं थे. बैंगनी रंग के मजीठ के पौधे से निकाले जाने की सम्भावना है.
सिन्धु सभ्यता का पतन
पर्याप्त निश्चित साक्ष्यों के अभाव में सिन्धु सभ्यता की विलुप्तता एवं ह्रास सम्बन्धी प्रश्न विवादास्पद है. विभिन्न पुरातत्वविदों एवं इतिहासविदों ने इस सन्दर्भ में विभिन्न संकल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं.
व्हीलर ने आर्यों के आक्रमण को सभ्यता के पतन का मुख्य कारण माना है, जिसका समर्थन ‘स्टुगर्ट पिग्गट’ ने भी किया है. इस सन्दर्भ में दिये गये तर्कों में मोहनजोदड़ो से कई मानव कंकालों की प्राप्ति प्रमुख है, जो व्यापक जनसंहार की प्रतीक है. ऋग्वेद में इन्द्र का पुरन्दर के रूप में वर्णन, उल्लेखनीय है. जिसे सभ्यता के किलों को नष्ट करने के लिए उत्तरदायी माना गया है.
रामशरण शर्मा के अनुसार यह मत समीचीन नहीं है, क्योंकि प्राप्त कंकाल किसी एक निश्चित समय से सम्बन्धित नहीं है साथ ही हड़प्पा सभ्यता के पतन का अनुमानित समय 18-17 शताब्दी B.C. के आसपास स्वीकार्य है, जबकि आर्यों का आगमन या वैदिक सभ्यता की स्थापना 1500 B.C. के आसपास मानी गई है. बीच के इस युग में कई ताम्रकालिक एवं परवर्ती सैंधव संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं.
मार्शल, एस. आर. राव, अर्नेस्ट मैके ने नदियों में आयी बाढ़ को सभ्यता के पतन का मुख्य कारण माना है. इस सन्दर्भ में मार्शल ने सिन्धु नदी की बाढ़ मोहनजोदड़ो के सन्दर्भ में, डॉ. एस. आर. राव ने लोथल एवं भगवत राव (भोगवा, साबरमती) नदियों के परिप्रेक्ष्य में तथा मैके ने चन्हुदड़ो को इसी रूप में पतनोन्मुख परिकल्पित किया है और उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में बाढ़ से उत्पन्न विनाश सम्बन्धी साक्ष्य प्राप्त होने की सम्भावना स्वीकार की है.
आर. एल. रीज ने भी सिन्धु नदी की बाढ़ को इस सन्दर्भ में स्वीकार किया है, लेकिन प्रश्न उठता है कि अन्य विविध क्षेत्रों एवं स्थलों के पतन का इससे क्या सम्बन्ध है?
ओरेल स्टाइन, अमलानन्द घोष, डी. पी. अग्रवाल इस दृष्टि से जलवायु में परिवर्तन को पतन के लिए उत्तरदायी ठहराया है. सिन्धु और घघ्घर के क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण शुष्कता बढ़ी और जीवनयापन की परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो गईं. परिणामस्वरूप लोगों ने वहाँ से पलायन किया और सभ्यता क्रमशः खण्डहरों में परिवर्तित हो गई.
एम. आर.. साहनी (प्रमुख भू-वैज्ञानिक) ने जलप्लावन के परिणामस्वरूप उत्पन्न दल-दल और कीचड़युक्त भूमि में वृद्धि को सभ्यता के पतन के कारण के रूप में विहित किया है जिससे न केवल यातायात बाधित हुआ बल्कि सामान्य जीवन-यापन भी असम्भव हो गया.
के. यू. आर. केनेडी ने इस सन्दर्भ में महामारी जैसे संक्रामक रोगों की सम्भावना स्वीकार की है, इससे एक साथ लोग मारे गये तथा रहने के स्थल खण्डहरों में बदल गये.
गुरुद्वीप सिंह ने कालीबंगा व सिन्ध में भूमि की शुष्कता बढ़ना पतन का कारण माना है.
पतन का अन्य कारण सैंधववासियों द्वारा अपने भौतिक संशोधनों का अधिकाधिक उपयोग है, जिससे उसकी जीवन्त शक्ति समाप्त हो गई और अंततोगत्वा सभ्यता के पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ.
यद्यपि निश्चित और प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में पतन के किसी निश्चित कारण को विहित करना दुष्कर है, लेकिन अधिक उपयुक्त सम्भावना यही है कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कारक तत्वों की भूमिका रही.
पतन के कारण संक्षिप्त में
(1) विदेशी आक्रमण – गॉर्डन चाइल्ड, एम. व्हीलर, पिगट.
(2) प्राकृतिक कारण – जलधारा (नदियों) में परिवर्तन.
(3) रावी नदी की जलधारा में परिवर्तन – एम. एस. वत्स घघ्घर नदी–डेल्स
(4) जलप्लावन – एम. आर. साहनी
(5) अग्नि प्रकोप – राना घुण्डई, नाल, डाबर कोत् की ऊपरी सतह पर राख की पढ़ें.
(6) महामारी – प्लेग, मलेरिया का प्रकोप, भूमि की शुष्कता व जलवायु परिवर्तन.
(7) मानवीय कारण – (1) बढ़ती जनसंख्या और साधनों की कमी, (2) प्रशासनिक शिथिलता.
(8) आर्थिक कारण – व्यापार में गिरावट आदि.

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